Writer-पूनम पांडे

रमन को कुछ दिन की छुट्टी मिली तो उस ने अपने गांव जाने का फैसला कर लिया. पिछले 20 साल से वह इस शहरी जिंदगी में दिनरात खप रहा था, पर बचपन का गांव उसे रहरह कर याद आता रहता था.

इस बार रमन मन में ठान कर बस में बैठा और पहुंच गया गांव, पर रमन को तब बहुत अचंभा हुआ जब उस ने बस से उतर कर देखा कि वहां बहुत से नौजवान काम करने के बजाय ताश खेल रहे थे, मोबाइल फोन की अश्लील बातों पर ‘होहो’ कर के हंस रहे थे और बेफिक्र हो कर ऐसे गप लड़ा रहे थे मानो घर पर अन्न के भंडार भरे पड़े हों.

यह सब देख कर रमन दांतों तले उंगली दबा बैठा कि कमाल है, यह तो इस  गांव में कभी नहीं होता था. तब तो इस मेहनती गांव के लोग दिनरात अपने खेतखलिहान और दूसरे कामधंधे में लगे रहते थे. जवान होते बच्चे तक झाड़ियों की कोमल लचीली डंडियों से कितनी डलिया बना देते थे. तब हर काम में डलिया की जरूरत होती थी. आलूप्याज, लहसुन से ले कर जानवरों की दवाचारा, बीज वगैरह सबकुछ… और तो और सुखा कर रखे गए करेले, मूली, गाजर, पुदीना, धनिया और भी न जाने कितनी चीजें थीं जिन को इन डलियों में रखा जाता था. कुलमिला कर गांव में किसी के पास भी खाली समय होता ही नहीं था.

बहरहाल, रमन को लगा कि आगे चल कर देखना चाहिए. वह चलता गया और पूरा गांव एक अजीब तसवीर के  साथ उस को दिखता गया. वह कहीं कुछ अच्छा खोज रहा था. पर उस को घोर निराशा ही हाथ लगी.

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दरअसल, पूरे गांव में खेतीबारी जैसे अच्छे काम में भी लोगों की लगातार दिलचस्पी नहीं दिख रही थी. नौजवान अब  खेतीकिसानी पर निर्भर नहीं रहे थे. किसी में वह जज्बा नजर ही नहीं आ रहा था कि लगातार खड़े रह कर अपने खेत की निराईगुड़ाई करें. अब तो एक फोन करना होता था और मशीन आ जाती थी. वह मशीन यहांवहां घूमती और कुछ मिनट में ही खेत की मिट्टी ऊपरनीचे हो जाती.

रमन को याद आया कि कैसे यहां के पुराने गांव वाले पूरा दिन लग कर इस मिट्टी को मक्खन जैसा बनाया करते थे, फिर नहर से पानी खोल कर इस जमीन को जरा सा गीला कर के जमीन पर बीज डाला जाता था. पर अब यह सब काम मशीन कर रही थी, मगर कितना खराब कर रही थी.

मशीन से तो लोगों की जमीन पर मसरूफियत कम हो गई थी. सब बहुत खालीखाली थे, लेकिन कोई कुछ प्रयोग नहीं कर रहा था. खायापीया और पड़े रहे.

रमन ने गौर किया कि गांव में दूसरे कामधंधे और रोजगार की हालत भी बहुत अच्छी नहीं थी. उसे याद आया कि उन दिनों गांव में ही अचारपापड़, बड़ियां बनाई जाती थीं. हर घर में मौसमी फलों का जूस और एक से बढ़ कर एक जायकेदार अचार, चटनी, मुरब्बे सब मिलते थे, पर यहां उस ने देखा कि हवा जहरीली हो रही थी.

हद हो रही थी कि यहां पर भी किशोर और बच्चे पिज्जा खा रहे थे. लहसुन की  चटनी और बाजरे की रोटी में उन को गंध आ रही थी. उस को यह भी पता लगा कि यहां बच्चे दूधदही, मक्खन अब जरा सा चख भर ही लेते हैं. उन को यह सब पचता ही नहीं यानी अब वह बड़ी रसोई तो कहीं होगी ही नहीं जहां दूध उबल रहा होता था, मोटी रोटी चूल्हे में सिंक रही होती थीं. धनिएपुदीने की चटनी को सिलबट्टे से बारीक पीसा जाता था.

रमन समझ गया कि लोग अब खाली रहने और खूब सारा फालतू समय मिलने के चलते फुजूल की बातों और नासमझी भरे कामों में अपने को खपा  रहे होंगे.

थोड़ा और यहांवहां जा कर रमन को सब समझ में आ गया कि गांव की  जमीन खूब बिक रही है. लोग इतने रुपए एकसाथ देख कर बावले हो रहे हैं और इसीलिए नौजवान तबका काम नहीं कर रहा है, वह मेहनत करने से डरता जा रहा है.

रमन ने तकरीबन पूरे गांव में नौजवानों को महंगी शराब पीते हुए देखा. पहले हर तीजत्योहार पर ढोल बजाना, गीत गाना, नाचना होता था, पर अब हर किसी के मन में जलन की भावना ज्यादा बढ़ गई थी.

यही वजह थी कि गांव के हट्टेकट्टे नौजवान अब मिट्टी के शेर हो गए थे, जो जरा से बुखार में भी ढेर हो जाते थे. जरा सी हवा उन को नजला और जुकाम दे रही थी. न जाने कैसा खाना वे अपने घर में खा रहे थे  कि उन की  सोच तक खराब हो रही थी.

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रमन सोच ही रहा था कि कहां तो शहरों में लोगों के पास समय की इस कदर कमी रहती है कि एकदूसरे से मिलना और बात करना भी तब ही मुमकिन हो पाता है जब मजबूरी हो जाए वरना इस तरह बेकार यहांवहां घूमनाफिरना मुश्किल होता है, वहीं गांव में उन लोगों के पास काफी समय दिख रहा था जो जमीन का एक टुकड़ा बेच कर करोड़पति हो गए थे और बाकी जमीन पर मशीन काम कर  रही थी.

रमन ने देखा कि गांव में एक साफसुथरी डिस्पैंसरी थी, लेकिन एक नया अमीर नौजवान हजारों रुपए ले कर शहर गया और बुखार की  दवा वहां से लाया, जबकि यह सब वहां गांव में अच्छे डाक्टर की देखरेख में बिलकुल मुफ्त मिल रहा था.

यह दिखावा ही बाकी लोगों को भी फुजूलखर्च बनाता जा रहा था. इस से एक बेवकूफी भरी होड़ पैदा हो रही थी और गांवों में लड़ाईझगड़े के मामले बढ़ते जा रहे थे. मुकदमों की तादाद भी इसी गुमान से बढ़ती जा रही थी कि खूब पैसा है किसी से डरते नहीं हैं हम.

रमन को तब बहुत दुख हुआ जब पता लगा कि आपस में मारपीट के हर साल सौ से ज्यादा मुकदमे गांव के लोग लड़ रहे हैं हर कोई अपने को तुर्रम खां समझ रहा है और जरा सी बात भी किसी को सहन नहीं होती. 20 साल पहले यहां कोई मारपीट या झगड़ा होता ही नहीं था.

रमन का दिल रो रहा था. उस ने ये सब बातें गांव के सरपंच से साझा करने की  सोची. वे रमन से मिले और उस की हर बात पर सहमति जताई कि सचमुच गांव अपनी पहचान खो रहा है. चंद पैसे एकसाथ आ गए हैं और पैसे की  गरमी में अकड़ने वाले लोगों की गलत सोच और बरताव के चलते बहुत लोगों को परेशानी का सामना करना पड़ रहा है. ये लोग सीधा वकील बुला लाते हैं और गांव की पंचायत की जरा भी इज्जत नहीं करते.

इस वजह से लोगों में आगे बढ़ने की इच्छाशक्ति में काफी कमी आई है. इन से अच्छे तो वे बाहरी मजदूर हैं जो हमेशा नई चीजें सीखने के लिए उत्साहित नजर आते हैं. एक मजदूर ने तो 2 साल खेत पर काम कर के किसान का खेत खरीद लिया और उस ने नशे की लत में मजबूर हो कर खेत बेच तक दिया. अब रुपया खत्म हो गया तो वह मालिक किसान उस मजदूर का दिहाड़ी मजदूर बन गया है.

यह सुन कर रमन को बहुत बुरा लगा. लोग इतने आलसी और नालायक हो गये हैं यह जान कर वह बैचेन हो गया. सरपंच सही कह रहे थे कि लोग जब अपने काम को अहमियत देते हैं और उस के निरंतर सुधार में ही रमे होते हैं  तब उन्हें औरों से कोई होड़ या उन की जिंदगी के बारे में सोचने का फालतू समय ही नहीं मिलता.

रमन जब निराश हो कर वापस लौट रहा था तो बस में बैठाबैठा अपने बचपन के गांव को याद कर रहा था. वह ठान चुका था कि जल्द ही दोबारा गांव लौट कर वह वहां के नौजवानों को मेहनत का मंत्र सिखाएगा. उस के पास एक अच्छी योजना थी. उस ने एक नुक्कड़ नाटक दल से बात कर ली थी, जो बारबार यहां पर नाटक दिखा कर गांव वालों की आंख पर पड़ा परदा हटा सकते थे.

रमन जानता था कि इस में बहुत समय लगेगा मगर गांव के सरपंच ने उस को पूरा सहयोग करने का वचन दिया था.

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