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अमिता ने स्थायी रूप से मायके जा कर रहना पसंद नहीं किया. यह उस के पति का अपना घर है, पति के साथ 5 साल यहीं तो बीते हैं, फिर राहुल भी यहीं पैदा हुआ है. जाहिर है, भावनाओं के जोश में उस ने बाप के घर जा कर रहने से मना कर दिया.

सुभाषचंद्र के प्रयास से वह बैंक में मैनेजर से मिल कर पति के खाते की स्वामिनी कागजपत्रों पर हो गई. पासबुक, चेकबुक मिल गई और फिलहाल के जरूरी खर्चों के लिए उस ने 25 हजार की रकम भी बैंक से निकाल ली.

अब वह पहले वाली निरीह गृहिणी अमिता नहीं बल्कि अधिकार भाव रखने वाली संपन्न अमिता है. राहुल को नगर निगम के स्कूल से हटा कर पास के ही एक अच्छे पब्लिक स्कूल में दाखिल करा दिया. अब उसे स्कूल की बस लाती, ले जाती है.

बेटी घर में अकेली कैसे रहेगी, यह सोच कर मां और छोटी बहन वीणा वहीं रहने लगीं. वीणा वहीं से स्कूल पढ़ने जाने लगी. छोटा भाई भी रोज 1-2 बार आ कर पूछ जाता. अब एक काम वाली रख ली गई, वरना पहले अमिता ही चौका- बरतन से ले कर साफसफाई का सब काम करती थीया है...’’

मां ने रोते हुए अमिता का हाथ पकड़ लिया, ‘‘बेटी, अब तुम्हारे ही ऊपर है, इन्हें जेल जाने से बचाओ...’’

अमिता ने बैंक द्वारा भेजे गए कागज देखने चाहे. पिता का चेहरा उतर गया. बोले, ‘‘बैंक ने अभी तो सम्मन नहीं भेजा है, लेकिन वहां के एक जानपहचान के आदमी ने बताया है कि जल्द भेजने की तैयारी हो रही है. उस ने राय दी है कि मैं मैनेजर से मिल लूं और शीघ्र रुपए की व्यवस्था करूं.’

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