‘‘आज से हमारा पतिपत्नी का रिश्ता खत्म हो गया.’’
‘‘क्यों? उस में मेरा क्या कुसूर था?’’
‘‘कुसूर नहीं था, पर तुम्हारे दामन पर कलंक तो लग ही गया है.’’
‘‘तुम मेरे पति थे. तुम्हारे सामने ही मेरी इज्जत लुटती रही और तुम चुपचाप देखते रहे.’’
‘‘उस समय तुम्हारे पिता भी तो थे.’’
‘‘उन्होंने तो मुझे तुम्हें सौंप दिया था.’’
‘‘मैं अकेला क्या कर सकता था? वे लोग गिरोह में थे और सब के पास हथियार थे.’’
‘‘तो तुम मर तो सकते थे.’’
‘‘मेरे मरने से क्या होता?’’
‘‘तुम अमर हो जाते.’’
‘‘नहीं, यह खुदकुशी कहलाती.’’
‘‘अब मेरा क्या होगा?’’
‘‘मुझे 10 हजार रुपए तनख्वाह मिलती है. हर महीने 5 हजार रुपए तुम्हें दे दिया करूंगा. इस के लिए तुम्हें कोई कानूनी लड़ाई नहीं लड़नी पड़ेगी. तुम चाहो तो दूसरी शादी भी कर सकती हो.’’
‘‘क्या तुम करोगे दूसरी शादी?’’
‘‘नहीं.’’
‘‘तो फिर तुम मुझे दूसरी शादी करने की क्यों सलाह दे रहे हो?’’
‘‘यह मेरा अपना विचार है.’’
‘‘मैं जाऊंगी कहां?’’
‘‘तुम अपने पिता के साथ मायके चली जाओ.’’
‘‘और तुम?’’
‘‘मैं अकेला रह लूंगा.’’
‘‘क्या, मेरा कलंक अब कभी नहीं मिटेगा?’’
‘‘मिटेगा, जरूर मिटेगा. लेकिन कैसे और कब, नहीं बता सकता.’’
‘‘फिर क्या तुम मुझे अपना लोगे?’’
‘‘यह मेरे जिंदा रहने पर निर्भर करता है. अब तुम मायके जाने की तैयारी करो. बाबूजी तुम्हारा इंतजार कर रहे हैं.’’
तारा अपने पिता के साथ मायके चली गई.
उस के पति विक्रम ने उस के जाने के बाद अंदर से दरवाजा बंद कर लिया. वह गहरी सोच में पड़ गया.
घर की हर चीज तारा की यादों को ताजा करने लगी थी. तारा की जब इज्जत लूटी जा रही थी, तब विक्रम हथियारों के घेरे में बिलकुल कमजोर खड़ा था.