‘मैं अपनी पूरी जिंदगी घर में निठल्ले बैठे नहीं गुजार सकती. वैसे ही अपनी जिंदगी का अहम हिस्सा इस परिवार को भेंट कर ही चुकी हूं, लेकिन अब और नहीं कर सकती,’ आक्रोश में सास ने उत्तर दिया था.
‘मम्मीजी, घर में भी दूसरे सैकड़ों जरूरी काम हैं, यदि किए जाएं तो,’ कहना चाह कर भी माधुरी कह नहीं सकी थी. व्यर्थ ही उन का गुस्सा बढ़ जाता और हासिल कुछ भी न होता. हो सकता है वे अपनी जगह ठीक हों वरना कौन पढ़ीलिखी औरत फालतू के कामों में अपनी पूरी जिंदगी बिताना चाहेगी.
मम्मीजी का निर्णय अपना है. पर वह उस सचाई को कैसे भूल सकती है जिस के पीछे उस का भोगा हुआ अतीत छिपा है, तनहाइयां छिपी हैं, रुदन छिपा है, जिस को देखने का, पहचानने का उस के पालकों के पास समय ही नहीं था. उस समय उसे लगता था कि ऐसे दंपती संतान को जन्म ही क्यों देते हैं, जब उन के पास बच्चों के लिए समय ही नहीं है. वह बेचारा उन की प्यारभरी निगाह के लिए जीवनभर तड़पता ही रह जाता है लेकिन वह निगाह उसे नसीब नहीं होती. आज इंसान पैसों के पीछे भाग रहा है, लेकिन पैसों से मन की शांति, प्यार तो नहीं खरीदा जा सकता.
एक बच्चे को जब मां की कोख की गरमी चाहिए तब उसे बोतल और पालना मिलता है, जब वह मां का हाथ पकड़ कर चलना चाहता है, अपनी तोतली आवाज में दुनियाभर के प्रश्न पूछ कर अपनी जिज्ञासा शांत करना चाहता है, तब उसे आया के हाथों में सौंप दिया जाता है या महानगरों में खुले के्रचों में, जहां उस का बचपन, उस की भावनाएं, उमंगें कुचल कर रह जाती हैं. वह एकाकीपन से इतना घबरा उठता है कि अकेले रहने मात्र से सिहर उठता है.