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महीनेभर बाग के बाहर तक न निकल सका था. उस का अपराध तो यही था कि उस ने कामिनी को अपनी बाइक पर लिफ्ट दे दी थी. वह सितार भी बजाती थी और सितार क्लास से देर से आ रही थी. पर देखो उस चिम्मन को, कैसा लतियाया. श्यामू को भी दया न आई. बना फिरता है पंडित. दया काहे को आती. सूद  पर रुपया उठाता है. गरीबों को खून चूसचूस कर हवेली खड़ी की है. जेवर बनवाए हैं.  कम्मो ने भी बहुत रोका, पर गालियां देने से बाज न आया. अच्छा है, आज हो जाएगा इंसाफ. उस ने कहा भी कामिनी को सिर्फ लिफ्ट दी थी, ताकि कोई छेड़े न, पर श्यामू पंडित ने एक न सुनी. एक दलित की मोटरसाइकिल पर बैठे, यह कैसे हो सकता हैं. उस को सितार सुने, यह मंजूर न था.

राजू सिर  झुकाए अपनी  झोंपड़ी में लौट आया. टोपी खूंटी पर लटकाने को हाथ बढ़ाया, तभी खूंटी से अटके इश्तिहार पर नजर गई. उसे कहीं मेले में मिला था. एक नौजवान अकेला ही 2 बदमाशों को लाठी लिए पछिया रहा है, पास ही सड़क पर ट्रौली में बैठी औरतें रोपीट रही हैं. ट्रैक्टर वाला पास धरती पर पड़ा है. वह जवान बहादुर जान पड़ता था. आंखों में गुस्सा, पैरों में अकड़ और लाठी पकड़े हाथों में मजबूती. राजू ने सबकुछ देखा. कैप वाला हाथ बढ़ा का बढ़ा रह गया. एकाएक हवेली की बेसहारा औरतों का करुण चित्र आंखों के सामने नाच उठा. गैंगस्टर डपट रहे होंगे. औरतें रोरो उठेंगी. मन में कहेंगी, ‘कैसे हैं गांव वाले. आड़े वक्त पर भी पास न आए.’  ‘कम्मो क्या सोचेगी? राजू वैसे तो राह चलते लड़कियों को घूरता है. शाम को नदी किनारे कन्हैया बना वंशी की तानें उड़ाता है. पर डाकुओं से अपमानित होती औरतों की बात भी पूछने न आया. मुंह दुबकाए पड़ा होगा कहीं पेड़ की खुलार में. कहेगी, गांव वाले आए, पर राजू न आया. राजू के दिल में कांटा सा छिदा मुट्ठियां कस गई. उस ने इश्तहार पर दृष्टि डाली. लाठी देखी, बाहर की पगडंडी देखी. मन में कोई बोला, ‘राजू न आया.’ दोबारा कोई चिल्लाया ‘राजू न आया.’ एक साथ सैकड़ों स्वर गूंज उठे ‘राजू न आया. राजू न आया.’ उस का रकत तेजी से दौड़ने लगा.  झोंपड़ी मानो चक्कर काटने लगी. सिर पर कैप रखे और लाठी साधे बाहर को दौड़ा. एक ही सांस में बाग की मेंड, ताल और गली फांदता हुआ हवेली के सामने खड़े जमघट में जा मिला.

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