लेखक- प्रकाश सक्सेना

‘‘बड़ी मुद्दत हुई तुम्हारा गाना सुने. आज कुछ सुनाओ. कोई भी राग उठा लो,  बागेश्वरी, विहाग या मालकोश, जो इस समय के राग हैं,’’ रात का भोजन करने के बाद मनोहर लाल ने अंकिता से इच्छा व्यक्त की. वे बड़े लंबे समय के बाद अपनी बेटी और दामाद के यहां उन से मिलने आए थे.

इस से पहले कि अंकिता कुछ कहती, उस की 14 साल की बेटी चहक पड़ी, ‘‘सुना तो है कि मां बड़ा अच्छा गाती थीं, संगीत विशारद भी हैं, लेकिन मैं ने तो आज तक इन के मुख से कोई गाना नहीं सुना.’’

‘‘यह मैं क्या सुन रहा हूं? तुम तो इतना बढि़या गाती थीं. कुछ और समय लखनऊ में रहना हो गया होता तो तुम ने संगीत में निपुणता प्राप्त कर ली होती.’’

‘‘अभ्यास छूटे एक युग बीत गया. अब गला ही नहीं चलता. मेरे पास शास्त्रीय संगीत के अनेक कैसेट पड़े हैं, उन में से कोई लगा दूं?’’

‘‘नहीं, वह सब कुछ नहीं. इतने परिश्रम से सीखी हुई विद्या तुम ने गंवा कैसे दी? शाम 4 बजे के बाद कालेज से लौटती थीं तो जल्दीजल्दी कुछ नाश्ता कर रिकशे से भातखंडे कालेज चल देती थीं. वहां से लौटतेलौटते रात के साढ़े 7 बज जाते थे. थक जाने पर भी रियाज करती थीं. जाड़ों में रात जल्दी घिर आती है. तब मैं तुम्हें लेने साइकिल से कालेज पहुंचता था. उस ओर से रिकशे के पैसे बचाने के लिए तुम कितने उत्साह से पैदल ही उछलतीकूदती चली आती थीं. हम लोगों के कैसे कठिन दिन थे वे. वह सारी साधना धूल में मिल गई.’’

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