लड़कियां जैसे ही बड़ी होती हैं, उन्हें परिवार नियोजन और सेवा के बारे में राय देने की जरूरत होती है, पर सब देने में हिचकिचाते हैं. डाक्टर मांएं तक अपनी बेटियों को यह जानकारी नहीं दे पाती हैं और किशोरियों और जवान लड़कियों को ऐसी जानकारियां खुद ही जमा करनी होती हैं, नहीं तो वे टीनएज में सैक्सुअल टच, सेफ  सैक्स, जाति, धर्म, अमीरीगरीबी, जैंडर असमानता से पीडि़त रहती हैं.

जैंडर इक्वैलिटी, फीमेल एंपावरमैंट, नौजवान राइटर्स और जस्टिस पर बनाए गए कानून को लागू किए जाने पर सब लोग अपना मुंह बंद रखते हैं. इकोनौमिक फोरम की ग्लोबल जैंडर की रिपोर्ट साल 2014 से जारी हुई है. यह देशों की तुलना करती है कि कौन कहां है. कुल 156 देशों की लिस्ट में से भारत का रैंक नीचे से 140वां है.

यह बहुत ही शर्म की बात है. हम ‘मंदिरमंदिर, हिंदूहिंदू’ करते हैं, पर औरतों को भूल जाते हैं. पर हकीकत में तो कट्टर हिंदू होने का मतलब ही औरतों पर जोरजुल्म करने का लाइसैंस पाना है.

कोविड 19 ने दिखाया है कि बीमार औरतें भी बीमार पति की सेवा करती रहें, जबकि मर्द हाथ ?ाड़ कर खड़े हो गए. वैसे भी मर्दों की सेवा औरतें कामकाजी होने के बावजूद करती हैं.

एक स्टडी के मुताबिक, भारत में 93 फीसदी मर्दों की सेवा औरतें ही करती हैं, जबकि मर्द अपनी जिम्मेदारियां कम सम?ाते हैं और सोचते हैं कि यह तो भगवान की देन है कि औरतें सेवा करें.

कुछ जातियों में तो आज भी पढ़ीलिखी औरतों को पैर की जूती माना जाता है. पिता और भाई ही नहीं, मां, बहन, दादी सब मिल कर जाति की दुहाई देते हुए ‘नाक कट जाएगी’ कह कर औरतों पर जोरजबरदस्ती करते हैं. जब तक मर्द औरतों की सेवा नहीं करेंगे, तब तक समाज और परिवार में तरक्की मुमकिन नहीं.

घरपरिवार में तो माली तौर पर मदद देने के बावजूद ऐसे कई क्षेत्र हैं, जहां औरत और मर्द के कानून अलग हैं, उन्हें आजादी नहीं. उन का खुद का घर या प्रौपर्टी नहीं. उन का आधारकार्ड या पैनकार्ड बना हो तो मर्दों के कब्जे में रहता है.

घर की अर्थव्यवस्था को संभालने वाली कमजोर होती है. औफिस में भी एक जैसे काम करने पर औरतें मर्दों से कम तनख्वाह पाती हैं.

औरतें दिमागी और जिस्मानी दोनों तरफ से जुल्म सहती हैं. इसे पढ़ाईलिखाई के जरीए कम किया जा सकता है और यह पढ़ाईलिखाई सिर्फ स्कूलकालेज तक ही सीमित नहीं है, बाद में भी जरूरी है. फिल्मों व सीरियलों में पट्टी पढ़ाई जाती है कि औरतें सेवा करें. धर्म प्रचारक रातदिन उन की सेवा का गुणगान करते हैं. इसे ठीक करने की शुरुआत घर से होनी चाहिए.

औरतों और मर्दों को समान अधिकार तब मिल पाएंगे, जब लड़कियां समाज, धर्म सभी को बदलेंगी, उन के विचार और सोच बदलेंगी. लड़के और लड़की में भेदभाव न हो, यह मांग करनी होगी. सभी को समान शिक्षा मिले, कन्या भ्रूण हत्या बंद हो. यह समस्या केवल भारत में ज्यादा है. पर हर देश में किसी न किसी रूप में औरतों को सताया जाना जारी है.

हर देश में मंदिर, चर्च, मठ, मसजिद हावी हैं, जो औरतों के हक छीन लेते हैं. लैगिक समानता, औरतों के अधिकार और महिला सशक्तीकरण पर वैसा ही आंदोलन चलाने की जरूरत है, जैसा किसानों ने चलाया था. यूएन को इस बारे में पहल करनी होगी, क्योंकि ज्यादातर देशों की सरकारें अपने पंडेपुजारियों पर निर्भर रहती हैं.

देश के टैक्स से एक  फंड बनाने की जरूरत है, जो सताई गई लड़कियों और औरतों को शैल्टर और लीगल असिस्टैंस दे सकें. गरीबी औरतों में ज्यादा है, इसे ठीक करने के लिए औरतों और लड़कियों को पढ़ते रहना पड़ेगा. उन्हें स्कूल के बाद भी किताबें, पत्रिकाएं पढ़नी चाहिए. इस के अलावा महिला नेतृत्व का बढ़ना जरूरी है. उन्हें राजनीति में आना चाहिए, ताकि औरतों और लड़कियों पर होने वाले जोरजुल्म को रोका जा सके.

यूएन, एनजीओ सिस्टम, प्राइवेट सैक्टर के लोग काफी काम कर रहे हैं. सिविल सोसाइटी इस में प्रमुख हैं. पर यह न भूलें कि धर्म के दुकानदार बहुत तेज हैं और चूंकि उन्हें इन अत्याचारों को थोपने से आदमियों से पैसा और पावर मिलती है, तो वे औरतों को दबा कर रखने वाले सिस्टम को बनाए रखना चाहते हैं.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...