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कुछ ही दिनों बाद अम्मां ने दम तोड़ दिया. मैं फूटफूट कर रो रही थी. एकमात्र संबल, जिस के कंधे पर सिर रख कर मैं अपना सुखदुख बांट सकती थी, वह भी छिन गया था. मां ढाढ़स बंधा रही थीं. पापा, अन्नू और प्रमोदजी मित्रोंपरिजनों की सहानुभूतियां बटोर रहे थे. दुनिया ने चाहे कितनी भी तरक्की कर ली हो पर जातियों में बंटा हमारा समाज आज भी 18वीं सदी में जी रहा है. ब्याहशादियों में कोई आए न आए, मृत्यु के अवसर पर जरूर पहुंचते हैं.

धीरेधीरे यहां भी लोगों की भीड़ जमा होनी शुरू हो गई. मांपापा, अन्नू, प्रमोद, यहीं हमारे घर पर ठहरे हुए थे. आकाश घर में रह कर भी घर पर नहीं थे. एक बार वही तटस्थता उन पर फिर हावी हो चुकी थी. जब मौका मिलता, घर से बाहर निकल जाते और जब वापस लौटते तो उन की सांसों से आती शराब की दुर्गंध, पूरे वातावरण को दूषित कर देती. प्रबंध से ले कर पूरी सामाजिकता प्रमोदजी ही निभा रहे थे और यह सब मुझे अच्छा नहीं लग रहा था. यह सोच कर कि अम्मां बेटे की मां थीं. आकाश को उन्होंने जन्म दिया था, पालपोस कर बड़ा किया था तो अम्मां के प्रति उन की जिम्मेदारी बनती है.

एक दिन पंडितों के लिए वस्त्र, खाद्यान्न, हवन के लिए नैवेद्य आदि लाते हुए प्रमोदजी को देखा तो बरसों का उबाल, हांडी में बंद दूध की तरह उबाल खाने लगा, ‘ये सब काम आप को करने चाहिए आकाश. प्रमोदजी इस घर के दामाद हैं. फिर भी कितनी शांति से दौड़भाग में लगे हुए हैं.’

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