पहला भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें- नमामि: भाग 1
लेखिका- मधुलता पारे
अगले दिन डोरबैल बजी. कल्पना मन ही मन बड़ी खुश हुई कि रामवती ने वक्त की कीमत तो सम झी, पर जब दरवाजा खोला तो रामवती की जगह एक दुबलीपतली सांवले रंग की चमकदार आंखों वाली लड़की खड़ी थी. सलोना, पर आकर्षक चेहरा. बाल खूबसूरती से बंधे हुए.
‘‘आंटीजी, मु झे मम्मी ने काम करने के लिए भेजा है. शाम को तो मम्मी ही आएंगी.’’
‘‘तुम रामवती की बेटी नमामि हो? वह क्यों नहीं आई?’’ कल्पना को अपना सवाल ही बेतुका लगा, पर जबान थी कि फिसल गई.
नमामि का जवाब भी वही था, ‘‘मम्मी सोनू का डब्बा बना रही हैं.’’
नमामि बड़े सलीके से सधे हुए हाथों से काम करती जा रही थी. सुबह के
9 बजे तक उस ने काम पूरा कर लिया था. इस के बाद वह चली गई.
कल्पना तो कुछ ही देर में उस की कायल हो गई. उस की एक चिंता दूर हो गई कि उसे काम नहीं करना पड़ेगा. आराम से औफिस जा सकेगी. सोनू ने नमामि को चुन कर कोई भूल नहीं की.
कल्पना समय से औफिस के लिए निकल गई. नमामि का शांत और आकर्षक चेहरा उस के जेहन में रहरह कर आ रहा था. बस में बैठने के बाद भी वह उसी चेहरे में खोई थी कि अचानक कल्पना की सोच में कुछ दृश्य आने लगे.
ब्याह कर आई कल्पना बहुत से नातेरिश्तेदारों के बीच बैठी थी. अचानक बड़ी दीदी की आवाज ने चुप्पी तोड़ी, ‘राजेश के लिए तो बहुत सी गोरी लड़कियों के रिश्ते आए थे, पर बाबूजी को तो कल्पना ही पसंद आई. सांवली है, पर क्या किया जा सकता है.’
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