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पहला भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें- हमदर्द: भाग 1

‘‘तुम भी आंटी, जाने क्यों बेटे के इशारे पर नाचती हो? अपना खाती हो अपना पहनती हो…उलटे बेटे को खिलातीपहनाती हो. सुना है मोटी तनख्वाह पाता है पर कभी 10 रुपए तुम्हारे हाथ पर नहीं रखे और अब ब्याह भी अपनी मर्जी का कर रहा है. ऐसे बेटे के कमरे की सफाई के लिए तुम मरी जा रही हो.’’

गहरी सांस ली कावेरी ने और बोली, ‘‘क्या करूं, बता. पहले ही दिन, नई बहू सास को बेटे से गाली खाते देख कर क्या सोचेगी.’’

‘‘यह तो ठीक कह रही हो.’’

जब बड़ी सी पहिए लगी अटैची खींचते बिल्लू के साथ टाइट जींस और टीशर्ट पहने और सिर पर लड़कों जैसे छोटेछोेटे बाल, सांवली, दुबलीपतली लावण्यहीन युवती को ले कर आया तब घड़ी ठीक 12 बजा रही थी. एक झलक में ही लड़की का रूखा चेहरा, चालचलन की उद्दंडता देख कावेरी समझ गई कि उसे अब पुत्र मोह को एकदम ही त्याग देना चाहिए. यह लड़की चाहे जो भी हो उस की या किसी भी घर की बहू नहीं बन सकती. पता नहीं बिल्लू ने क्या सोचा? बोला, ‘‘रीटा, यह मेरी मां है और मां यह रीटा.’’

जरा सा सिर हिला या नहीं हिला पर वह आगे बढ़ गई. कमरे में जा कर बिल्लू ने दरवाजा बंद कर लिया. हो गया नई बहू का गृहप्रवेश. और नई चमचमाती जूती के नीचे रौंदती चली गई थी वह कावेरी के वे सारे सपने जो जीवन की सारी निराशाओं के बीच बैठ कर देखा करती थी. सुशील बहू, प्यारेप्यारे पोतेपोती के साथ सुखद बुढ़ापे का सपना.

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जशोदा लौट कर रसोई की चौखट पर खड़ी हुई और बोली, ‘‘आंटी, यह औरत है या मर्द, समझ में नहीं आया.’’

जशोदा इतनी मुंहफट है कि उस की हरकतों से डरती है कावेरी. पता नहीं नई बहू के लिए और क्याक्या कह डाले. पहले दिन ही वह बहू के सामने बेटे से अपमानित नहीं होना चाहती. पर यह तो सच है कि अब उस को कुछ सोचना पड़ेगा. देखा जाए तो बेटे का जो बरताव उस के साथ रहा उस से बहुत पहले ही उस को अलग कर देना चाहिए था पर अनजान मोह से वह बंध कर रह गई.

‘‘अब तो मां के सहारे की उसे कोई जरूरत नहीं…अब क्यों साथ रहना.’’

जशोदा ने खाना बना कर मेज पर लगा दिया. न चाहते हुए भी कावेरी ने थोड़ी खीर बनाई. जशोदा फिर बौखलाई.

‘‘अब ज्यादा मत सिर पर चढ़ाओ.’’

‘‘नई बहू है, उसे तो पूरी खिलानी चाहिए. मीठा कुछ मंगाया नहीं, थोड़ी खीर ही सही.’’

‘‘अब तुम रहने दो. कहां की नई बहू? पैंट, जूता, बनियान में आई है, सास के पैर छूने तक का ढंग नहीं है. लगता है कि घाटघाट का पानी पी कर इस घाट आई है.’’

कंधे झटक जशोदा चली गई. थोड़ी देर में दोनों अपनेआप खाने की मेज पर आ बैठे. बेटा तो कुरतापजामा पहने था. बहू घुटनों से काफी ऊंचा एक फ्राक जैसा कुछ पहने थी और ऊपर का शरीर आधा नंगा था.

बेटे से एक शब्द भी बोले बिना कावेरी ने बहू को पारखी नजर से देखा. दोनों चुपचाप खाना खा रहे थे. उस के मुख पर भले घर की छाप एकदम नहीं थी और संस्कारों का तो जवाब नहीं. सास से एक बार भी नहीं कहा कि आप भी बैठिए. और तो और, खाने के बाद अपनी थाली तक नहीं उठाई और दरवाजा फिर से बंद हो गया.

घर का वातावरण एकदम बदल गया. यह स्वाभाविक ही था. घर में जब बहू आती है तो घर का वातावरण ही बदल जाता है. उसे भोर में उठने की आदत है. फ्रेश हो कर पहले चाय बनाती, आराम से बैठ कर चाय पीती, तब दिनचर्या शुरू होती. तब कभीकभी बेटा भी आ बैठता और चाय पीता, दोचार बातें न होती हों ऐसी बात नहीं, मामूली बातें भी होतीं पर अब तो साढ़े 8 बजे जशोदा चाय की टे्र ले कर दरवाजा पीटती तब दरवाजा खोल चाय ले कर फिर दरवाजा बंद हो जाता. खुलता 9 बजने के बाद फिर तैयार हो, नाश्ता करने बैठते दोनों और फौरन आफिस निकल जाते.

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दोपहर का लंच आफिस में, शाम को लौटते, ड्रेस बदलते फिर निकल जाते तो आधी रात को ही लौटते. बाहर ही रात का खाना खाते तो नाश्ता छोड़ घर में खाने का और कोई झंझट ही नहीं रहता. छुट्टी के दिन भी कार्यक्रम नहीं बदलता. नाश्ता कर दोनों घूमने चले जाते…रात खापी कर लौटते.

बहू से परिचय ही नहीं हुआ. बस, घर में रहती है तो आंखों में परिचित है, संवाद एक भी नहीं. खाना खाने के बाद ऐसे उठ जाती जैसे होटल में खाया हो. न थाली उठाती न बचा सामान समेट फ्रिज में रखती. कावेरी हैरान होती कि कैसे परिवार में पली है यह लड़की? संस्कार दूर की बात साधारण सी तमीज भी नहीं सीखी है इस ने और यह सब छोटीमोटी बातें तो बिना सिखाए ही लड़कियां अपनी सहज प्रवृत्ति से सीख जाती हैं. इस में तो स्त्रीसुलभ कोई गुण ही नहीं है…पता नहीं इस के परिवार वाले कैसे हैं, कभी बेटी की खोजखबर लेने भी नहीं आते?

कावेरी ने अब अपने को पूरी तरह समेट लिया है. जो मन में आए करो, मुझ से मतलब क्या? कुछ इस प्रकार के विचार बना लिए उस ने. सोचा था घर छोड़ ‘हरिद्वार’ जा कर रहेगी पर इस घर की एकएक चीज उस की जोड़ी हुई, सजाई हुई है. बड़ी ममता है इस सजीसजाई गृहस्थी के प्रति, फिर यह घर भी तो उस के नाम है…वह क्यों अपना घर छोड़ जाएगी…जाना है तो बहूबेटे जाएंगे.

जशोदा भी यही बात कहती है. इस समय उस का अपना कोई है तो बस, जशोदा है. महीने का वेतन और रोटीकपड़े पर रहने वाली जशोदा ही एकमात्र अपनी है…बहुत दिनों की सुखदुख की गवाह और साथी.

बेटे ने घर के लिए कभी पैसा नहीं दिया और आज भी नहीं देता है. कावेरी ने भी यह सोच कर कुछ नहीं कहा कि ये लोग घर पर केवल नाश्ता ही तो करते हैं. बहू तो कमरे से बाहर आती ही नहीं है. कभीकभी चाय पीनी हो तो बेटा रसोई में जा कर चाय बना लेता है. 2 कप कमरे में ले जाते हुए मां को भी 1 कप चाय पकड़ा जाता है. बस, यही सेवा है मां की.

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