आज उस का सामना करने के लिए मैं पूरी तरह से तैयार हो कर औफिस गया था.
वह भी लगता था आज कुछ ज्यादा ही मुस्तैद हो कर आया था.
हर रोज तो वह 10 बजे के बाद ही औफिस आता था लेकिन आज जल्दी आ गया था. मुझे पक्का पता था कि आज वह मुझ से पहले ही पहुंच जाएगा. आज पार्किंग में उस की गाड़ी पहले से ही खड़ी थी.
मेरे मन में गुस्से की एक बड़ी सी लहर उठी, यह आदमी बहुत कमीना है. इस से बचना लगभग नामुमकिन है. मैं ने मन ही मन अपनी प्रतिज्ञा दोहराई, ‘आज मैं इस की बातों में नहीं आने वाला.’ मैं ने मन ही मन अपना यह प्रण भी दोहराया कि मैं पिछले कई दिनों से उस से दूर रहने की योजना बना रहा था, अब उस की शुरुआत मैं कर चुका हूं.
ये भी पढ़ें- शरणार्थी : मीना ने कैसे लगाया अविनाश को चूना
कल पूरे दिन उस से दूर रहने में मैं कामयाब रहा था. उस ने कितने फोन किए, बुलावे भेजे, बड़े साहब का नाम ले कर मुझे अपने केबिन में बुलाने की कोशिश की, मगर मैं औफिस से बाहर रहा. वह कहता रहा, ‘कहां है भाई, जल्दी आ जा. लंच में बाजार की सैर करेंगे. आज अच्छी रौनक है.’
मैं अपने इरादे पर अटल रहा. उसे गच्चा देता रहा. फिर 4 बजे के बाद उस ने मुझे फोन किया, ‘कहां है तू? आ जा, आज जिमखाना में बियर पिलाऊंगा.’
मैं ने बहाने बनाए कि अपने काम में बहुत फंसा हुआ हूं.
हद होती है किसी का पीछा करने की. क्या किसी आदमी की अपनी कोई निजता नहीं हो सकती भला? कोई जब चाहे मुझे अपने पीछे लगा ले. क्या मेरा कोई अपना पर्सनल एजेंडा नहीं हो सकता आज का. क्या मेरा मन नहीं करता कि मैं आज का दिन अपनी मरजी से गुजारूं? सदर बाजार की तरफ टहलूं या माल रोड पर? लाइब्रेरी जाऊं या अपनी सीट पर ही सुस्ताऊं? चाय पियूं या कौफी? किसी और का इतना रोब क्यों सहूं. उस का इतना हक क्यों है मेरी दिनचर्या पर.