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Writer- Vinita Rahurikar

लेकिन समीर की इन छोटीछोटी अपेक्षाओं पर भी सुमिता बुरी तरह से भड़क जाती थी. उसे इन्हें पूरा करना गुलामी जैसा लगता था. नारी शक्ति, नारी स्वतंत्रता, आर्थिक स्वतंत्रता इन शब्दों ने तब उस का दिमाग खराब कर रखा था. स्वाभिमान, आत्मसम्मान, स्वावलंबी बन इन शब्दों के अर्थ भी तो कितने गलत रूप से ग्रहण किए थे उस के दिलोदिमाग ने.

मल्टीनैशनल कंपनी में अपनी बुद्धि के और कार्यकुशलता के बल पर सफलता हासिल की थी सुमिता ने. फिर एक के बाद एक सीढि़यां चढ़ती सुमिता पैसे और पद की चकाचौंध में इतनी अंधी हो गई कि आत्मसम्मान और अहंकार में फर्क करना ही भूल गई. आत्मसम्मान के नाम पर उस का अहंकार दिन पर दिन इतना बढ़ता गया कि वह बातबात में समीर की अवहेलना करने लगी. उस की छोटीछोटी इच्छाओं को अनदेखा कर के उस की भावनाओं को आहत करने लगी. उस की अपेक्षाओं की उपेक्षा करना सुमिता की आदत में शामिल हो गया.

समीर चुपचाप उस की सारी ज्यादतियां बरदाश्त करता रहा, लेकिन वह जितना ज्यादा बरदाश्त करता जा रहा था, उतना ही ज्यादा सुमिता का अहंकार और क्रोध बढ़ता जा रहा था. सुमिता को भड़काने में उस की सहेलियों का सब से बड़ा हाथ रहा. वे सुमिता की बातों या यों कहिए उस की तकलीफों को बड़े गौर से सुनतीं और समीर को भलाबुरा कह कर सुमिता से सहानुभूति दर्शातीं. इन्हीं सहेलियों ने उसे समीर से तलाक लेने के लिए उकसाया. तब यही सहेलियां सुमिता को अपनी सब से बड़ी हितचिंतक लगी थीं. ये सब दौड़दौड़ कर सुमिता के दुखड़े सुनने चली आती थीं और उस के कान भरती थीं, ‘तू क्यों उस के काम करे, तू क्या उस की नौकरानी या खरीदी हुई गुलाम है? तू साफ मना कर दिया कर.’

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