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‘‘ ‘नमस्ते सर,’ दोनों हाथ जोड़ कर उस ने मेरा अभिवादन किया. चेहरे पर कोई भी भाव ऐसा नहीं जिस से शर्म का एहसास महसूस हो. मैं कभी अपनी पत्नी का मुंह देख रहा था और कभी उस का. गृहस्थी की दहलीज पार कर के जा चुका इंसान क्या इस लायक है कि उसे मैं अपने घर के अंदर आने दूं और पानी का घूंट भी पिलाऊं.

‘‘ ‘सुनयना यहां है क्या? घर पर है नहीं न...घर की चाबियां हों तो दे दीजिए... मैं ने फोन कर के उसे बता दिया था...मां को साथ लाया हूं...वह बाहर गाड़ी में हैं. कहां गई है वह? क्या मार्केट तक गई है?’

‘‘इतने ढेर सारे सवाल एकसाथ... उस के हावभाव तो इस तरह के थे मानो पिछले 3-4 महीने में कहीं कुछ हुआ ही नहीं है. पल भर को मेरा माथा ठनका. गिरीश के चेहरे का आत्मविश्वास और अधिकार से परिपूर्ण आवाज कहीं से भी यह नहीं दर्शा रही, जिस का उल्लेख सुनयना रोरो कर करती रही थी. उठ कर मैं बाहर चला आया. सचमुच गाड़ी में उस की बीमार मां थी.

‘‘ ‘वह तो अपने भाई के घर गई है और घर की चाबियां उस ने हमें दीं नहीं... आइए, अंदर आ जाइए.’

‘‘ ‘नहीं सर, मुझे तो मां को सीधे अस्पताल ले जाना है. कितनी लापरवाह है यह लड़की, जिम्मेदारी का जरा सा भी एहसास नहीं,’ भन्नाता हुआ गिरीश चला गया.

‘जिम्मेदारी का एहसास क्या सिर्फ सुनयना के लिए? तब यह एहसास कहां था जब वह अपने बच्चे का दर्द सह रही थी.’ मैं ने सोचा फिर सहसा लगा, नहीं, कहीं मैं ही तो बेवकूफ नहीं बन गया इस लड़की के हाथों. हम तो उसी नजर से गिरीश को देख रहे हैं न जिस नजर से सुनयना हमें देखना सिखा रही है. सच क्या है शायद हम पतिपत्नी आज भी नहीं जानते.

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