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लेखिका- डा. शशि गोयल

‘‘चल री चल,’’ कह कर रानी काकी ने बच्चा ले लिया. वह तो पड़ोस की कांता का बच्चा था. वह बरतन करने जाती थी. कभीकभी वह रख लेती, ‘‘अरे, कहां लिए डोलेगी. छोड़ जा मेरे पास.’’

कांता को 2-3 घंटे लगते, तब तक वह चौराहे पर आ जाती. कभी देर हो जाती तो रानी काकी कांता से कह देती, ‘‘अरे, पार्क में ले गई थी. सब बच्चे खेल रहे थे.’’

आज की घटना से रानी काकी का दिल जोर से धड़क उठा. वह तो नक्षत्र सीधे थे, नहीं तो मर लेती. उसे अपने पास अफीम भी रखनी पड़ती थी, नहीं तो सारे दिन रिरियाते बच्चों को कहां तक संभाले. बच्चा सोता रहे. जरा सा हिलते ही जरा सी अफीम चटा दो... कई घंटे की हो गई छुट्टी.

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मगर, रानी काकी जब बच्चे को कंधे पर लगाएलगाए थक जाती है, तो श्यामा ताई की झोंपड़ी में ही सुस्ताने आ जाती है. वहीं सत्ते ने सुना कि क्वार्टर की मास्टरनी का बच्चा भी कभीकभी उस की नौकरानी दे देती है. मास्टरनी स्कूल में पढ़ाए और सारा दिन बच्चा रानी काकी की बहन के पास रहे. 1-2 दिन उसे भी रानी काकी लाई, पर उस का रंगरूप गरीबों का सा बनाना पड़ा. कुछ भी हो, इतने साफसुथरे रंगरूप का सलोना बच्चा ले कर पकड़ी जाती तो मैले कपड़े पहनाने, मिट्टी का लेप लगाना सब भारी पड़ता... और अब खुद का ही छठा महीना चल रहा है... बच्चा गोद ले कर चलने में उपदेश ज्यादा मिलते हैं, ‘‘एक पेट में, एक गोद में, भीख मांगती घूम रही है. शर्मलिहाज है कुछ... क्या भिखारी बनाएगी इन्हें भी...’’

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