लेखक-श्रीप्रकाश श्रीवास्तव

जेठ का महीना था. गरम लू के थपेड़ों ने आम लोगों का जीना मुहाल कर दिया था. ऐन दोपहर के वक्त लोग तभी घर से निकलते जब उन्हें जरूरत होती वरना अपने घर में बंद रहते. यही वक्त था जब 4 लोग सुनंदा के घर में घुसे. सुनंदा पीछे के कमरे में लेटी थीं. जब तक किसी की आहट पर उठतीं तब तक वे चारों कमरे में घुस आए. एक ने उन के पैर दबाए तो दूसरे ने हाथ. बाकी दोनों ने मुंह तकिए से दबा कर बेरहमी के साथ सुनंदा का गला रेत दिया. वे छटपटा भी न सकीं.

जब चारों आश्वस्त हो गए कि सुनंदा जिंदा नहीं रहीं तो इत्मीनान से अपने हाथ धोए. कपड़ों पर लगे खून के छींटे साफ किए. फ्रिज खोल कर मिठाइयां खाईं. पानी पीया और निकल गए. महल्ले में दोपहर का सन्नाटा पसरा हुआ था. इसलिए किसी को कुछ पता भी न चला.

हमेशा की तरह शाम को पारस यादव दूध ले कर आया. फाटक खोल कर अंदर घुसा, आवाज दी. कोई जवाब न पा कर बैठक में घुस गया. सुनंदा अमूमन बैठक में रहती थीं. जब वे वहां न मिलीं तो ‘दीदी, दीदी’ कहते इधरउधर देखते हुए बैडरूम में घुस गया. सामने का दृश्य देख कर वह बुरी तरह से घबरा गया. भाग कर बाहर आया. एक बार सोचा कि चिल्ला कर सब को बता दे, परंतु ऐसा न कर सका. शहर में रहते उसे इतनी समझ आ गई थी कि बिना वजह लफड़े में नहीं फंसना चाहिए. वह उलटेपांव घर लौट आया.

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इस हादसे की खबर उस ने अपनी बीवी तक को न दी. रहरह कर सुनंदा का विकृत चेहरा उस के सामने तैर जाता तो वह डर से सिहर जाता. रात भर वह सो न सका. उस के दिमाग में बारबार यही सवाल उठता कि आखिर 62 वर्ष की सुनंदा को इतनी बेरहमी से किस ने मारा? किस से उन की दुश्मनी हो सकती है? पिछले 40 साल से वह उन के घर में दूध दे रहा है. हिसाबकिताब की पक्की सुनंदा बेहद पाकसाफ महिला थीं. हां, थोड़ी तेज अवश्य थीं.

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