रामलाल की झोपड़ी जला दी गई. किन लोगों ने जलाई, यह सभी को मालूम था, मगर पूरे गांव में एक डर था.

पिछले साल गांव में सरपंच पद का चुनाव हुआ था. वहां राजपूतों का दबदबा था. राजपूतों के बाद ब्राह्मण और दलित तबके की तादाद ज्यादा थी.

8 हजार की आबादी वाले इस गांव को टैलीविजन और अखबार ने जागरूक बना दिया था.

आजादी के पहले इस गांव में ठाकुरों का रजवाड़ा था. ठाकुर रामशेर सिंह की बड़ी हवेली थी. उन का दबदबा था. एक तरह से उन का राज पूरे गांव में था.

ठाकुर रामशेर सिंह की मौत के बाद उन के बड़े बेटे आजाद सिंह ठाकुर बने. उन की मौत के बाद उन के बड़े बेटे रतन सिंह की ताजपोशी हुई.

आजादी के बाद राजनीति बहुत बदल चुकी थी. आजाद सिंह शहर में रहते थे, जब कि उन के छोटे भाई मदन सिंह गांव में.

हवेली में जो रौनक पहले रहा करती थी, अब वह खत्म हो गई थी. लोग मदन सिंह का मजाक उड़ाया करते थे, मगर गांव के लोग आज भी आजाद सिंह का सम्मान किया करते थे.

ऐसे में वे मदन सिंह के लिए सरपंच पद के चुनाव का टिकट ले आए. मदन सिंह की इच्छा थी कि आजाद सिंह ही चुनाव लड़ें, इसलिए पूरा गांव अखाड़ा बन गया. हर कोई उन्हें हराने के मूड था.

मगर आजाद सिंह की इज्जत का सवाल था. वे खुद जानते थे कि मदन सिंह की गांव में कोई पूछपरख नहीं है, इसलिए हार तय है. लिहाजा, चुनाव की बागडोर आजाद सिंह को संभालनी पड़ी.

उस दिन ठाकुर आजाद सिंह पहली बार प्रचारकों के साथ रामलाल की ?ोंपड़ी के बाहर पड़ी खाट पर थकान उतारने बैठ गए. तब रामलाल हाथ जोड़ कर बोला, ‘‘नंगी खाट पर मत बैठिए. इस पर कुछ बिछवा दूं.’’

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