‘‘गीता, ओ गीता. कहां है यार, मैं लेट हो रहा हूं औफिस के लिए. जल्दी चल... तुझे कालेज छोड़ने के चक्कर में मैं रोज लेट हो जाता हूं.’’
‘‘आ रही हूं भाई, तैयार तो होने दो, कितनी आफत मचा कर रखते हो हर रोज सुबह...’’
‘‘और तू... मैं हर रोज तेरी वजह से लेट हो जाता हूं. पता नहीं, क्या लीपापोती करती रहती है. भूतनी बन जाती है.’’
इतने में गीता तैयार हो कर कमरे से बाहर आई, ‘‘देखो न मां, आप की परी जैसी बेटी को एक लंगूर भूतनी कह रहा है... आप ने भी न मां, क्या मेरे गले में मुसीबत डाल दी है. मैं अपनेआप कालेज नहीं जा सकती क्या? मैं अब छोटी बच्ची नहीं हूं, जो मुझे हर वक्त सहारे की जरूरत पड़े.’’
मां ने कहा, ‘‘तू तो मेरी परी है. यह जब तक तेरे साथ न लड़े, इसे खाना हजम नहीं होता. और अब तू बड़ी हो गई है, इसलिए तुझे सहारे की जरूरत है. जमाना बहुत खराब है बच्चे, इसलिए तो कालेज जाते हुए तुझे भाई छोड़ता जाता है और वापसी में पापा लेने आते हैं. अब जा जल्दी से, भाई कब से तेरा इंतजार कर रहा है.’’
‘‘हांहां, जा रही हूं. पता नहीं ये मांएं हर टाइम जमाने से डरती क्यों हैं?’’ गीता बड़बड़ाते हुए बाहर चली गई.
गीता बीबीए के पहले साल में पढ़ रही थी. उस का भाई बंटी उस से 6 साल बड़ा था और नौकरी करता था. गीता का छोटा सा परिवार था. मम्मीपापा और एक बड़ा भाई, जो पंजाबी बाग, दिल्ली में रहते थे.
गीता के पापा का औफिस नारायणा में था और भाई नेहरू प्लेस में नौकरी करता था. गीता का राजधानी कालेज पंजाबी बाग में ही था, मगर घर से तकरीबन 10-15 किलोमीटर दूर, इसीलिए बस से जाने के बजाय वह भाई के साथ जाती थी.