सुरभि अग्रवाल (बदला नाम) को साल 1990 में एक दलित नौजवान केदार (बदला नाम) से प्यार हो गया तो उस ने जातपांत, नातेरिश्तेदारी, घरपरिवार और समाज की परवाह न करते हुए केदार से शादी कर साबित कर दिया कि सच्चा प्यार वाकई ऊंचनीच नहीं देखता है.
लेकिन सुरभि यह भूल गई कि महज उस के देखने न देखने से कुछ नहीं होता, धर्मकानून और समाज कभी यह गवारा नहीं करता कि ऊंची जाति का कोई लड़का या लड़की छोटी जाति के लड़के या लड़की से शादी कर धर्म के बनाए नियमों को तोड़े. लिहाजा, ऐसे लोगों का पीछा शादी के बाद भी नहीं छोड़ा जाता.
शादी के बाद पति की जाति ही पत्नी की जाति हो जाती है इसलिए अकसर लड़कियां अपना सरनेम बदल कर पति का सरनेम अपना लेती हैं जो उन की नई पहचान बन चुका होता है.
केदार से शादी करने के बाद सुरभि ने बुलंदशहर के कलक्टर दफ्तर में पति की तरह अपने दलित होने का सर्टिफिकेट मांगा जो उन्हें दे भी दिया गया. इस सर्र्टिफिकेट की बदौलत सुरभि को सैंट्रल स्कूल में टीचर की नौकरी मिल गई.
अब चूंकि वे अनुसूचित जाति की हो चुकी थीं इसलिए उन्हें कोेटे के तहत प्रमोशन भी मिले और वे सैंट्रल स्कूल की वाइस प्रिंसिपल तक बन गईं.
सुरभि तो दुनिया की चालबाजियों से अनजान घरगृहस्थी में रम गई थीं लेकिन जलने वालों के कलेजे में ठंडक नहीं पड़ रही थी कि एक ऊंची जाति की लड़की दलित लड़के के साथ शादी कर धर्म और समाज के उसूल तोड़े.
उन्होंने स्कूल मैनेजमैंट से शिकायत कर दी कि सुरभि ने नाजायज तरीके से शैड्यूल कास्ट का सर्टिफिकेट हासिल किया है इसलिए वे नौकरी और प्रमोशन की हकदार नहीं हैं.
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