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मेडिकल कालिज की कैंटीन शहर भर में दहीबड़े के लिए प्रसिद्ध थी. अचानक जरूरत पड़ने पर या मेहमानों के लिए विशेषतौर पर लोग वहां से दहीबड़े खरीदने आते थे. बाहर के लोगों के लिए भी कैंटीन में आना मना नहीं था. स्वयंसेवा की व्यवस्था थी. लोगों को स्वयं अपना नाश्ता, चाय, कौफी वगैरह अंदर के काउंटर से उठा कर लाना होता था. कालिज के साथ ही सरकारी अस्पताल होता था. रोगियों के संबंधी भी अकसर कालिज की कैंटीन से चायनाश्ता खरीद कर ले जाते थे.

कैंटीन में अकेली बैठी उषा चाय पी रही थी. सामने की सीट खाली थी. अचानक एक नौजवान चाय का कप ले कर वहां आया, ‘‘मैं यहां बैठ सकता हूं?’’ उस की बातों व व्यवहार से शालीनता टपक रही थी.

‘‘हां, हां, क्यों नहीं,’’ कह कर उषा ने अपनी कुरसी थोड़ी पीछे खिसका ली.

‘‘मेरी मां अस्पताल में दाखिल हैं,’’ बातचीत शुरू करने के लहजे में वह नौजवान बोला.

‘‘अच्छा, क्या हुआ उन को? किस वार्ड में हैं?’’ सहज ही पूछ बैठी थी उषा.

‘‘5 नंबर में हैं. गुरदे में पथरी हो गई थी. आपरेशन हुआ है,’’ धीरे से युवक बोला.

शाम को घर लौटने से पहले उषा अपनी सहेली के साथ वार्ड नंबर 5 में गई तो वहां वही युवक अपनी मां के सिरहाने बैठा हुआ था. उषा को देखते ही उठ खड़ा हुआ, ‘‘आइए, डाक्टर साहब.’’

‘‘अभी तो मुझे डाक्टर बनने में 6 महीने बाकी हैं,’’ कहते हुए उषा के चेहरे पर मुसकान तैर गई.

उस युवक की मां ने पूछा, ‘‘शैलेंद्र, कौन है यह?’’

‘‘मेरा नाम उषा है. आज कैंटीन में इन से मुलाकात हुई तो आप की तबीयत पूछने आ गई. कैसी हैं आप?’’ शैलेंद्र को असमंजस में पड़ा देख कर उषा ने ही जवाब दे दिया.

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