Right To Study: आज से कुछ साल पहले ‘औक्सफैम इंडिया’ नामक एक संस्था ने अपनी एक रिपोर्ट ‘सर्वाइवल औफ द रिचैस्ट : द इंडिया स्टोरी’ में एक चौंकाने वाली जानकारी दी थी कि देश की आधी यानी 50 फीसदी आबादी के पास भारत की टोटल वैल्थ (कुल संपत्ति) का सिर्फ 3 फीसदी है.

इस रिपोर्ट में आगे बताया गया था कि नवंबर, 2022 तक कोरोना महामारी शुरू होने के बाद से भारत में अरबपतियों ने अपनी संपत्ति में 121 फीसदी या 3,608 करोड़ रुपए प्रतिदिन की ग्रोथ देखी थी. दूसरी ओर साल 2021-22 में जीएसटी यानी गुड्स एंड सर्विस टैक्स में टोटल 14.83 लाख करोड़ रुपए का तकरीबन 64 फीसदी आधी आबादी से आया, वहीं जीएसटी का सिर्फ 3 फीसदी ही टौप 10 से मिला.

‘औक्सफैम इंडिया’ ने आगे बताया कि भारत में अरबपतियों की टोटल संख्या साल 2020 की संख्या 102 से बढ़ कर साल 2022 में 166 हो गई. भारत के 100 सब से अमीर लोगों की संयुक्त संपत्ति 660 अरब डौलर (54.12 लाख करोड़ रुपए) तक पहुंच गई. यह एक ऐसी राशि है जो 18 महीने से ज्यादा के केंद्रीय बजट को फंड दे सकती है.

मतलब, भारत की जो वंचित बहुजन आबादी है, वह चंद मुट्ठीभर अरबपतियों के चंगुल में बुरी तरह उल झी हुई है. एक अरबपति के उदाहरण से इस बात को सम झते हैं. गौतम अडाणी का नाम तो आप ने सुना ही होगा. ‘औक्सफैम इंडिया’ की इस रिपोर्ट में बताया गया है कि सिर्फ एक बिलियनेयर गौतम अडाणी को साल 2017 से साल 2021 के बीच मिले अनरियलाइज्ड गेन (इंवैसमैंट पर हो सकने वाला मुनाफा) पर एकमुश्त टैक्स से 1.79 लाख करोड़ रुपए जुटाए जा सकते हैं. इन पैसों से 50 लाख प्राइमरी स्कूल टीचरों को एक साल तक सैलरी दी जा सकती है.

अब उस बहुजन समाज के उस वंचित हिस्से की बात करते हैं, जो हर लिहाज से दबाया और सताया जाता है. पराए तो क्या उन्हें अपने भी कुछ नहीं सम झते हैं. इन के पल्ले तो टोटल वैल्थ का फीसदी के नाम पर बस झुन झुना ही बजता है, जो अब बजने के लायक भी नहीं बचा है.

ये हैं एससी, एसटी और मुसलिम समुदाय की वे लड़कियां जो सामाजिक, वैचारिक और धार्मिक नजरिए का हवाला दे कर विवेकशून्य कर दी गई हैं. इन के नाम पर सरकारी योजनाएं तो खूब बनती हैं, पर वे कागजी घोड़ों की तरह धरती के किस कोने में दौड़ती हैं, पता ही नहीं चलता. ‘पेपरलैस देश’ की डुगडुगी बजाने वालों के लिए वैसे भी कागजी घोड़ों की कोई वैल्यू नहीं है.

ऐसी लड़कियों की समस्याएं गिनाने लग जाएंगे, तो शब्द कम पड़ जाएंगे, पर चूंकि ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा देश की केंद्र सरकार ने बुलंद किया है, तो फिलहाल इन की पढ़ाईलिखाई पर ही बात करते हैं.

पर समस्या तो शुरू में ही खड़ी हो जाती है, जब पता चलता है कि चाहे कितना भी मन क्यों न हो, ऐसी लड़कियों का स्कूल जाना खुद कुआं खोद कर पानी पीने के समान ‘हरक्यूलियन टास्क’ है. पर माहौल को थोड़ा हलका करने के लिए बात एक ऐसी लड़की से शुरू करते हैं, जिस ने इस ‘हरक्यूलियन टास्क’ को अपनी कड़ी मेहनत से पूरा किया और अपने जैसी वंचित और शोषित लड़कियों को एक नई राह दिखाने का काम किया है.

इस का नाम है रोहिणी और इस ने अपने पहले ही अटैप्ट में जेईई मेन्स ऐग्जाम क्रैक किया. जेईई मेन्स 2024 ऐग्जाम में 73.8 फीसदी नंबर ला कर रोहिणी को नैशनल इंस्टीट्यूट औफ टैक्नोलौजी (एनआईटी) त्रिची में एडमिशन मिल गया और वह मेकैनिकल इंजीनियरिंग की स्टूडैंट है.

तमिलनाडु राज्य के आदिवासी समुदाय से इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने वाली रोहिणी पहली लड़की है. उस ने चिन्ना इलुपुर के सरकारी आदिवासी आवासीय विद्यालय से पढ़ाई की. वह अपने मातापिता के साथ चिन्ना इलुपुर गांव में रहती है. उस के पिता मथिया झागन केरल में मजदूर के तौर पर काम करते हैं, जबकि उन की मां वसंती चिन्ना इलुपुर में खेत मजदूर हैं.

आज की तारीख में हो सकता है कि इस परिवार के हालात थोड़े बदल गए हों और इस तरह की खबरें हमें खुशी तो बहुत देती हैं, पर जब पूरे समाज के हालात को खंगालते हैं, तो पता चलता है कि दिल्ली अभी बहुत दूर है.

अगर सिर्फ पढ़ाईलिखाई की बात करें, तो एससीएसटी और मुसलिम समुदाय की लड़कियों को बहुत सी वजहों से पढ़नेलिखने से दूर रखा जाता है. अगर वे पढ़ने चली भी जाती हैं, तो भी बहुत जल्दी उन का स्कूल छूट जाता है या छुड़ा दिया जाता है. इस की सब से आसान वजह यह दी जाती है कि उन में पढ़ने की ललक ही नहीं है.

पर क्या ऐसा ही है? मान लो कि इस समाज की बहुत सारी लड़कियां 5वीं जमात के बाद स्कूल छोड़ देती हैं, तब अमूमन उन की उम्र 10 से 12 साल तक होती है (कुछ मामलों में उम्र ज्यादा भी हो सकती है), तो क्या यह सम झ लिया जाए कि औसतन 10 साल का बच्चा यह फैसला ले सकता है कि उसे आगे नहीं पढ़ना है, क्योंकि पढ़ना उस के बस का रोग नहीं है?

अरे भई, इस उम्र के हर बच्चे से पूछोगे, तो ज्यादातर का यही जवाब होगा कि उन का पढ़ाईलिखाई में मन नहीं लगता है. तो क्या सब की पढ़ाई छुड़वा दी जाए? दरअसल, एससीएसटी और मुसलिम समुदाय की लड़कियों की पढ़ाई छोड़ने की सब से बड़ी वजह है उन के साथ जातिगत और धार्मिक भेदभाव का होना.

वे अपने परिवार में ही निम्न दर्जे की हैसियत रखती हैं, तो फिर ऊंची जातियों का तो कहना ही क्या.

पायल तड़वी याद है आप को? एक होनहार लड़की, जो डाक्टर बनने का सपना देख रही थी, ने इस वजह से अपनी जिंदगी खत्म कर ली थी, क्योंकि उसे जातिगत टिप्पणियों के जरीए मानसिक रूप से कुरेदा जाता था.

डाक्टर को ‘जान बचाने वाला’ कहा जाता है और जो इनसान किसी की जान बचाने का माद्दा रखता है, वह मानसिक रूप से खुद कितना मजबूत होगा, यह आसानी से समझा जा सकता है पर पायल तड़वी का इस तरह दुनिया से जाना यह जता देता है कि कुछ लोग अपनी जाति के दंभ में इतने मगरूर हो जाते हैं कि वे किसी को उस की जाति के नाम पर इतना ज्यादा तंग करते हैं कि वह अपनी जान देने पर आमादा हो जाएं.

पायल की मां आबेदा ने ‘फौरवर्ड प्रैस’ से हुई एक बातचीत में कहा था, ‘पायल पढ़ाई पूरी करने के बाद आदिवासी इलाको में जा कर काम करना चाहती थी. पायल हम सब का सहारा थी, मेरा ही नहीं हमारे पूरे आदिवासी समाज का. वह हमारे आदिवासी समाज की ऐसी पहली लड़की होती जो एमडी डाक्टर बनने वाली थी.

‘हमारा विश्वास था कि पायल हमारे समाज की कमियों को पूरा कर देगी, लेकिन हमारा सपना अधूरा ही रह गया. तीन सीनियर महिला डाक्टरों ने उस की रैगिंग की और उस को नीचा दिखाने के लिए जातिसूचक शब्दों का इस्तेमाल किया जिस से तंग आ कर उस ने आत्महत्या की.

‘मेरी बेटी बहुत होशियार लड़की थी. उस को 10वीं में 88 फीसदी मार्क्स मिले थे. उस ने बहुत मेहनत से मैडिकल की पढ़ाई की थी और बहुत कम समय में कई लोगों का इलाज भी किया था.

‘पायल का छोटा भाई जन्म से ही विकलांग है. उसे देख कर ही पायल को डाक्टर बनने की प्रेरणा मिली थी. लोगों की सेवा करना ही उन का उद्देश्य था.’

‘तू छोटी जात का हो कर मेरी बराबरी करेगा…’ अगड़ों की यही सोच एससीएसटी समाज को हमेशा बैकफुट पर ले जाती है. इतना ज्यादा पीछे की यह समाज पढ़ने के लिए स्कूल की दहलीज पार करने से भी डरता है. इन से पहले इन की परछाईं जाति की तख्ती अपने गले में लटकाए स्कूल में पहुंच जाती है. अगर कोई हिम्मत कर के स्कूल में दाखिला ले भी लेता है, तो वहां मिली दुत्कार उसे स्कूल छोड़ने पर मजबूर कर देती है.

चूंकि हम एससीएसटी और मुसलिम लड़कियों के स्कूल छोड़ने पर बात कर रहे हैं, तो ‘ह्यूमन राइट्स वाच’ की एक रिपोर्ट पर नजर डालते हैं, जिस के मुताबिक एससी बच्चों के साथ स्कूल में इस हद तक भेदभाव किया जाता है कि वे पढ़ाई छोड़ने पर मजबूर हो जाते हैं. एससी बच्चों के लिए प्राइमरी स्कूल छोड़ने की दर 51 फीसदी है, जबकि राष्ट्रीय औसत 37 फीसदी है. सब से ज्यादा प्रभावित किशोर लड़कियां हैं, जिन की स्कूल छोड़ने की दर 64 फीसदी है और अगर लड़की एससी, एसटी या मुसलिम है, तो यह दर और भी ज्यादा है.

‘मुसलिम मिरर’ की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि भारतीय मुसलिमों में कुल साक्षरता दर 79.5 फीसदी है, जो राष्ट्रीय औसत 80.9 फीसदी से बस थोड़ी कम है. फिर भी, केवल 77 फीसदी मुसलिम लड़कियां ही प्राइमरी एजूकेशन में नामांकित हैं और इस लैवल पर उन की स्कूल छोड़ने की दर 6.4 फीसदी राष्ट्रीय औसत 4.5 फीसदी से काफी ज्यादा है.

इस से भी ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि 18-23 साल की आयुवर्ग की केवल 5 फीसदी मुसलिम महिलाएं ही ऊंची तालीम हासिल करती हैं, जो नैशनल लैवल पर 8 फीसदी की तुलना में काफी कम है.

प्राइमरी स्कूलों में मुसलिम लड़कियों की संख्या 12.9 फीसदी है, जबकि कालेजों में यह महज 1.7 फीसदी है.

क्यों हैं ऐसे हालात

सवाल उठता है कि एससीएसटी और मुसलिम समुदाय की लड़कियां पढ़ाई लिखाई से दूर क्यों रहती हैं या धीरेधीरे होती जाती हैं? इस का जवाब समाज का वह ढांचा है जो आज भी लड़कियों को घरेलू कामों में झोंकने का काम करता है.

मुसलिम लड़कियों पर तो यह दबाव रहता है कि वे मदरसे में जा कर दीनी तालीम तो ले सकती हैं, पर मौडर्न स्टाइल की पढ़ाई से वे अपने धर्म से हट सकती हैं. फिर उन का कम उम्र में ब्याह कर देना भी उन की तालीम पर गलत असर डालता है.

अगर लड़की घर मे बड़ी है तो उसे अपने छोटे भाई बहनों को पालने की जिम्मेदारी भी रहती है. सब से बड़ी बात यह कि ‘वे पढ़ कर क्या ही कर लेंगी’ वाली सोच उन्हें पढ़ाईलिखाई से दूर रखती हैं.

इस सब में लड़की क्या चाहती है, उस के बारे में कोई दूरदूर तक कोई नहीं सोचता है. पढ़ाईलिखाई का मतलब यह नहीं है कि हम नौकरी लायक बनते हैं, बल्कि इस से हमारा दिमाग खुलता है. हम दुनिया को जाननेसम झने लगते हैं. अपनी बात कहने की हिम्मत आती है. हमें अच्छेबुरे की पहचान होती है.

हम परिवार, समाज, देश और धर्म की कुरीतियों पर बहस करने लायक बनते हैं. मोबाइल फोन पर रील देखने से दुनिया की सम झ नहीं आती है, बल्कि अच्छा पढ़ने से हम सही माने में लायक बनते हैं.

शुरुआत में हम ने बताया था कि देश पर चंद अमीर अरबपति कारोबारी राज करते हैं. हमें उन्हें कोसने से कुछ हासिल नहीं होगा, पर उन से सीख ले सकते हैं कि जो जिंदगी में रिस्क लेता है, वह कामयाबी पाने का हकदार बन जाता है.

एससीएसटी और मुसलिम समुदाय की लड़कियों को अपनी शुरुआती जिंदगी में पढ़ाई करने का रिस्क लेना होगा. रिस्क इसलिए कि पढ़ना ही कामयाब होने की पहली सीढ़ी है, जिस पर समाज क्या परिवार के लोग ही नहीं चढ़ने देते हैं.

लिहाजा, अपना आदर्श किसी ऐसे को बनाओ जो आप की उंगली पकड़ कर स्कूल ले जाए और जब तक आप कोई मुकाम हासिल न कर लें, तब तक उस आदर्श की उंगली मत छोड़ो. पढ़ाई का यह हक आप की जिंदगी बदल देगा, यह हमारा वादा है. Right To Study

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