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‘‘मेरे जुड़वां बेटाबेटी हैं, उसी के पास रहते हैं. जब कभी मेरा मन बच्चों से मिलने को चाहता है मैं उन्हें कहीं बाहर बुला कर मिल लेता हूं. उन के मन में मेरे प्रति न प्यार है न नफरत. जब से मेरे ससुरजी का देहांत हुआ है, उस ने दोनों बच्चों को होस्टल में भेज दिया है. पत्नी के मन में आज भी मेरे प्रति नफरत कूटकूट कर भरी है. सारा जीवन बस, यों ही बीत गया.

‘‘जीवन कैसा भी बीते, पर उसे छोड़ने का मन ही नहीं करता. धीरेधीरे यह दर्द मेरे जीवन का हिस्सा बन गया है, फिर तो अकेले ही जिंदगी जीने की जंग शुरू हो गई जो आज तक चल रही है. मैं पिछले 3 सालों से इसी शहर में हूं, और पास ही के एक बैंक में मैनेजर हूं. बस, यही है मेरी कहानी.’’

हम दोनों ही अतीत की यादों में खो गए. जिंदगी की किताब के पन्ने पलटते रहे एवं एकएक पड़ाव जांचते रहे. यही भटकाव कभीकभी आदमी के भविष्य की दिशा तय कर देता है. रात काफी घिर चुकी थी. बड़े बेमन से हम ने एकदूसरे से विदा ली.

नूपुर से मिलने के बाद मेरा दिल बहुत बेचैन हो गया था. खाना खाने का मन नहीं था इसलिए महरी को दरवाजे से ही वापस भेज दिया. मैं चाय का गिलास लिए ड्राइंगरूम में बैठ गया. सहसा स्मृति कलश से पुन: एक स्मृति उभर कर मुझे कई बरस पीछे ले गई. मेरे विचारों के तार कब अतीत से जुड़ गए पता ही न चला.

उस छोटे से शहर में कालोनी के कोने वाले मकान में वे लोग नएनए आए थे. मां प्रतिदिन सवेरे टहलने जातीं तो नूपुर की मां का भी वही नित्यकर्म था. हम अपनीअपनी मां के साथ पार्क में आते और जब तक मां टहलतीं पार्क में एक तरफ बैठ कर बातें करते रहते. हमउम्र होने के कारण हमारी आपस में बहुत बनने लगी. खेलतेखेलते कब जवान हो कर एकदूसरे के करीब आ गए पता ही न चला.

दिन बीतते गए. हमारी खुशियों का कोई अंत नहीं था. मगर एक दिन सूर्योदय होने से पहले ही सूर्यास्त हो गया. उस के पिताजी को दिल का दौरा पड़ा और वे सदा के लिए संसार से कूच कर गए. इस तरह एक दिन उस परिवार पर कहर टूट पड़ा.

उस रोज की शाम हर रोज की तरह नहीं हुई. जब तक मैं कालिज से आया उन का सामान ट्रक में लादा जा चुका था, पता चला वे लोग पूना अपने घर जा रहे हैं, मैं नूपुर से मिल भी नहीं सका. उस से मिलने की हसरत बस, मन में सिमट कर रह गई. न तोप चली न तलवार, न सूई चली न नश्तर पर हृदय पर ऐसा गहरा आघात लगा कि मैं ठीक से संभल न पाया.

मेरे तो प्राण ही निकल गए. वह साल बेहद उदासी में बीता. मैं पार्क में बैठ कर पुरानी यादों को दोहराता रहता. मेरे पास उस का अब कोई संपर्क सूत्र भी नहीं था.

एम. काम. करने के बाद मेरी बैंक में नियुक्ति हो गई तो मुझे देहरादून जाना पड़ा. बातों का सिलसिला इस के बाद जा कर थम गया. लेकिन उस की यादें मेरे मन में बनी रहीं.

एक बार दीवाली पर घर आया तो मां ने यों ही दिल के तार छेड़ दिए, ‘तुझे याद है. हमारे पड़ोस में वर्माजी रहते थे, वही जिन की बेटी नूपुर के साथ तू अकसर खेला करता था.’

‘हां,’ मेरा दिल धक से कर गया, ‘कहां है वह?’

‘पिछले दिनों उस की मां का फोन आया था. अपनी बेटी के रिश्ते की बात करने लगीं.’

‘तो क्या कहा आप ने?’ मैं ने उत्सुकता से सांसें थाम कर पूछा.

‘मैं भला क्या कहती. जब भी तुझ से रिश्ते की बात करती, तू टाल जाता था. मुझे लगा तेरे मन में कोई है और जब समय आएगा तू खुद ही बता देगा.’

‘नहीं, मां, मेरे मन में ऐसा कुछ भी नहीं था, न है,’ मैं ने सारा संकोच त्याग कर मां से मनुहार की, ‘चाहो तो एक बार फिर से बात कर के देख लो.’

और जब तक मां ने बात की, बहुत देर हो चुकी थी. मां ने रोंआसी सी हो कर बताया कि नूपुर की शादी तेरे साथ करने को उन का बड़ा मन था और नूपुर की भी रजामंदी थी पर समय से मैं कुछ जवाब न दे सकी तो वह उदास हो गईं. अब तो नूपुर की सगाई भी हो चुकी है.

मेरा दिल भारी हो गया और अगले दिन ही मैं वापस देहरादून चला गया. उस जैसा फिर मन को कोई प्यारा न लगा. मैं ने उस का अस्तित्व ही भुला देना चाहा पर भूलने के लिए भी मुझे हमेशा याद रखना पड़ा कि मुझे उसे भूलना है जो सहज न हो सका.

 

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