बंगले वाले इन साहबों ने भी उस के गंदे लिबास, गंदी आदतें, गंदे जिस्म के बावजूद चटनी की तरह उसे भोगा था. पर यह मुआ नया साहब ही जाने कैसा मरद था, जो उसे चटनी भी नहीं बना रहा था.
कस्तूरी इस गांठ को खोलने के लिए परेशान सी हो उठी थी, पर इस साहब की उसे थाह ही नहीं मिल पा रही थी.
आखिरकार वह एक दिन ऐसा आ ही गया. कस्तूरी की जैसे दिल की मुराद पूरी हो गई. बंद किताब जैसे खुल गई.
उस दिन सुबह से ही घनघोर बारिश हो रही थी. चारों तरफ पानी ही पानी हो गया था. बंगले के सामने सड़क पानी में डूब रही थी. खेतों के उस पार पहाडि़यां भी छिप सी गई थीं.
घर के दोनों नौकर अपने घरों की सुध लेने चले गए थे. मेमसाहब 2 दिन पहले ही अपने भाई के यहां गई हुई थीं. बंगले में केवल कस्तूरी और साहब
ही थे.
कस्तूरी दौड़दौड़ कर बौछार से सामान को बचा रही थी. कभी वह खिड़की बंद कर रही थी, तो कभी दरवाजा बंद कर रही थी.
साहब अपने आसपास बिखरी हुई फाइलों को निबटाते रहे थे. पर जब बिजली चली गई, तो वह खिड़की में से एकटक बाहर के नजारों को देखने लगे. सामने के पहाड़ से उन की नजरें हट ही नहीं रही थीं.
कस्तूरी ने 2-3 बार झांक कर देखा था, पर उन्हें लगातार उधर ही देखते पाया था. कस्तूरी जब चाय की प्याली उन के सामने रखने आई, तब भी पहाड़ की ओर से उन की नजरें नहीं हटी थीं.
कस्तूरी ने हौले से कहा, ‘‘साहब, चाय में मक्खी गिर जाएगी.’’
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