लेखक- नीरज कुमार मिश्रा
धनिया रोते हुए गांव के बाहर जाने लगी. वह कहां जाएगी, उसे कुछ पता नहीं था. तभी रास्ते में उसे एक बूढ़ी काकी ने रोक कर कहा, ‘‘धनिया... मैं छंगा को अच्छी तरह जानती हूं. वह कभी अच्छा नहीं था और वह कालिया... वह तो एक नंबर का बदमाश है. उस ने ऐसे ही छल कर के लोगों की जमीन हड़प ली है. लोग उस के डर के चलते कुछ कह नहीं पाते.’’
‘‘पर काकी, अब मैं क्या करूं...?’’
‘‘दुनिया का दस्तूर ही यही है... जैसे को तैसा.’’
धनिया को कुछ समझ नहीं आया, तो काकी ने एक 30 साल के आदमी की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘‘यह मेरा बेटा राजू है. यह शहर से पढ़ कर आया है, तो गांव में कंप्यूटर की दुकान खोलना चाहता था, पर कालिया को यह मंजूर नहीं हुआ कि गांव के लोग बाहर की दुनिया के बारे में जागरूक बनें, इसलिए रात में मेरे बेटे की दुकान लूट ली और जब यह पुलिस में रिपोर्ट करने गया, तो मारमार कर इस की टांग ही तोड़ दी.
‘‘दीदी, मेरा नाम राजू है. मुझ से आप को जो भी मदद चाहिए, बेझिझक बता दीजिएगा,’’ राजू ने कहा.
काकी और राजू की बातों से धनिया को कुछ हिम्मत मिली, तो उस ने कुछ समय गांव में ही रहने का फैसला किया और एक पेड़ के नीचे जा कर बैठ गई. उस की बच्चियां भूख से परेशान हो रही थीं. धनिया उन का मन बहलाने के लिए उन्हें सेमल का फूल पानी में डुबा कर खिलाने लगी.
‘‘अरे, यह सब करने से बच्चों का पेट नहीं भरेगा... यह लो, तुम भी खाना खाओ और इन्हें भी खिलाओ,’’ एक टोकरी में भर कर पूरीसब्जी ले कर आया था कालिया.