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‘‘आज तुम्हारी वही प्रिय सखी फिर मिली थी,’’ टाई की गांठ ढीली करते हुए रंजीत ने कहा.

रंजीत के बोलने के ढंग से शुभा समझ तो गई कि वह किस की बात कर रहा है, फिर भी अनजान बनते हुए उस ने पूछा, ‘‘कौन? कौन सी सखी?’’

‘‘अब बनो मत. शुभी, तुम जानती हो मैं किस की बात कर रहा हूं,’’ सोफे पर बैठते हुए रंजीत बोला, ‘‘वैसे कुछ भी कहो पर तुम्हारी वह सखी है बड़ी ही बोल्ड. उस की जगह और कोई होता तो नजर बचा कर कन्नी काटने की कोशिश करता, लेकिन वह तो आंखें मिला कर बड़े ही बोल्ड ढंग से अपने साथी का परिचय देती है कि ये मिस्टर फलां हैं. आजकल हम साथ रह रहे हैं.’’

उस की हूबहू नकल उतारता रंजीत सहसा गंभीर हो गया, ‘‘समझ में नहीं आता, शुभी, वह ऐसा क्यों करती है. भला किस बात की कमी है उसे. रूपरंग सभी कुछ इतना अच्छा है. सहज ही उस के मित्र भी बन जाते हैं, फिर किसी को अपना कर सम्मानित जीवन क्यों नहीं बिताती. इस तरह दरदर भटकते हुए इतना निंदित जीवन क्यों जीती है वह.’’

यही तो शुभा के मन को भी पीडि़त करता है. वह समझ नहीं पाती कि मोहित जैसे पुरुष को पा कर भी मानसी अब तक भटक क्यों रही है? शुभा बारबार उस दिन को कोसने लगती है, जब मायके की इस बिछुड़ी सखी से उस की दोबारा मुलाकात हुई थी.

वह शनिवार का दिन था. रंजीत की छुट्टी थी. उस दिन शुभा को पालिका बाजार से कुछ कपड़े खरीदने थे, सो, रंजीत के साथ वह जल्दी ही शौपिंग करने निकल गई. पालिका बाजार घूम कर खरीदारी करते हुए दोनों ही थक गए थे. रंजीत और वह पालिका बाजार के पास बने पार्क में जा बैठे. पार्क में वे शाम की रंगीनियों का मजा ले रहे थे कि अचानक शुभा की नजर कुछ दूरी पर चहलकदमी करते एक युवा जोड़े पर पड़ी थी. युवक का चेहरा तो वह नहीं देख पाई, क्योंकि युवक का मुंह दूसरी ओर था, किंतु युवती का मुंह उसी की तरफ था. उसे देखते ही शुभा चौंक पड़ी थी, ‘मानसी यहां.’

बरसों की बिछुड़ी अपनी इस प्रिय सखी से मिलने की खुशी वह दबा नहीं पाई. रंजीत का हाथ जोर से भींचते हुए वह खुशी से बोली थी, ‘वह देखो, रंजीत, मानसी. साथ में शायद मोहित है. जरूर दोनों ने शादी कर ली होगी. अभी उसे बुलाती हूं,’ इतना कह कर वह जोर से पुकार उठी, ‘मानसी…मानसी.’

उस की तेज आवाज को सुन कर कई लोगों के साथ वह युवती भी पलटी थी. पलभर को उस ने शुभा को गौर से देखा, फिर युवक के हाथ से अपना हाथ छुड़ा कर वह तेजी से भागती हुई आ कर उस से लिपट गईर् थी, ‘हाय, शुभी, तू यहां. सचमुच, तुझ से मिलने को मन कितना तड़पता था.’

‘रहने दे, रहने दे,’ शुभा ने बनावटी गुस्से से उसे झिड़का था, ‘मिलना तो दूर, तुझे तो शायद मेरी याद भी नहीं आती थी. तभी तो गुपचुप ब्याह कर लिया और मुझे खबर तक नहीं होने दी.’

अपनी ही धुन में खोई शुभा मानसी के चेहरे पर उतर आई पीड़ा को नहीं देख पाई थी. मानसी ने जबरन हंसी का मुखौटा चेहरे पर चढ़ाते हुए कहा था, ‘पागल है तू तो. तुझ से किस ने कह दिया कि मैं ने शादी कर ली है.’

‘तब वह…’ अचानक अपनी तरफ आते उस युवक पर नजर पड़ते ही शुभा चौंक पड़़ी, यह मोहित नहीं था. दूर से मोहित जैसा ही लगता था. शुभा अचकचाई सी बोल पड़ी, ‘‘तब यह कौन है? और मोहित?’’

बीच में ही मानसी शुभा की बात को काटते हुए बोली, ‘छोड़ उसे, इन से मिल. ये हैं, मिस्टर बहल. हम लोग एक ही फ्लैट शेयर किए हुए हैं. अरे हां, तू अपने श्रीमानजी से तो मिलवा हमें.’

मानसी के खुलेपन को देख कर अचकचाई शुभा ने जैसेतैसे उस दिन उन से विदा ली, किंतु मन में कहीं एक कांटा सा खटकता रहा. मन की चुभन तब और बढ़ जाती जब आएदिन रंजीत उसे किसी नए मित्र के साथ कहीं घूमते देख लेता. वह बड़े चटखारे ले कर मानसी और उस के मित्रों की बातें करता, रंजीत के स्वर में छिपा व्यंग्य शुभा को गहरे तक खरोंच गया.

कुछ भी हो, आखिर मानसी उस की बचपन की सब से प्रिय सखी थी. बचपन के लगभग 15 साल उन्होंने साथसाथ बिताए थे. तब कहीं कोई दुरावछिपाव उन के बीच नहीं था. यहां तक कि अपने जीवन में मोहित के आने और उस से जुड़े तमाम प्रेमप्रसंगों को भी वह शुभा से कह दिया करती थी. उस ने मोहित से शुभा को मिलवाया भी था. ऊंचे, लंबे आकर्षक मोहित से मिल कर शुभा के मन में पलभर को सखी से ईर्ष्या का भाव जागा था, पर दूसरे ही पल यह संतुष्टि का भाव भी बना था कि मानसी जैसी युवती के लिए मोहित के अतिरिक्त और कोई सुयोग्य वर हो ही नहीं सकता था.

कुदरत ने मानसी को रूप भी अद्भुत दिया था. लंबी छरहरी देह, सोने जैसा दमकता रंग, बड़ीबड़ी घनी पलकों से ढकी गहरी काली आंखें, घने काले केश और गुलाबी अधरों पर छलकती मोहक हंसी जो सहज ही किसी को भी अपनी ओर खींच लेती थी.

शुभा अकसर उसे छेड़ती थी, ‘‘मैं लड़का होती तो अब तक कब की तुझे भगा ले गई होती. मोहित तो जैसे काठ का उल्लू है, जो अब तक तुझे छोड़े हुए है.’’

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