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इस डर से कस्तूरी कांप उठती थी. इस मुए ने कहीं उसे वापस फार्म पर भेज दिया, तो वह मुसीबत में पड़ जाएगी. वहां दूसरी मजदूरनियों की तरह उसे भी सारा दिन गारेमिट्टी के काम में खटना पड़ेगा.

अभी यहां बंगले पर होने से वह हाड़तोड़ काम से बची रहती है. यहां चूल्हेचौके का काम कर दिया. मेमसाहबों के नाजनखरे उठा लिए. बच्चों को बहला दिया. साहब को खुश कर दिया. बस, फिर मौज करो. साहब के चौके में जो पके वह खाओ. मेमसाहबों के उतरे हुए कपड़े पहनो. साहब के यहां आए हुए मेहमानों से इनाम, बख्शीश पाओ. साहब के परिवार के साथ सैरसपाटे के भी मौके मिल जाते हैं.

इसीलिए कस्तूरी यही कोशिश करती रहती थी कि उस की नौकरी यहीं साहबों के बंगलों पर लगी रहे. हाजिरी वहां फार्म पर लगती रहे और काम वह यहां करती रहे. बंगलों में इठलाती फिरे.

कस्तूरी को अभी भी वह दिन याद था, जब वह पहलेपहल बंगले पर फार्म से भेजी गई थी. उस समय वह कितनी घबराई थी, क्योंकि इन शहरी लोगों की बोली भी उस समय उस की समझ में नहीं आती थी. अपनी आदिवासी बोली के सिवा वह और कुछ नहीं जानती थी. इन साहबों का रहनसहन, खानपान सबकुछ उस के लिए अजीब सा था.

इसीलिए दूसरे दिन यहां से भाग खड़ी हुई थी. मुखिया से उस ने साफ कह दिया था कि वह तो फार्म पर ही भली है. बंगले का काम उस से नहीं होगा. यह उस के बस का नहीं है.

पर मुखिया और दूसरे अफसरों ने उसे बंगले पर ही जाने को मजबूर किया था. एक तरह से धक्के देदे कर उसे फार्म से भगाया गया था.

इस मौके पर दीतरी ने उस के कान में कहा था, ‘‘जा कस्तूरी, यह साहब तेरे पर रीझ गया है… मौज कर.’’

कस्तूरी कांप उठी थी. उस ने फार्म के मैनेजर से हाथ जोड़ कर कहा था, ‘‘इस दीतरी को ही वापस बंगले पर भेज दो. यह बंगले के काम की जानकार है. मैं अनाड़ी हूं… मुझे यहीं रहने दो.’’

पर मैनेजर ने कस्तूरी की एक नहीं सुनी थी. डांट कर उसे भगा दिया था.

फिर तो कुछ दिनों में ही कस्तूरी को बंगले का चसका लग गया था. इन शहरी लोगों की बोली, खानपान, रहनसहन सभी से वह वाकिफ हो गई थी. अच्छा खाने और अच्छा पहनने से उस का हुलिया ही बदल गया था. उस के रूपरंग, चालढाल, बातचीत में जैसे निखार सा आ गया था. उस के पास घर में कपड़ों का अंबार लगा था. उस के भाई, पिता उस के पैसे को पाने के लिए न जाने कितनी खुशामद करते थे.

साहब लोग भी अब कस्तूरी को जरूरी समझने लगे थे. जो भी साहब यहां से जाता था, वह नए आए साहब को कह जाता था, ‘‘यह कस्तूरी बड़ी समझदार है. इस बियाबान में इस से समझदार नौकर मिलना मुश्किल है.’’

इस साहब को भी उस लंबू साहब ने जातेजाते कहा था, ‘‘यह कस्तूरी शहरी सांचे में पूरी तरह ढल गई है. इसे बंगले पर रखोगे, तो खुद के लिए भी जंगल में मंगल रहेगा और भाभीजी को एक ऐक्सपर्ट नौकरानी मिल जाएगी.’’

कस्तूरी ने अपने कानों से साफ सुना था. उस लंबू साहब ने कस्तूरी की ओर इशारा करते हुए कहा था, ‘‘बड़ी करारी है. यहां की मिट्टी की तरह सख्त, मगर चट्टानों के भीतर बह रहे किसी सोते की ही तरह ठंडी, मीठी और आरामदायक. यहां के आमों की तरह लजीज, रसीली.’’

यह अनोखा साहब उस समय भी खोखली हंसी के साथ बेवकूफों की तरह खड़ा रहा था. नजर भर कर उस ने तब भी कस्तूरी को नहीं देखा था. तकरीबन 6 महीने बीत जाने के बाद भी वह वैसा का वैसा ही था. दूसरे नौकरों में और कस्तूरी में वह कोई फर्क ही नहीं कर रहा था.

नए साहब के इस बरताव से कस्तूरी को कभीकभी एक दूसरी तरह का शक भी हुआ था. मगर उसे खुद को भी यह शक बेबुनियाद सा लगा था, क्योंकि साहब के 3 बच्चे थे. अपनी मेमसाहब से भी वह झिझकता नहीं था.

इसीलिए तो यह साहब कस्तूरी की समझ में नहीं आ रहा था. रहरह कर उस के दिल में यही सवाल उठता रहता था कि यह साहब क्या किसी दूसरी मिट्टी का ही बना हुआ है? यह क्या ऐसा ‘सतयुगी’ है, जो अपनी ब्याहता के सिवा किसी दूसरी औरत पर नजर ही नहीं डालता है? मरदों की जात तो ऐसी होती नहीं. ढोरों की तरह मौका लगते ही यहांवहां मुंह मारना तो मरदों की आदत होती है. फिर इसे क्या हो गया है?

लेकिन कस्तूरी को मालूम था कि यह साहब दिनोंदिन मुटियाती अपनी मेमसाहब से नाखुश सा है. जब देखो, तब मेमसाहब को कम खाने, पैदल घूमने, कसरत करने की सलाह देता रहता है.

किंतु फिर भी एक कांटा सा कस्तूरी के दिल में चुभता रहता था. इस नए साहब की लापरवाही उसे खलने लगती थी. वह उस की ओर नजर नहीं डाल रहा था. इस का उसे इतना मलाल नहीं था. मलाल अगर था तो इस बात का कि वह क्यों नजर नहीं डाल रहा है?

यह गुत्थी कस्तूरी से सुलझ नहीं

रही थी. अगर यह अपनी मेमसाहब के अलावा किसी दूसरी औरत पर नजर न डालने वाला मरद तो सतजुग में भी नहीं थे. तब भी हरेक किसी न किसी को पकड़े रहना था. उस ने कितने ही लोगों से सुना है. तो वह उस के पैर पूजने को भी तैयार हो सकती है, क्योंकि उसे आज तक ऐसा कोई आदमी मिला ही नहीं था. जितने भी मिले थे, वे सब उस के जिस्म को नोचने वाले ही निकले थे.

राइटर- चंद्रशेखर

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