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एक दिन मां ने हमें दीपक के साथ गेंद खेलते देख लिया. वे उसी समय अपने पास बुला कर पूछने लगीं, ‘‘उधर क्यों गए थे? क्या कर रहे थे?’’ ‘‘कुछ नहीं मां, हमारी गेंद वहां गिर गई थी,’’ मैं ने बहाना बनाया. ‘‘अच्छा... इधर थोड़ा आंगन है खेलने को?’’ मां ने हमें झिड़क दिया था. फिर समझाते हुए बोलीं, ‘‘चलो, अच्छे बच्चे उधर नहीं जाते.’’

दीपक सहम गया था और हैरानी से मां को देखने लगा था. मुझे भी उन की बातें समझ में नहीं आ रही थीं कि आखिर ये जातपांत है क्या बला? समाज में यह ऊंचनीच, यह भेदभाव की दीवार क्यों है? दीपक पढ़ाई में बहुत तेज था, इसलिए मैं हमेशा उस की तारीफ करती.

मैं उस से दोस्ती तोड़ नहीं पाई. घर वालों की मुखालफत के बावजूद हम गहरे दोस्त बन गए.  दीपक के पास फटीपुरानी किताबें होती थीं. वह अपना काम करने के लिए कई बार मुझ से किताबें मांगता और मैं उसे खुशी से दे देती.

कभीकभी मैं भी चोरीछिपे उस के कमरे में चली जाती और हम दोनों इकट्ठे पढ़ते रहते.सर्दी के दिनों में दीपक पतले कपड़ों में ठिठुरता रहता. तब उस की मां मेरे मातापिता से मनोज के पुराने कपड़े मांगती. मां मनोज के कपड़े उसे दे देतीं.

उन ढीलेढाले कपड़ों को पहन कर दीपक की सुंदरता में और भी निखार आ जाता था. उस की जरूरत की थोड़ीबहुत चीजें मैं भी चोरीछिपे उसे दे देती, तब वह बारबार मेरा शुक्रिया अदा करता. एक बार मैं उसे अपने कमरे में ले आई, तभी दादीजी पता नहीं उधर कहां से निकल आईं.

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