देश में विकास की गंगा ला देने के वादों के साथ 3 साल पहले आई राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार के विकास की बातें हवाहवाई साबित हो रही हैं. विकास के अलावा हिंदुत्व के बुनियादी मुद्दों समेत गैरजरूरी बातें सुर्खियों में जरूर छाई हुई हैं और सरकार की वाहवाही हो रही है. जनता और नेता आत्ममुग्ध दिखाई दे रहे हैं. गंभीर बात यह है कि मीडिया में भी विकास की सुर्खियां गायब हो रही हैं. अब न रोजगार की खबरें दिख रही हैं, न तरक्की की. हम अपने ही लोगों से नस्लीय लड़ाई लड़ रहे हैं.

चुनाव प्रचार के दौरान किए गए एक करोड़ रोजगारों के वादे पर कहीं गंभीरता नहीं दिखती. योजनाओं और कार्यक्रमों का जमीनी लैवल पर कोई असर नजर नहीं आ रहा है. ‘सब का साथ, सब का विकास’ महज खोखला नारा लग रहा है. गैरबराबरी बढ़ाने वाली सोच का बोलबाला बढ़ रहा है. नौजवान नौकरियों के लिए जूझ रहे हैं. किसानों की खुदकुशी के मामले रुक नहीं रहे हैं और सैनिक सीमा पर मर रहे हैं.

मई, 2014 में जब नरेंद्र मोदी की सरकार चुनी गई थी, तब केवल भारत में ही नहीं, बल्कि दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी इस सरकार से तमाम तरह के विकास को ले कर ठोस कदम उठाने की एक उम्मीद जगी थी, पर अब वह धुंधली नजर आ रही है. हालात ऐसे हैं कि बाजार ठप हैं. छोटी व मझोली कंपनियों में निराशा का माहौल बना हुआ है. कर्मचारियों में जोश नहीं है और तो और पड़ोसी देशों चीन, पाकिस्तान, नेपाल से संबंध तनावपूर्ण बनते जा रहे हैं. बेरोजगारी और महंगाई देश में अब बहस का मुद्दा ही नहीं रही हैं.

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