वेणीशंकर पटेल ‘ब्रज’

23 जनवरी, 2022 को मध्य प्रदेश के सागर जिले के बंडा पुलिस थाना क्षेत्र के गांव गनिहारी में दिलीप कुमार अहिरवार की बरात धूमधाम से निकल रही थी कि गांव के दबंगों को यह बात नागवार गुजरी और उन्होंने दलित परिवार की शादी में आए मेहमानों की गाडि़यों पर पथराव कर दिया. बाद में भीम आर्मी और पुलिस के दखल से मामले को रफादफा कराया गया.

मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ जिले में जुलाई, 2019 में ग्राम पंचायत मस्तापुर के प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल में अनुसूचित जाति, जनजाति के बच्चों को हाथों में मिड डे मील दिया जा रहा था.

बच्चों ने अपनी आपबीती महकमे के अफसरों को बता कर कहा कि स्कूल में भोजन देने वाले स्वयंसहायता समूह में राजपूत जाति की औरतों को रसोइया रखने के चलते वे निचली जाति के लड़केलड़कियों से छुआछूत रखती हैं और उन्हें हाथ में खाना परोसा जाता है. अगर वे अपने घर से थाली ले जाते हैं, तो उन थालियों को बच्चों को खुद ही साफ करना पड़ता है.

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इसी तरह अगस्त, 2019 में उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के रामपुर प्राइमरी स्कूल में एक चौंकाने वाला मामला सामने आया था. वहां पर स्कूल में बच्चों को दिए जाने वाले मिड डे मील में जातिगत भेदभाव के चलते दलित बच्चों को ऊंची जाति के दूसरे बच्चों से अलग बैठा कर भोजन दिया जाता था.

रामपुर के प्राइमरी स्कूल में कुछ ऊंची जाति के छात्र खाना खाने के लिए अपने घरों से बरतन ले कर आते थे और वे अपने बरतनों में खाना ले कर एससी, एसटी समुदाय के बच्चों से अलग बैठ कर खाना खाते थे.

दलितपिछड़ों की हमदर्द बनने का ढोंग करने वाली सरकारें पीडि़त लोगों को केवल मुआवजे का ?ान?ाना हाथ में थमा देती हैं.

सामाजिक, मानसिक, शारीरिक और माली रूप से दलितों पर जोरजुल्म कर बाद में केवल मुआवजा दे कर उन के जख्म नहीं भर सकते. ऐसे में किस तरह यह उम्मीद की जा सकती है कि आजादी के 74 साल बाद भी अंबेडकर के संविधान की दुहाई देने वाला भारत छुआछूत मुक्त हो पाएगा?

समाज के ऊंचे तबके के लोग आज भी दलितों का मानसिक और शारीरिक शोषण कर उन के हितों से उन्हें वंचित करने का काम कर रहे हैं. गांवदेहात के दलित बेइज्जती और जिल्लत की जिंदगी जीने को मजबूर हैं.

सुनिए दलितों की आपबीती

जातिगत भेदभाव किस तरह दलित तबके के लोगों को मानसिक चोट देता है, इस का आकलन सरकारी स्कूल में पढ़ाने वाले टीचर राघवेंद्र चौधरी की आपबीती से किया जा सकता है.

वे अपनी जिंदगी में घटित किस्सा सुनाते हुए कहते हैं, ‘‘बात उस समय की है, जब मैं 12वीं जमात में पढ़ता था. सरकार की तरफ से 1,100 रुपए का स्कौलरशिप का चैक मुझे मिलना था. अपने दोस्तों के साथ मई के महीने में मैं चैक लेने स्कूल पहुंचा, तो वहां टीचर चैक बांट रहे थे.

‘‘मेरे सभी दोस्तों को चैक मिलने के बाद मु?ो भी चैक देते हुए टीचर बोले कि वाउचर पर पावती के दस्तखत करो, तो मैं ने दस्तखत अंगरेजी में कर दिए. वे बोले कि अपना पूरा नाम लिखो.

‘‘मैं ने अपना नाम लिख दिया. फिर वे बोले कि वह लिखो, जिस के लिए चैक मिल रहा है. मैं सम?ा रहा था कि सर मेरी मूल जाति लिखवाना चाह रहे हैं. फिर उन्होंने गुस्से से तमतमाते हुए अपनी जाति को दोहराया और लिख दिया.

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‘‘जब मेरी नौकरी साल 2003 में संविदा शिक्षक के तौर पर लगी थी, तब वेतन मिलता था 2,500 रुपए. वह भी 3-4 महीने बाद मिलता था. उसी दौरान एक बार मां के बीमार पड़ने पर इलाज के लिए पैसों की जरूरत थी.

‘‘साथी टीचरों से उधार मांगा, तो उन के पास भी पैसे नहीं थे. उन्होंने कहा कि यार, तुम को तो पता है कि 4 महीने से वेतन नहीं मिला.

‘‘फिर हमारे एक साथी शिक्षक ने कहा, ‘घर में कोई सोनेचांदी का गहना हो, तो सुनार के पास गिरवी रख कर मां का इलाज करा लो, जब वेतन मिलेगा तो छुड़ा लेना.’

‘‘मैं ने कहा कि चलो ऐसा ही करते हैं. हम दोनों मां के गले की माला ले कर एक सुनार की दुकान पर पहुंचे. उस ने कहा कि इस को गिरवी रख कर

700 रुपए मिल जाएंगे. मु?ो पैसों की सख्त जरूरत थी. हम दोनों वह माला रखने के लिए राजी हो गए.

‘‘मुनीम ने नाम पूछा. मैं ने अपना नाम बताया. फिर उस ने जाति पूछी. मैं ने अपनी जाति बताई. मेरी जाति सुन कर मुनीम की कलम रुक गई. वह बोला कि आप सेठजी से बात कर लीजिए. सेठजी से मेरे साथी शिक्षक ने बात की, तो उन्होंने कहा कि हमारी दुकान में इस जाति के लोगों का सामान गिरवी नहीं रखते. बाद में मैं ने अपने कुछ दोस्तों की मदद से अपनी मां का इलाज कराया.’’

राजनीति में भी छुआछूत

भले ही हम आधुनिक होने के कितने ही दावे कर लें, मगर दकियानूसी खयालों और परंपराओं से हम बाहर नहीं निकल पा रहे हैं. आज भी समाज के एक बड़े तबके में फैली छुआछूत की समस्या कोरोना जैसी बीमारी से कम नहीं है.

छुआछूत केवल गांवदेहात के कम पढ़ेलिखे लोगों के बीच की ही समस्या नहीं है, बल्कि इसे शहरों के सभ्य और पढ़ेलिखे माने जाने वाले लोग भी पालपोस रहे हैं. सामाजिक बराबरी का दावा करने वाले नेता भी इन दकियानूसी खयालों से उबर नहीं पाए हैं.

जून, 2020 के आखिरी हफ्ते में मध्य प्रदेश में सोशल मीडिया पर एक खबर ने सियासी गलियारों में हलचल मचा दी. रायसेन जिले के एक कद्दावर भाजपा नेता रामपाल सिंह के घर पर हुए किसी कार्यक्रम का फोटो वायरल हो रहा है, जिस में भारतीय जनता पार्टी के नेता स्टील की थाली में और डाक्टर प्रभुराम चौधरी डिस्पोजल थाली में एकसाथ खाना खाते दिखाई दे रहे थे.

ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ कांग्रेस का दामन छोड़ कर भाजपा में शामिल हुए मंत्री बने डाक्टर प्रभुराम चौधरी अनुसूचित जाति से आते हैं.

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सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे इस फोटो में कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में शामिल हुए डाक्टर प्रभुराम चौधरी, सिलवानी के भाजपा विधायक रामपाल सिंह, सांची के भाजपा विधायक सुरेंद्र पटवा और भाजपा के संगठन मंत्री आशुतोष तिवारी के साथ भोजन करते हुए दिखाई दे रहे थे.

इस में भाजपा के संगठन मंत्री आशुतोष तिवारी स्टील की थाली में भोजन खाते हुए दिखाई दे रहे थे, लेकिन उन के सामने बैठे डाक्टर प्रभुराम चौधरी डिस्पोजल थाली में खाना खा रहे थे.

समाज में जातिगत भेदभाव कोई नई बात नहीं है. देश के अलगअलग इलाकों में दलितों से छुआछूत रखने और उन पर जोरजुल्म करने की घटनाएं आएदिन होती रहती हैं.

आज भी गांवकसबों के सामाजिक ढांचे में ऊंची जाति के दबंगों के रसूख और गुंडागर्दी के चलते दलित और पिछड़े तबके के लोग जिल्लत भरी जिंदगी जी रहे हैं.

गांवों में होने वाली शादी और रसोई में दलितों को खुले मैदान में बैठ कर खाना खिलाया जाता है और खाने के बाद अपनी पत्तलें उन्हें खुद उठा कर फेंकनी पड़ती हैं.

टीचर मानकलाल अहिरवार बताते हैं कि गांवों में मजदूरी का काम दलित और कम पढ़ेलिखे पिछड़ों को करना पड़ता है. दबंग परिवार के लोग अपने घर के दीगर कामों के अलावा अनाज बोने से ले कर फसल काटने तक के सारे काम उन से कराते हैं और बाकी मौकों पर छुआछूत रखते हैं. यह छुआछूत बनाए रखने में पंडेपुजारी धर्म का डर दिखाते हैं.

ऊंची जाति के दबंग दिन के उजाले में दलितों को अछूत मानते हैं और मौका मिलने पर रात के अंधेरे में उन की बहनबेटियों को अपनी हवस का शिकार बनाते हैं. यही हाल अपनेआप को श्रेष्ठ सम?ाने वाले पंडितों का भी है, जो दिन में तो कथा, पुराण सुनाते हैं और रात होते ही शराब की बोतलें खोलते हैं.

बढ़ रहे जोरजुल्म के मामले

अभी हाल ही में मध्य प्रदेश के राज्यपाल मंगूभाई पटेल की अध्यक्षता में हुई एससीएसटी अत्याचार निवारण अधिनियम की समीक्षा बैठक में अधिकारियों ने जो आंकड़े रखे, वे बेहद ही चौंकाने वाले हैं.

जनवरी से दिसंबर, 2021 तक अकेले मध्य प्रदेश में एससीएसटी समुदाय पर इस अधिनियम के तहत 10,081 मामले दर्ज किए गए, जो पिछले सालों की तुलना में ज्यादा थे. ये आंकड़े सरकार के उन दावों की पोल खोलते नजर आ रहे हैं, जिस में सरकार दलितों के संरक्षण की बात करती है.

इसी तरह 25 सितंबर, 2019 में मध्य प्रदेश के शिवपुरी जिले के भावखेड़ी गांव में 2 दलित मासूम बच्चों की हत्या गांव के दबंगों ने लाठियों से पीटपीट कर इसलिए कर दी, क्योंकि ये मासूम पंचायत भवन के सामने खुले में शौच कर रहे थे.

दलित तबके के मनोज बाल्मीकि के 10 साल के बेटे अविनाश और उस की 13 साल की बहन रोशनी मुंहअंधेरे शौच के लिए निकले थे. गांव के दबंग रामेश्वर और हाकिम यादव ने उन को खुले में शौच करते देखा, तो गुस्से में लाठियों से इस कदर पीटा कि उन की मौके पर ही मौत हो गई.

यह घटना दलितों पर सदियों से होते आ रहे जोरजुल्म की अकेली कहानी नहीं है, बल्कि देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘स्वच्छ भारत अभियान’ की असलियत भी बयान करती है.  देश में गरीबों के घर में शौचालय बनवाने के नाम पर करोड़ोंअरबों रुपए खर्च करने के बाद भी उन के हिस्से में शौचालय नहीं आया है.

आएगा भी कैसे…? जब तक अगड़ी जातियों के ये दबंग, पिछड़ों और दलितों के हक पर अपनी दबंगई के दम पर डाका डालते रहेंगे, तब तक लालकिले की प्राचीर से गरीबों के कल्याण के लिए कही गई बातें जुमलेबाजी ही साबित होती रहेंगी.

ये बाल्मीकि समाज के वही लोग हैं, जो दबंगों के घरों के शौचालयों की साफसफाई का काम करते हैं. 21वीं सदी के युग में भी गांव के ये दबंग पुरानी वर्ण व्यवस्था के मुताबिक यही चाहते हैं कि दलित जाति के ये लोग उन के सेवक बन कर जीहुजूरी करते रहें.

मारे गए बच्चों के पिता मनोज बाल्मीकि ने कहा कि उन के 5 भाइयों के परिवार में किसी के पास शौचालय नहीं है. भावखेड़ी ग्राम पंचायत ने उन्हें शौचालय के साथ एक घर की मंजूरी दी थी, लेकिन आरोपियों के परिवार का एक सदस्य गांव की पंचायत का मुखिया था और उस ने यह होने नहीं दिया.

मनोज ने आगे कहा, ‘‘सुबह के साढ़े 6 बजे मेरा ऐकलौता बेटा और उस की बहन शौच करने गए थे, तभी अपने हैंडपंप के पास खड़े रामेश्वर और हाकिम दोनों बच्चों पर चिल्लाए और उन पर लाठी से वार करने लगे, जिस से दोनों बच्चों की वहीं मौत हो गई.

‘‘2 साल पहले सड़क किनारे एक पेड़ से शाखा तोड़ने पर आरोपियों से मेरी तीखी बहस हुई थी. इस पर उन्होंने जातिसूचक गाली देते हुए जान से मारने की धमकी भी दी थी.

‘‘गांव के ये लठैत चाहते हैं कि हम उन के यहां बंधुआ मजदूर बन कर रहें. इन दबंगों के डर से गांव के सरपंच सचिव को शौचालय बनवाने के लिए आवेदन देने के बावजूद भी न तो मेरे परिवार को शौचालय बनवाने का पैसा मिला और न ही किसी दूसरी सरकारी योजना का लाभ.’’

इन लठैतों के डर से गांव के हैंडपंप पर जब तक इन दबंगों के घर के लोग पानी नहीं भर लेते हैं, तब तक इन गरीबों को पीने का पानी भरने का मौका नहीं मिलता है.

ज्योतिबा फुले से सबक लें

भगवा सरकार हिंदूमुसलिम का भेद करा के कट्टरवादी हिंदुत्व की हिमायती तो बनती है, पर हिंदुओं के बीच ही जातिवाद की दीवार तोड़ने और दलितपिछड़े तबके के लोगों पर दबंग हिंदुओं के द्वारा किए जाने वाले जोरजुल्म पर चुप्पी साधे रहती है.

मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के पेशे से वकील मनीष अहिरवार कहते हैं कि इनसानों का दूसरे इनसान के साथ गुलामों की तरह बरताव सभ्यता के सब से शर्मनाक अध्यायों में से एक है. लेकिन अफसोस कि यह शर्मनाक अध्याय दुनियाभर की तकरीबन सभी सभ्यताओं के इतिहास में दर्ज है. भारत में जातिप्रथा के चलते पैदा हुआ भेदभाव आज तक बना हुआ है.

कम पढ़ेलिखे दलित समाज के नौजवान आज भी पंडेपुजारियों की बातों को मान कर हजारों रुपए खर्च कर के कांवड़ यात्रा, कथा, प्रवचन और भंडारे में बरबाद करते हैं. कमोबेश पढ़ेलिखे लोग भी इन आडंबरों से दूर नहीं हैं.

मनीष अहिरवार आगे कहते हैं कि एक बार वे महज 150 रुपए खर्च कर के ज्योतिबा फुले की पुस्तक ‘गुलामगीरी’ पढ़ लें तो उन की आंखों के चश्मे पर पड़ी धूल साफ हो जाएगी. 1873 में लिखी गई इस किताब का मकसद दलितपिछड़ों को तार्किक तरीके से ब्राह्मण वर्ग की उच्चता के ?ाठे दंभ से परिचित कराना था.

इस किताब के माध्यम से ज्योतिबा फुले ने दलितों को हीनताबोध से बाहर निकाल कर आत्मसम्मान से जीने के लिए भी प्रेरित किया था. इस माने में यह किताब काफी खास है कि यहां इनसानों में परस्पर भेद पैदा करने वाली आस्था को तार्किक तरीके से कठघरे में खड़ा किया गया है.

अंगरेजों के शासन से मुक्ति की इच्छा और संघर्ष के बारे में हमें बहुतकुछ पता है, लेकिन यह भी पता होना चाहिए कि स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान देश का एक बड़ा दलित तबका, अंगरेजों को ब्राह्मणशाही से मुक्तिदाता के तौर पर भी देख रहा था.

भीमराव अंबेडकर और ज्योतिबा फुले जैसे करोड़ों भारतीयों के लिए जातिगत गुलामी का दंश इतना गहरा था कि इस के सामने वे राजनीतिक गुलामी को कुछ नहीं सम?ाते थे.

जिस तरह किसान आंदोलन ने सरकार की गलत नीतियों का विरोध कर के सरकार को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया, उसी तरह दलितपिछड़ों को भी अपने हक की लड़ाई लड़ने के लिए एकजुट होना होगा.

दलितपिछड़े नौजवानों को पंडे और पुजारियों की कपोलकल्पित बातों से दूर रह कर केवल सेवक नहीं शासक बनने की दिशा में भी कदम बढ़ाने होंगे, तभी उन पर होने वाले जुल्म कम होंगे और छुआछूत का यह कलंक समाज से दूर होगा.

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