लंबेलंबे डग भरता वह होटल में शालिनी के कमरे की तरफ बढ़ा. खूबसूरत फूलों का गुलदस्ता उस के हाथों में था. दिल में शालिनी को खुश करने की चाहत लिए उस ने कमरे पर दस्तक देने के लिए हाथ उठाया ही था कि अंदर से आती शालिनी और किसी पुरुष की सम्मिलित हंसी ने उसे चौंका दिया.
बदहवास सा सौरभ दरवाजा पीटने लगा. अंदर से आई एक आवाज ने उसे स्तब्ध कर दिया था.
‘‘कौन है बे... डू नौट डिस्टर्ब का बोर्ड नहीं देख रहे हो क्या? जाओ अभी हम अपनी जानेमन के साथ बिजी हैं.’’
परंतु सौरभ ने दरवाजा पीटना बंद नहीं किया. दरवाजा खुलते ही अंदर का नजारा देख कर सौरभ को चक्कर आ गया. बिस्तर पर पड़ी उस की अर्धनग्न पत्नी उसे अपरिचित निगाहों से घूर रही थी.
जमीन पर बिखरे उस के कपड़े सौरभ की खिल्ली उड़ा रहे थे. कहीं किसी कोने में विवाह का बंधन मृत पड़ा था. उस का अटल विश्वास उस की इस दशा पर सिसकियां भर रहा था और प्रेम वह तो पिछले दरवाजे से कब का बाहर जा चुका था.
‘‘शालिनी....’’ सौरभ चीखा था.
परंतु शालिनी न चौंकी न ही असहज हुई, बस उस ने विमल को कमरे से बाहर जाने का इशारा कर दिया और स्वयं करवट ले कर छत की तरफ देखते हुए सिगरेट पीने लगी.
‘‘शालिनी... मैं तुम से बात कर रहा हूं. तुम मेरे साथ ऐसा कैसे कर सकती हो?’’ सौरभ दोबारा चीखा.
इस बार उस से भी तेज चीखी शालिनी, ‘‘क्यों... क्यों नहीं कर सकती मैं तुम्हारे साथ ऐसा? ऐसा है क्या तुम्हारे अंदर जो मुझे बांध पाता?’’
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