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कुसुमजी का कभी किसी ज्योतिषी या तांत्रिक से वास्ता नहीं पड़ा था, इसलिए उन के मन में उन के प्रति अविश्वास की कोई भावना नहीं थी. दरअसल, उन के जीवन में ऐसा कोई टेढ़ामेढ़ा मोड़ ही नहीं आया था जिस में से निकलने की कोई उम्मीद ले कर उन्हें किसी बाबा आदि की शरण में जाना पड़ता. सविता का परामर्श मान कर कुसुमजी तैयार हो गईं. उन्हें यह जानने की उत्सुकता अवश्य थी कि अगर सचमुच ज्योतिष नाम की कोई विद्या है तो बाबा से जा कर पूछा जाए कि उन के अपने घर में आखिर कौन चोर हो गया है. जाने कितने गलीकूचों से हो कर कुसुमजी बाबा के पास पहुंचीं.

भगवा वस्त्र, माथे पर त्रिपुंड, गले में रुद्राक्ष की माला, बंद आंखें और तेजस्वी मूर्ति. सविता ने उन्हें अपने आने का प्रयोजन बताया और चोर का नाम जानने की इच्छा प्रकट करते हुए बाबा के सामने फलों की टोकरी भेंटस्वरूप रख दी. बाबा ने उस की ओर ध्यान भी नहीं दिया, किंतु उन के शिष्य ने टोकरी उठा कर अंदर पहुंचा दी. बाबा ध्यानावस्थित हुए. कुसुमजी ने बड़ी आशा से उन की ओर देखा, यह सोच कर कि वह पिछले दिनों जिस सवाल का उत्तर खोजतेखोजते थक गई हैं शायद उस का कोई उत्तर बाबा दे सकें.

बाबा की पलकें धीरेधीरे खुलीं, उन्होंने सर्वज्ञ की भांति कुसुमजी पर एक दृष्टि डाली और गंभीर स्वर में घोषणा की, ‘‘चोर घर में ही है.’’ चोर तो घर में ही था. बाहर का कोई आदमी घर में आया ही नहीं था. पर सवाल यह था कि उन के अपने ही घर में चोर था कौन. बाबा ने कहा, ‘‘यह तो घर में आ कर ही बता सकेंगे कि चोर कौन है. हम चोर के मस्तक की लिखावट पढ़ सकते हैं.

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