सरकार और राजनीतिबाजों के लाख वादों के बावजूद किसानों की हालत बद से बदतर होती जा रही है. किसान अपनी घटती आमदनी से गुस्से में हैं, वहीं उन्हें उन की उपज की वाजिब कीमत नहीं मिल पा रही है. सरकार जो न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करती है उस में भी नानुकर की जाती है. भ्रष्ट अफसर और नेता व मंडी के बिचौलिए मिल कर किसानों की जेब में उन की फसल की कीमत नहीं पहुंचने देते.

यहां तक कि फसल की उत्पादन लागत भी नहीं निकल पाती. यही वजह है कि आएदिन किसानों की खुदकुशी की घटनाएं हो रही हैं.

गुजरात के पटेल बहुल सौराष्ट्र में किसानों की हालत बहुत नाजुक है. यहां के पाटीदार किसान केवल आरक्षण को ले कर ही भारतीय जनता पार्टी की  सरकार से नाराज नहीं है, बल्कि फसल की वाजिब कीमत न मिल पाने से भी गुस्से में हैं.

प्रदेश में विधानसभा चुनावों के प्रचार में विकास का खूब शोरगुल हुआ पर 11 जिलों में फैले सौराष्ट्र के मूंगफली और कपास के किसान फसल की वाजिब कीमत न मिलने के चलते खासा नाराज हैं.

सौराष्ट्र में पटेल समुदाय के किसानों की काफी तादाद है. यहां पटेलों के पास सब से ज्यादा जमीन है. इन किसानों ने प्रदेश की भाजपा सरकार को चेतावनी दी है. इलाके के पटेल किसान शहरों में कारोबार करते हैं जबकि गांवों में इस समुदाय की मुख्य आमदनी खेती ही है. सरकारी नीतियों और वादाखिलाफी से गैरपटेल भी नाराज हैं.

सौराष्ट्र में कपास और मूंगफली

2 प्रमुख फसलें होती हैं. किसान इन फसलों की लागत के मुकाबले में घटती आमदनी की शिकायतें कर रहे हैं. इन फसलों की बोआई में जितना खर्च आता है उतनी कीमत वापस नहीं मिल पा रही है. सरकार ने कपास का न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रति 20 किलो का 900 रुपए तय किया है. मूंगफली किसानों के लिए भी यही मूल्य तय किया गया पर प्राइवेट बिचौलिए उन्हें प्रति 20 किलो के 500 से 600 रुपए ही देते हैं.

जूनागढ़ के अगरतेर गांव के मूंगफली किसान दिनेश पटेल कहते हैं, ‘‘मैं अक्तूबर महीने में सरकारी एजेंसियों को अपनी फसल बेचने गया था पर फसल उत्पादन की मूल लागत भी नहीं मिल पाई. भुगतान भी 20 से 50 दिन में मिलता है.’’

एक कपास व्यापारी प्रति 20 किलो कपास में 400 से 500 रुपए बचा सकता है. इस बार फसल अच्छी हुई है पर किसानों को भरोसा नहीं है कि उन्हें इस की अच्छी कीमत मिल पाएगी.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कपास पर 1500 रुपए न्यूनतम समर्थन मूल्य देने का वादा किया था. उधर कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी भी कह रहे हैं कि उन की पार्टी सत्ता में आई तो न्यूनतम समर्थन मूल्य किसानों को एडवांस में देंगे और किसानों का कर्ज माफ कर देंगे. पर किसानों को दोनों नेताओं के वादों पर भरोसा नहीं है.

न्यूनतम समर्थन मूल्य सरकार द्वारा विभिन्न उत्पादों पर तय किया जाता है. सरकार इन कृषि उत्पादों को खरीदती है तो किसानों को उसी न्यूनतम समर्थन मूल्य पर भुगतान किया जाता है. पर यह सिर्फ दिखावा है. कृषि मंडियों में दलालों और भ्रष्ट अफसरों की मिलीभगत का बोलबाला है.

गुजरात के 57 फीसदी लोग गांवों में रहते हैं और उन की आमदनी का मुख्य साधन खेती ही है. प्रदेश के तकरीबन 2 करोड़ मजदूर खेत मालिकों के ऊपर अपनी जिंदगी बसर कर रहे हैं. जब खेत मालिकों को ही फसल पर मुनाफा नहीं मिल पाएगा तो वे खेतों में काम करने वाले मजदूरों को मजदूरी कैसे चुका पाएंगे?

कपास किसानों के लिए पिछले 3 साल खराब गए हैं. साल 2015 में कम बारिश से फसल नहीं हुई. अगली बार कीड़े ने फसल बरबाद कर दी और इस बार बंपर फसल के बावजूद कम समर्थन मूल्य से किसानों को घाटा उठाना पड़ रहा है.

ये हालात केवल गुजरात में ही नहीं, तकरीबन हर प्रदेश में हैं. बुंदेलखंड, विदर्भ जैसे इलाकों के किसान भी इसी परेशानी से जूझ रहे हैं. ऐसे हालात के चलते न तो किसानों की तरक्की हो पा रही है, न गांवों की. इसी वजह से किसानों की खुदकुशी की घटनाओं में कमी नहीं हो पा रही है.

सरकार किसानों और गांवों की तरक्की चाहती है तो किसानों को अपनी फसल बेचने की आजादी देनी चाहिए. उन्हें मंडी के नियमकायदों के शिकंजे से मुक्त करा कर खुले में अपनी मरजी से फसल की वाजिब कीमत और मुनाफा वसूलने देना चाहिए.

किसान जब अपनी फसल खेत से ले कर चलता है तो उसे हर चौराहे पर दक्षिणा चढ़ानी पड़ती है. ट्रक का किराया, ट्रैफिक पुलिस को घूस, मंडी में बैठे बाबुओं और दलालों को भेंट चढ़ाने में ही किसान की जेब खाली हो जाती है. आखिर में उस के पल्ले कुछ नहीं बचता. सरकार क्या किसानों को मंडी और दलालों से मुक्त कराएगी? किसानों की तरक्की में ही गांवों की तरक्की है. जब तक किसानों का विकास नहीं हो पाएगा तब तक गांव भी पिछड़ते रहेंगे.

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