लेखक- नीरज कुमार मिश्रा
‘तो क्या मुखियाजी ने अपने भाइयों को इसलिए पालापोसा है, ताकि वे हमारे पतियों को हम से दूर कर के हमें भोग सकें... पर, मैं चाह कर भी कुछ नहीं कर सकती, क्योंकि मेरे पति ही अपने बड़े भाई के खिलाफ एक शब्द भी नहीं सुनना चाहते हैं...’ ऐसा सोच कर सीमा को नींद न आ सकी.
रानी के कमरे से सीमा को कुछ आवाज आती महसूस हुई, तो आधी रात को वह उठी और नई बहू रानी के कमरे के बाहर जा कर दरवाजे की ?िर्री में आंख गड़ा दी.
अंदर रानी बेसुध हो कर सो रही थी, जबकि मुखियाजी उस के बिस्तर के पास खड़े हो कर रानी के बदन को किसी भूखे भेडि़ए की तरह घूरे जा रहे थे.
अभी मुखियाजी रानी के सीने की तरफ अपना हाथ बढ़ाने ही जा रहे थे कि उन की हरकत देख कर सीमा को गुस्सा आया और उस ने पास में रखे बरतन नीचे गिरा दिए, जिस की आवाज से रानी जाग गई और चौंकते हुए पूछ बैठी, ‘‘मुखियाजी आप यहां... इस समय...’’
‘‘हां... बस जरा देखने चला आया था कि तु?ो कोई परेशानी तो नहीं है,’’ इतना कह कर मुखियाजी बाहर निकल गए.
रानी भी मुखियाजी की नजर और उन के इरादों को अच्छी तरह सम?ा गई थी, पर उस ने अनजान बने रहना ही उचित सम?ा.
‘‘कल तो आप रानी के कमरे में ही रहे... हमें अच्छा नहीं लगा,’’ सीमा ने शिकायती लहजे में कहा, तो मुखियाजी ने बात बनाते हुए कहा, ‘‘दरअसल,
अभी वह नई है... विनय शहर गया है, तो रातबिरात उस का ध्यान तो रखना ही है न.’’
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