धरा और अंबर की शादी को अभी सप्ताह भर भी नहीं गुजरा था कि उस के लौटने का वक्त आ गया. उसे आज ही बैंगलोर के लिए निकलना था. वह बैंगलोर की एक आईटी कंपनी में कार्यरत था. वहीं धरा अभी अंबर को ठीक से देख भी नहीं पाई थी, देखती भी कैसे…? पूरा घर नातेरिश्तेदारों से जो भरा हुआ था. हर दिन कोई न कोई रस्म अब भी जारी थी, जो समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रही थी. इधर इतनी भीड़भाड़ और शोरशराबे के बीच भला धरा कैसे अंबर से अपने मन की बात कह पाती. कैसे कहती कि मुझे यहां छोड़ कर मत जाओ… या मैं भी तुम्हारे संग चलूंगी.

उधर अंबर भी सारा दिन दोस्तयारों में घिरा रहता. रात को कमरे में आता भी तो धरा उस के गंभीर स्वभाव और संकोचवश कुछ कह नहीं पाती. वह अंबर से पूछना चाहती थी. उस ने ज्यादा दिनों की छुट्टी क्यों नहीं ली? लेकिन पूछ न सकी, वैसे तो अंबर और धरा का मधुर मिलन हो चुका था, लेकिन अब भी दोनों के बीच एक लंबा फासला था, जो धरा के लिए अकेले तय कर पाना संभव नहीं था. हमारे यहां की अरेंज मैरिज‌ में यह सब से बड़ी खासियत है या विडंबना…? मालूम नहीं… दिल मिले ना मिले, लेकिन शरीर जरूर मिल जाते हैं.

वैसे, धरा अंबर को उसी दिन से दिल ही दिल में चाहने लगी थी, जिस दिन से उस की और अंबर की शादी तय हुई थी. कालेज में यह बात सभी जानने लगे थे. यहां तक कि धरा के स्टूडेंट्स भी क‌ई बार उसे अंबर के नाम से छेड़ने लगते. धरा गर्ल्स कालेज के हिंदी विभाग में हिंदी साहित्य की असिस्टेंट प्रोफेसर थी.

अंबर कुछ कहे बगैर और धरा से बिना मिले ही चला गया. इतने भरेपूरे और चहलपहल वाले घर में भी धरा स्वयं को अकेला महसूस करने लगी. वह अंबर के फोन का इंतजार करती रही. अंबर का फोन भी आया, परंतु बाबूजी के मोबाइल पर, सब ने उस से बात की बस… धरा रह गई. सासू मां ने केवल इतना बताया कि अंबर कुशलतापूर्वक बैंगलोर पहुंच गया है. यह सुन धरा चुप रही.

दिन बीतते ग‌ए, धरा यहां बिजनौर, उत्तर प्रदेश में और अंबर वहां बैंगलोर में, दोनों अपनेअपने काम में व्यस्त रहने लगे, लेकिन धरा को हरदम अंबर से उस की यह दूरी खलने लगी. वह उस से मिलने और बातें करने को बेताब रहती, किंतु धरा के मोबाइल पर अंबर कभी फोन ही नहीं करता.

जब भी वह फोन करता, बाबूजी या सासू मां को ही करता. यदाकदा सासू मां धरा को फोन थमा देती, लेकिन सब के सामने धरा कुछ कह ही नहीं पाती, यह देख सासू मां और बाबूजी वहां से हट जाते. उस के बाद भी अंबर उस से कभी प्यारभरे दो शब्द नहीं कहता और धरा के मन में हिलोरें मार रहे प्रेम का सागर थम जाता.

अंबर का यह व्यवहार धरा की समझ से परे था. धरा अपनी ओर से पहल करती हुई जब कभी भी अंबर को फोन करती तो वह फोन ही नहीं उठाता, भूलेभटके कभी फोन उठा भी लेता तो कहता, “मैं मीटिंग में हूं. मैं अभी बिजी हूं.” और कभीकभी तो वह धरा को बुरी तरह से झिड़क भी देता. इन सब बातों की वजह से धरा के मन में उमड़तेघुमड़ते मनोभाव उसे चिंतित होने पर मजबूर करते, वह सोचती कोई भला इतना व्यस्त कैसे हो सकता है कि उस के पास अपनी नईनवेली पत्नी से बात करने तक का भी वक्त ना हो.

एक दिन तो हद ही हो गई, जब सासू मां ने कहा, “देखो बहू तुम बारबार अंबर को फोन कर के उसे परेशान ना किया करो. वहां वो काम करेगा या तुम से प्रेमालाप.”

ऐसा सुनते ही धरा तिलमिला उठी और उस दिन के उपरांत वह फिर दोबारा कभी अंबर को फोन नहीं की.

इन्हीं सब हालात के बीच हिचकोले खाती कालेज और गृहस्थी की गाड़ी चलती रही. अंबर अपनी मरजी से दोचार महीने में आता. 1-2 दिन रुकता और फिर वापस चला जाता, कभी धरा संग चलने की इच्छा जाहिर भी करती तो वह यह कह कर मना कर देता कि तुम साथ चलोगी तो यहां मांबाबूजी अकेले हो जाएंगे, उन की देखभाल कौन करेगा? और तुम्हारे कालेज से भी तुम्हें छुट्टी लेनी पड़ेगी.”

उस के आगे फिर धरा कुछ नहीं कहती. धरा अपनी नाकाम हो रही शादी को बचाने के लिए परिस्थितियों से समझौते करने लगी. उस का अधूरापन ही अब उस की नियति बन गई.

एक ही शहर में ससुराल और मायका होने के कारण छुट्टी वाले दिन कभीकभी धरा अपना अकेलापन दूर करने मायके चली जाती.

मां से जब भी वह अंबर के बारे में कुछ कहती, तो मां उलटा उसे ही समझाइश देने लगती, “कहती, अब जो है अंबर है और तुझे अपनी जिंदगी उसी के साथ ही गुजारनी है, इसलिए वह बेकार की बातों पर ध्यान ना दे, पूजापाठ करे, व्रत करे, भगवान में ध्यान लगाए, इसी में उस की भलाई और दोनों परिवारों का मान है.”

मां से यह सब सुन धरा मन मसोस कर रह जाती.

शादी के 2 साल बाद धरा की गोद हरी हो गई और उस ने सृजन को जन्म दिया. जिस ने धरा की जिंदगी के खालीपन को न‌ई उमंगों से भर दिया और धरा मुसकरा उठी. उस ने 6 महीने का कालेज से मातृत्व अवकाश भी ले लिया, लेकिन अंबर में अब भी कोई बदलाव नहीं था.

कुछ सालों के बाद धरा को कालेज की ओर से बैंगलोर में आयोजित हो रहे सेमिनार में मुख्य प्रवक्ता के रूप में आमंत्रित किया गया. शादी के इतने साल बाद ही सही, कुछ दिनों के लिए तो उसे अंबर के साथ स्वतंत्र रूप से रहने को मिलेगा.

यह सोच कर वह मन ही मन पुलकित हो उठी.आंखों में प्रेम संजोए धड़कते दिल से अंबर को इत्तला किए बगैर सृजन के संग वह बैंगलोर जा पहुंची और जैसे ही उस ने डोर बेल बजाई…

अचानक मोबाइल का रिंग बज उठा, जिस से धरा की तंद्रा भंग हुई और वह वर्तमान में लौट आई.

सृजन का फोन था. फोन उठाते ही सृजन बोला, “मम्मी आप तैयार रहिए. बस, मैं कुछ ही देर में वहां पहुंच रहा हूं.”

सृजन के फोन रखते ही धरा अपना मोबाइल एक ओर रखती हुई होंठों पर हलकी सी मुसकान और नम आंखों के संग वहीं बिस्तर पर बैठी रही, उसे ऐसा लगा मानो उस ने जिंदगी की सब से अहम जंग जीत ली हो. यह उस की कड़ी मेहनत और संघर्ष का नतीजा था कि सृजन यूपीएससी उत्तीर्ण कर आईपीएस अधिकारी बन गया. वह उस मुकाम पर पहुंच गया, जहां वो सदा से ही उसे देखना चाहती थी. धरा के नयनों के समक्ष दोबारा एकएक कर फिर अतीत के पन्ने उजागर होने लगे.

उसे वह कठिन वक्त स्मरण हो आया, जब सृजन को ले वह अंबर के पास बैंगलोर पहुंची. वहां पहुंचने पर उस ने जो देखा उस के होश उड़ गए, उस के पैरों तले जमीन खिसक गई और इतने सालों का विश्वास क्षण भर में चूरचूर हो गया. अंबर की यहां अपनी एक अलग ही दुनिया थी, जहां धरा और सृजन के लिए कोई स्थान नहीं था.

धरा बोझिल मन से सेमिनार अटेंड कर बिजनौर लौट आई, लेकिन वह ससुराल ना जा अपने मायके आ गई. वह जिंदगी के उस दोराहे पर खड़ी थी, जहां एक ओर उस का आत्मसम्मान था और दूसरी ओर पूरे समाज के बनाए झूठे खोखले आदर्श, जिसे धरा के अपने ही लोग मानसम्मान का जामा पहनाए उसे स्त्री धर्म और मां के कर्त्तव्य का पाठ पढ़ा रहे थे.

विषम परिस्थिति में सब ने उस का साथ छोड़ दिया. यहां तक कि उस के अपने जिन से उस का खून का रिश्ता था, उन लोगों ने भी उस से मुंह मोड़ लिया. जिस घर में उस ने जन्म लिया, जहां वह खेलकूद कर बड़ी हुई, आज वही घर उस के लिए पराया हो ग‌या था.

धरा के पापा आराम कुरसी पर आंखों पर ऐनक चढ़ाए दोनों हाथों को बांधे, सिर झुकाए चुपचाप शांत भाव से बैठे सब देखसुन रहे थे और मां उन्हें उलाहना दिए जा रही थी, “और पढ़ाओ बेटी को, सुनो, क्या कह रही है वह. अपने ससुराल में अब वह नहीं रहेगी. अब क्यों बुत बने बैठे हो, नाक कटाने पर आमादा है तुम्हारी लाड़ली, उसे कुछ कहते क्यों नहीं?”

पूरा घर धरा को यह समझाने में लगा हुआ था कि परिवार को सहेजना और बनाए रखना हर नारी का परम धर्म है. स्त्री की पहचान और उस के बच्चे का उज्ज्वल भविष्य पति के संग हर परिस्थिति में समझौता करने में है.

उसी नारी की मान और पूछ होती है, जो अपने घर की दहलीज मृत्यु के उ‌परांत लांघती है, परंतु धरा ने तो जैसे हठ ही पकड़ ली थी कि वह अब ससुराल में किसी भी हाल में नहीं रहेगी.

धरा की सासू मां अपनी भौंहें मटकाती और हाथ नचाती हुई बोली, “औरत जात को इतना घमंड शोभा नहीं देता और कौन सा अंबर ने उस औरत के संग ब्याह रचा लिया है. साथ ही तो रह रहा है ना‌… तो क्या हुआ, मर्द ऐसा करते हैं? यहां तुझे किस बात की कमी है. तुम यहां हमारे साथ रहो, किसी को कुछ पता नहीं चलेगा और समाज में भी मानप्रतिष्ठा बनी रहेगी.”

अंबर को अपने किए पर जरा भी अफसोस नहीं था. वह पिता के रुप में सृजन का सारा खर्च उठाने को तैयार था, लेकिन वह अभी भी यही चाहता था कि धरा पहले की तरह उस के घर में उस के मातापिता के साथ रहे, उन की सेवा करे. जिस से समाज में उन का मान बना रहे, लेकिन इस बार धरा यह ठान चुकी थी कि वह किसी की नहीं सुनेगी, केवल अपने मन का ही करेगी.

धरा ना ससुराल लौटी और ना ही अपने मायके में रही. उस ने अकेले ही सृजन की परवरिश की. धरा पूर्ण रूप से अतीत में डूब चुकी थी, तभी डोर बेल बजी.

धरा के दरवाजा खोलते ही सृजन धरा से लिपटते हुए बोला, ” डियर मम्मा ये क्या है…? आप अभी तक तैयार नहीं हुईं… हमें बस थोड़ी ही देर में निकलना है.”

धरा मुसकराती हुई बोली, “बस अभी तैयार होती हूं आईपीएस साहब.”

सृजन की पोस्टिंग लखनऊ हो गई थी और वह चाहता था कि उस की मां धरा उस के साथ ही रहे. तभी सृजन का मोबाइल बजा, फोन उस के पिता अंबर का था.

सृजन के फोन रिसीव करते ही अंबर करुणा और याचना भरे शब्दों में कहने लगा, “बेटा अब मेरी सेहत ठीक नहीं रहती है. मैं अकसर बीमार रहने लगा हूं और अब बहुत अकेला भी हो गया हूं. तुम मुझे भी अपने साथ ले चलो.”

सृजन बोला, “पापा, आप चिंता ना करें. आप की दवाओं का सारा खर्च मैं उठा लूंगा. आप की देखभाल के लिए पूरी व्यवस्था कर दूंगा, लेकिन अब आप हमारी दुनिया का हिस्सा नहीं बन सकते. आप हमारे साथ नहीं रह सकते,” कहते हुए सृजन ने फोन धरा को थमा दिया.

धरा के फोन पर आते ही अंबर बोला, “धरा, अब भी हम पतिपत्नी हैं. हमारे बीच तलाक नहीं हुआ है.”

अंबर के ऐसा कहने पर धरा लंबी सांस लेती हुई बोली, “कानूनी तौर पर भले ही हमारा रिश्ता टूटा नहीं है. हम अब भी पतिपत्नी हैं, किंतु मानसिक रूप से तो यह रिश्ता कब का टूट चुका है. मैं तो काफी पहले ही इस रिश्ते को तिलांजलि और तुम्हारा परित्याग कर चुकी हूं. अब इसे जोड़ पाना मेरे लिए मुमकिन नहीं.”

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