‘ऐ… इधर आ… कौन है तू? मैं तेरे बाप का नौकर हूं, जो तू ने मेरा नाम नहीं बोला. बताऊं क्या तुझे…’

5 सितंबर, 2016 को ये अल्फाज मध्य प्रदेश के मुरैना जिले की दिमनी सीट से बहुजन समाज पार्टी के विधायक बलवीर दंडोतिया ने मंच से इस्तेमाल किए, तो सनाका सा खिंच गया था कि ये विधायकजी अचानक इतने उखड़ क्यों गए? ‘शिक्षक दिवस’ मनाए जाने के दौरान गर्ल्स कालेज में छात्राओं को सरकार की तरफ से स्मार्टफोन बांटे जा रहे थे, तब मंच पर राज्य के उच्च शिक्षा मंत्री जयभान सिंह पवैया और खा- मंत्री रुस्तम सिंह भी मौजद थे. जलसे का संचालन कर रहे कालेज के प्रोफैसर जेके मिश्रा ने सकपका कर दोनों मंत्रियों की तरफ देखा, तो उन के चेहरों पर कोई तल्खी नहीं थी. उलटे बाद में जयभान सिंह पवैया ने कहा कि जनप्रतिनिधियों का नाम लेने से पहले उन्हें माननीय, सम्मानीय या आदरणीय कहा जाना चाहिए, तो बात आईगई हो गई, लेकिन कई सवाल एकसाथ छोड़ गई कि आखिरकार ऐसे हालात बने क्यों?

एक विधायक द्वारा प्रोफैसर की बेइज्जती का राज्यभर के प्रोफैसरों ने विरोध किया, लेकिन नेताओं खासतौर से बसपा ने हवा नहीं दी, तो वजह साफ है कि यह एक बसपा विधायक से जुड़ा मामला था. बलवीर दंडोतिया का यह कहना अपनी जगह वाजिब था कि संचालन करने वाले प्रोफैसर ने उन का नाम नहीं लिया, उन्हें न्योता दे कर बुलाया है, तो उन की बेइज्जती क्यों की गई?

सदियों पुराना सवाल

दरअसल, मुरैना के इस वाकिए में भी राजनीति कम जातिगत भेदभाव ज्यादा है, जिस के तहत एक विधायक को महज बसपा का होने के नाते जानबूझ कर सवर्णों के बराबर इज्जत नहीं दी जाती.

देश में कहीं भी देख लें, दलितों की एक आदत सी पड़ी हुई है कि वे ऊंची जाति वालों को अभी भी हुजूर, माईबाप, अन्नदाता, साहब या मालिक कह कर ही बुलाते हैं.

यह आदत पीढ़ी दर पीढ़ी दलित तबके के लोग गुलामी की तरह ढो रहे हैं, तो वजह साफ है कि उन में अपने नीची जाति होने का जज्बा कूटकूट कर भरा हुआ है. दूसरे, दबंगों का दबदबा अभी भी ज्यों का त्यों है. शहरों में थोड़ेबहुत हालात बदले हैं, पर वहां यह दिमागी गुलामी की सोच दूसरे तरीके से देखने में आ ही जाती है.

क्यों दलित ऊंचे तबके वालों को इज्जत से बुलाए जाने के लिए मजबूर हैं? इस सवाल का कोई एक नहीं, बल्कि सैकड़ों जवाब हैं. सार यही निकलता है कि दलित अभी भी दलित है. उस से इज्जत करवाना और उस की बेइज्जती करना 2 अलगअलग बातें हैं.

‘दरअसल, यह दिमागी गुलामी है…’ बहुजन संघर्ष दल के अध्यक्ष फूलसिंह बरैया बताते हैं कि दलित अगर ऊंची जाति वालों की जीहुजूरी नहीं करता, तो उसे तरहतरह से इतना तंग कर दिया जाता है कि वह जिंदगीभर किसी पंडित या ठाकुर को उस का नाम ले कर नहीं बुला पाता. उलटे पांय लागूं, पंडितजी या प्रणाम ठाकुर साहब ही कहता रहता है यानी दबंगों के जुल्मोसितम से बचने के लिए वह इज्जतदार लफ्जों से ऊंची जाति वालों को पुकारने को मजबूर रहता है.

दलित संघ, सोहागपुर के एक कार्यकर्ता रतन उमरे का कहना है कि ऐसे हालात जानबूझ कर बनाए गए थे, जिन्हें आज भी बरकरार रखा गया है. वजह, छोटी जाति वालों के दिलोदिमाग में दहशत और गुलामी की आदत बनी रहे. आज तक किसी इलाके में सुनने को नहीं आया कि किसी दलित ने ऊंची जाति वाले किसी शख्स को उस का नाम ले कर बुलाया हो.

हालांकि रतन उमरे दलितों को भी इस का जिम्मेदार यह कहते हुए मानते

हैं कि अब लोकतंत्र है और दलित किसी को साहब, हुजूर, भाई साहब, हुकुम, अन्नदाता या मालिक कहने के लिए कानूनन मजबूर नहीं है, लेकिन सामाजिक तौर पर कोई खास बदलाव देखने में नहीं आ रहे हैं.

दूसरी बात यह है कि तालीम हासिल करने और सरकारी नौकरियों में आने के बाद भी दलितों में उम्मीद और जरूरत के मुताबिक आत्मविश्वास नहीं आ पाया है, क्योंकि बारबार तरहतरह से धर्म और उस के उसूलों का हवाला दे कर उन्हें यह एहसास कराया जाता है कि तुम छोटी जाति के हो, जो ऊंची जाति वालों की सेवा और जीहुजूरी करने के लिए पैदा हुए थे. अगर ये उसूल तोड़े, तो तुम्हारा लोक तो दबंग बिगाड़ेंगे ही, परलोक भी भगवान बिगाड़ देंगे.

पहले यह एहसास लतिया कर कराया जाता था, तो अब बराबरी का ढिंढोरा पीट कर कराया जाता है.

इस के उलट दलितों को जानबूझ कर उन की जाति के हिसाब से पुकारा जाना आम है. इस पर हजार में से एक दलित कानून और संविधान का हवाला दे कर एतराज जताता है, लेकिन उस का असर सिस्टम या समाज पर नहीं पड़ता.

हरिजन ऐक्ट के तहत मामला दर्ज जरूर होता है, लेकिन बाद में उस का क्या होता है, यह किसी को पता नहीं चलता, क्योंकि 95 फीसदी मामलों में सुलह हो जाती है और इस बाबत  दलितों पर चौतरफा दबाव बनाया जाता है, जिस से वे घबरा जाते हैं.

भोपाल के एक पटवारी की मानें, तो वे कायस्थ हैं और ऊंची जाति के हैं. एक दफा दलित तबके के एक तहसीलदार उन के घर आए, तो चायनाश्ता करने में ऐसे हिचक रहे थे मानो किसी का कत्ल कर रहे हों.

ये पटवारी साहब कहते हैं, ‘‘मैं ने तो अपनी तरफ से अपने अफसर का पूरी तरह ध्यान रखा. उन्हें दूसरों के बराबर इज्जत दी और पूछपरख की, लेकिन वही अपनी जाति की हीनभावना को ले कर सिकुड़े जा रहे थे, तो मैं क्या करता?’’

फिर ढकोसला क्यों

केंद्र की सत्ता में बैठी भाजपा का अब देश के ज्यादातर राज्यों पर कब्जा है, जो इन दिनों दलित हिमायती होने का ढिंढोरा पीटने में सब से आगे है. भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह दलितों के घर जा कर खाना खा रहे हैं, उन के साथ कुंभ में डुबकी लगा रहे हैं, पर दलितों की सोच बदलने के लिए कोई कुछ नहीं कर रहा.

ऐसा इसलिए कि हकीकत में धर्म और समाज को हांकने व चलाने वाले लोग दलितों से भेदभाव के मामले में किसी पार्टी के नहीं हैं और अपना दबदबा कायम रखने के लिए हर टोटका आजमाते हैं.

अमित शाह या राहुल गांधी के दलितों के घर जाने, सोने और खाने से दलितों में गैरत नहीं आने वाली, क्योंकि जरूरत जहां सुधार की है, वहां कोई पहल नहीं हो रही है.

कभी किसी पार्टी के नेता ने इस बाबत नहीं सोचा कि समाज की खासतौर से गांवदेहातों की हालत अब भी पुराने जमाने की हिंदी फिल्मों सरीखी है. इन में दलित ऊंची जाति वालों की ड्यौढ़ी पर उकड़ू ही बैठता है. उन के यहां उन्हें पानी को भी कोई नहीं पूछता और जब भी दलित सवर्ण से कुछ कहता है, तो सब से पहला लफ्ज हुजूर माईबाप, अन्नदाता या मालिक वगैरह ही होता है.

दिल्ली की जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के छात्र नेता कन्हैया कुमार और गुजरात के ऊना में दलितों की गैरत की लड़ाई लड़ रहे जिग्नेश मेवाणी जैसे नौजवान इस तरफ पहल जरूर कर रहे हैं, पर उन का भी दायरा सिमटता जा रहा है.

दरअसल, ये नेता शहरों में बराबरी की लड़ाई लड़ रहे हैं, जबकि जरूरत देहातों में लड़ाई लड़ने की है और लड़ाई का यह मतलब नहीं कि लाठियां चलें, सिर फूटें, बल्कि यह है कि दलितों को चेताया जाए कि वे किसी के गुलाम या सेवक नहीं हैं, बल्कि एक आजाद देश के बाशिंदे हैं, जिन्हें संविधान ने बराबरी का दर्जा दिया हुआ है.

दरअसल, दलितों से लफ्जों का भेदभाव स्कूल से ही शुरू हो जाता है, सवर्णों के बच्चे दलित बच्चों के लिए उन्हीं जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल करते हैं, जो उन्हें घर से सीखने को मिलते हैं यानी सवर्णों में जाति के लिहाज से बड़ा होने की ठसक बचपन से ही भर दी जाती है और दलितों को भी बचपन से ही समझ आ जाता है कि अगर जूतों की मार और बेइज्जती से बचना है, तो ऊंची जाति वालों को साहबमालिक वगैरह कहते रहो, नहीं तो इस का खमियाजा कब किस शक्ल में भुगतना पड़ जाए, इस की कोई गारंटी नहीं.

यह गारंटी कोई नेता या अफसर नहीं ले सकता, जो मंच पर ही इज्जत से न बुलाने पर झगड़ पड़ते हों और जिस का असर पूरे राज्य पर पड़ता हो.

भोपाल के एक सरकारी कालेज के एक दलित प्रोफैसर की मानें, तो यह सच है कि दलितों के खानपान और रहनसहन में बदलाव आया है, पर बोलचाल के मामले में वे अभी भी सदियों पुरानी जगह खड़े हैं. यहां ऊंची जाति वाला उन के लिए आदरणीय और पूजनीय होता है, इस ओछी सोच से छुटकारा पाने के लिए तो खुद दलितों को पहल करनी पड़ेगी कि वे ऊंची जाति वालों को जीहुजूरी वाले संबोधनों से बुलाना बंद करें.

इस बारे में विदिशा के एक गांव के स्कूल में पढ़ाने वाले टीचर का कहना है कि आरक्षण के जरीए जिन दलित नौजवानों में गैरत आ रही है, वे जब गांव आते हैं, तो उन्हें कोई सवर्ण पूछता नहीं और कहा यह जाता है कि माया तेरे तीन नाम परशु, परसा, परशुराम यानी दलित, पिछड़ा और सवर्ण.

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