गांवों में बहुत सारे लोगों को जातीय स्वाभिमान के नाम पर उन के पुश्तैनी पेशे से दूर कर दिया गया है. अपने पेशे से दूर हुए लोगोंके लिए रोजगार का कोई दूसरा रास्ता न मिलने से गांवों में बेकारी बढ़ गई है. वहां से रोजगार के लिए शहर आए ये लोग यहां के बढ़ते खर्च और अपनी कमाई के बीच बढ़ते फर्क के चलते गुजरबसर नहीं कर पा रहे हैं.

साल 1990 के बाद से ही देश की राजनीति में जाति और धर्म का दखल तेजी से बढ़ गया. इस के चलते वोट के लिए तरहतरह के लालच राजनीतिक दलों ने जनता को दिए. इन में सब से बड़ा लालच जातीय स्वाभिमान का था.

भारतीय समाज में कई ऐसे पेशे थे, जो जाति से जुड़े थे. कुछ पेशे मजबूरी वाले थे, तो कुछ कारीगरी की मिसाल भी थे.

राजनीतिक दलों ने जातीय स्वाभिमान के नाम पर इन धंधों को छोड़ने के लिए सामाजिक लैवल पर बदलाव शुरू कर दिया. इस से काफी हद तक समाज में बदलाव नजर आने लगा. सामाजिक जागरूकता के चलते ही  ऐसे धंधों से लोग अलग हो गए, जो जाति से जुड़े थे.

जातीय स्वाभिमान के जरीए राजनीतिक दलों ने समाज में चेतना तो जगा दी, पर जो लोग बेरोजगार हो गए, उन के लिए कोई रोजगार मुहैया नहीं कराया. ऐसे में अपने पेशेवर धंधे छोड़ने वाले ये लोग मजदूर बन कर रह गए.

छोटे छोटे वे धंधे, जो कभी गांव में रोजगार का जरीया होते थे, अब दूसरे कारोबारियों के पाले में चले गए. जो लोग अपना धंधा करते थे, वे अब कारोबारियों के यहां ठेके पर काम करने वाले मजदूर बन कर रह गए.

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