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लेखक- नीरज कुमार मिश्रा

‘‘पापा, सब लोग हम को घर में घुस कर देख क्यों रहे हैं? ऐसा लग रहा है, जैसे वे कोई अजूबा देख रहे हों,’’ नरेश की 22 साला बेटी नेहा बेटी ने पूछा.

‘‘वह... दरअसल, आज हम लोग शहर से आने के बाद क्वारंटीन सैंटर में 14 दिन रहने के बाद अपने घर जा रहे हैं न, इसीलिए सब लोग हमें अजीब नजरों से देख रहे हैं,’’ गांव में नरेश ने अपनी बेटी नेहा को बताया.

नरेश पिछले 20 साल से दिल्ली शहर में रह रहा था. अपनी शादी के कुछ दिनों बाद ही वह अपनी पत्नी के साथ शहर चला गया था.

शहर में कोई काम शुरू करने के लिए नरेश के पास रकम तो थी नहीं, बस थोड़ाबहुत पैसा अपने बड़े भाई से मांग कर ले गया था, जो वहां सामान खरीदने में ही खर्च हो गया.

पर नरेश ने हिम्मत नहीं हारी और महल्ले के लोगों की गाडि़यां साफ करने का काम ले लिया. बस एक बालटी, एक पुराना कपड़ा, कार शैंपू और पानी तो कार वालों के यहां मिल ही जाता था.

जैसेजैसे लोगों के पास गाडि़यां  बढ़ीं, वैसेवैसे नरेश का काम भी बढ़ता चला गया और वह ठीकठाक पैसे कमाने लगा.

शहर में ही नरेश की पत्नी ने 2 बेटियों को जन्म दिया और अब तो बड़ी बेटी नेहा 22 साल की हो चली थी और छोटी बेटी 16 साल की.

नेहा के लिए तो लड़के वालों से बातचीत भी हो गई थी और रिश्ता भी पक्का हो गया था, पर इस लौकडाउन ने तो सभी के सपनों पर पानी ही फेर दिया. बहुत सारे मजदूरों को शहर छोड़ने पर मजबूर कर दिया था.

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