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राइटर- अंजुला श्रीवास्तव

‘‘कहां चलना है?’’ मैं  सहज हो कर तैयार हो गई थी. अब तक मैं सम झ चुकी थी कि अरुण अब मेरा केवल परिचित मात्र रह गया है. लेकिन फिर भी मैं ने लाल बौर्डर वाली पीली साड़ी पहनी थी. अरुण अपनी पसंद की साड़ी में मु झे देखता ही रह गया था. मैं ने फिर मन ही मन कहा, ‘क्या देख रहे हो, अरुण? मैं वही रेखा हूं. कुछ भी, कहीं भी नहीं बदला है. फिर, किस वजह से हम एकदूसरे से इतनी दूर हो गए हैं?’

मैं ने सिर  झटक दिया. सीढि़यां उतरते ही हम भीड़भरी सड़क का एक अंग बन गए.

उस दिन मैं थक कर चूर हो गई थी. पर मेरी आंखों में नींद कहां थी. अरुण भी पिछला कुछ नहीं भूला था. वह लगातार सिगरेट पीता रहा. फिर अचानक बोला, ‘‘रेखा, वैसे तो अब तुम पर मेरा कोई हक नहीं लेकिन तब भी कह रहा हूं, इतनी दूर अकेली मत रहो. लौट आओ, वापस लखनऊ. नौकरी करना इतना जरूरी तो नहीं?’’

मेरे गले में कुछ अटकने लगा. अरुण को औरतों का नौकरी करना कभी पसंद नहीं आया. मैं ने फिर कहना चाहा, ‘अरुण, नौकरी करना उन के लिए जरूरी नहीं जिन के पास सबकुछ हो, मेरे पास तो कुछ भी नहीं. फिर पिछला सब भुलाने के लिए ही तो मैं इतनी दूर आई हूं. वरना नौकरी तो मु झे वहां भी मिल जाती. लखनऊ वापस लौट कर मैं क्या जिंदा भी रह पाऊंगी? जब अतीत बुरे सपने की तरह पीछा करेगा तो उस से मैं कैसे बचूंगी? कहांकहां भागूंगी? किसकिस से बचूंगी? नहीं अरुण, मु झे वापस लौटने को मत कहो. मु झे  झूठी मृगतृष्णा में मत फंसाओ. जानते हो, रेतीली चट्टानों के पीछे भागने वाले को प्यासा ही भटकना पड़ता है.’

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