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संदीप ने पता नहीं क्या कहा पर एक सम्मिलित ठहाका उसे अवश्य सुनाई दे रहा था जो दूर तक उस का पीछा करता रहा. वह दफ्तर जाने के बजाय घर आ गई और बहुत देर तक अपने को आईने में देखती रही. हां, वह आंटी ही तो है पर सब से अधिक दुख उसे इस बात का था कि संदीप ने उसे अपने दोस्तों के आगे पूरी तरह नकार दिया था.

1 हफ्ते तक दीप्ति और संदीप के बीच मौन पसरा रहा पर फिर अचानक एक दिन एक मैसेज आया, ‘‘जान, आज मौसम बहुत बेईमान है. आ जाओ फ्लैट पर.’’

दीप्ति ने मैसेज अनदेखा कर दिया. चंद मुलाकातों के बाद ही अब संदीप उसे बस ऐसे ही याद करता था. औफिस पहुंची ही थी कि फिर से मैसेज आया, ‘‘जानू आई एम सौरी,

प्लीज एक बार आ जाओ. मैं तुम से कुछ कहना चाहता हूं.’’ दीप्ति जानती थी वह झूठ बोल रहा है पर फिर भी दफ्तर के बाद संदीप के फ्लैट पर चली गई. शायद सबकुछ हमेशा के लिए खत्म करने के लिए पर फिर से वही कहानी दोहराई गई.

दीप्ति, ‘‘संदीप, तुम्हें मेरी याद बस इसीलिए आती है. उस रोज तो तुम मुझे मैडम बुला रहे थे.’’ ‘‘तुम क्या बुलाओगी दीपक के सामने मुझे और ये जो हम करते हैं उस में तुम्हें भी उतना ही मजा आता है दीप्ति. हम दोनों जरूरतों के लिए बंधे हुए हैं,’’ संदीप ने उसे आईना दिखाया.

दीप्ति को बुरा लगा पर यह वो कड़वी सचाई थी, जिसे वह सुनना नहीं चाहती थी. संदीप ने उसे बांहों में भर लिया, ‘‘ज्यादा सोचो मत. जो है उसे ऐसे ही रहने दो. भावनाओं को बीच में मत लाओ.’’ दीप्ति थके कदमों से अपने घररूपी सराय में चली गई. क्यों वह सबकुछ जान कर भी बारबार संदीप की तरफ खिंची जाती है, यह रहस्य उसे समझ नहीं आता.

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