अमेरिका न जाने क्यों पश्चिम एशिया में क्रूर आतंकी संगठन इसलामिक स्टेट के खिलाफ तोपों, मिसाइलों, ड्रोनों का इस्तेमाल कर रहा है और क्यों इराकी, सीरियाई सैनिकों को मरवा रहा है. अमेरिका को आतंकियों के चंगुल में यमन में 18 महीने कैदी रहे पादरी टौम उजहन्नालिल की सुननी चाहिए जिन्होंने कहा कि क्रूर और हत्यारे आतंकियों ने उन्हें जिंदा रखा.
विधर्मी होते हुए भी अगर उन्हें जिंदा रखा गया, तो पादरी की सोच के अनुसार यह लोगों की प्रार्थनाओं के कारण हुआ जिन्होंने अपहर्ताओं का हृदय परिवर्तन कर दिया. इसी कारण उन्हें शारीरिक कष्ट नहीं दिया गया और न ही रमजान के महीने में भूखा रखा गया. वे अगर छूटे तो ईश्वर के कारण. भारत, अमेरिका, वेटिकन के दूतावासों ने तो कुछ किया ही नहीं उन्हें छुड़ाने में और उन्हें तो केवल ईसा मसीह को धन्यवाद देना है.
इसीलिए औपचारिकता निभाने के लिए वे रोम में पोप के विशाल महल वैटिकन में भी रुके और अपने मूल देश भारत में आ कर विदेश मंत्री सुषमा स्वराज से भी मिले. पर उन्होंने शायद उन दोनों से कहा होगा कि आतंकी पागलों से निबटने के लिए पूजापाठ और प्रार्थनाओं की जरूरत है, टैंकों या हवाई जहाजों की नहीं.
महीनों अपहर्ताओं की कारगुजारी देखने के बाद भी कोई मानव स्वभाव को न समझ पाए, यह तभी संभव है जब दिमाग पर धार्मिक परत इतनी मोटी पड़ी हो कि सच व तर्क की बात वह भेद ही न सके. प्रार्थनाओं से काम चलता होता तो दुनिया में कहीं अनाचार, अत्याचार, भूख, बीमारी, अपराध न होता. मारना, लूटना हो सकता है, प्रकृति की देन हो.
समाज ने और सभ्यता ने मार कर खाने को नियंत्रित किया है पर दूसरी ओर धर्म ने दूसरे धर्म के लोगों पर अत्याचार करने का लाइसैंस दे दिया और उस लाइसैंस को पाने के लिए अपने धर्म की हर गलत बात और मान्यता को बिना सवाल उठाए मानने की शर्त लगा दी. इन्हीं मान्यताओं में से ही एक है कि जब कुछ अच्छा हो जाए, तो धन्यवाद धर्म के बजाय ईश्वर को दें, उस व्यक्ति या संस्था को नहीं, जिस ने जीवन सुखद बनाया.