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‘‘हांहां, अंकल, बताइए न.’’

‘‘बेटा, मैं बड़ा परेशान हूं. तनिक अपनी आंटी को समझाओ न. मैं कहां जाऊं...मेरा तो जीना हराम कर रखा है इस ने. तुम जरा मेरी उम्र देखो और इस का शक देखो. तुम दोनों मेरी बेटी जैसी हो. जरा सोचो, जो सब यह कहती है क्या मैं कर सकता हूं. कहती है मैं मकान नंबर 205 में जाता हूं. जरा इसे साथ ले जाओ और ढूंढ़ो वह घर जहां मैं जाता हूं.’’

80 साल के शर्मा अंकल रोने लगे थे.

‘‘वहम की बीमारी है इसे. किसी से भी बात करूं मैं तो मेरा नाम उसी के साथ जोड़ देती है. हर रिश्ता ताक पर रख छोड़ा है इस ने.’’

‘‘आप ने आंटी का इलाज नहीं कराया?’’

‘‘अरे, हजार बार कराया. डाक्टर को ही पागल बता कर भेज दिया इस ने. मेरी जान भी इतनी सख्त है कि निकलती ही नहीं. एक्सीडैंट में मेरे स्कूटर के परखच्चे उड़ गए और मुझे देखो, मैं बच गया...मैं मरता भी तो नहीं. हर सुबह उठ कर मौत की दुआएं मांगता हूं...कब वह दिन आएगा जब मैं मरूंगा.’’

सरला और मैं चुपचाप उन्हें रोते देखती रहीं. सच क्या होगा या क्या हो सकता है हम कैसे अंदाजा लगातीं. जीवन का कटु सत्य हमारे सामने था. अगर शर्माजी जवानी में चरित्रहीन थे तो उस का प्रतिकार क्या इस तरह नहीं होना चाहिए? और सब से बड़ी बात हम भी कौन हैं निर्णय लेने वाले. हजार कमी हैं हमारे अंदर. हम तो केवल मानव बन कर ही किसी दूसरे मानव की पीड़ा सुन सकती थीं. अपनी लगाई आग में सिर्फ खुदी को जलना पड़ता है, यही एक शाश्वत सचाई है.

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