केरल की अखिला का मुसलिम युवक शफीन जहां से प्रेम विवाह और फिर अखिला से धर्म बदल कर हादिया बन जाना हिंदू धर्म के रखवालों को धर्म के नाम पर घरघर में घुस कर पैट्रोल डालने का काम कर गया है. इस प्रेम और विवाह को लव जिहाद का नाम दे कर उन्होंने इतना होहल्ला कर डाला कि केरल उच्च न्यायालय और सुप्रीम कोर्ट को फैसला करना पड़ा है कि इन दोनों का क्या किया जाए.
लव जिहाद एक बेहूदी बात है और शादियां केवल पंडेमौलवियों के हाथों अपने धर्म या जाति वालों के साथ ही हो सकती हैं के रिवाजों को कायम रखने के लिए की जा रही हैं. गांवगांव में हल्ला मचाया जा रहा है कि मुसलिम युवक हिंदू लड़कियों को प्रेम के जाल में फंसा कर मुसलमानों की गिनती बढ़ाने में लगे हैं ताकि एक दिन भारत मुसलमानों का देश हो जाए. 2002 के बाद नरेंद्र मोदी खुद चुनाव प्रचार में गुजरात में हिसाब गिनाते घूमे थे कि मुसलिम 5 से 25 हो रहे हैं ताकि उन की गिनती बढ़ जाए और वे सत्ता पर कब्जा कर सकें.
जवानों के दिलों पर राज करने वाला धर्म कोई नहीं होता पर सारे देश में धर्म, जाति, गोत्र को ले कर चौधराहट दिखाने वाले घरघर में घुस कर जांचपरख रहे हैं कि कहीं कोई सैकड़ों साल पुराने रीतिरिवाजों को छोड़ कर शादी तो नहीं कर रहा. अखबार के शादी के विज्ञापन तो जातियों के खानों में बंटे होते ही हैं, इंटरनैट की साइटों पर भी आप को अपनी जाति, धर्म, गोत्र बताना होता है तभी कोई साथी मिलता है.
इस मामले में पूछताछ कर के भी सुप्रीम कोर्ट ने एक तरह से युवाओं के हक को कम किया है. उन्होंने हादिया को पढ़ने की आजादी दी है पर उस पर देखरेख की जो जिम्मेदारी डीन पर डाली है उस से साफ है कि 24 साला हादिया या अखिला अब सरकारी मेहमान है, जेल हो या जेल से बाहर.
यह मामला तो हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को कब का दरवाजे से बाहर फेंक देना चाहिए था कि जब लड़की बालिग है तो उसे हक है कि वह किस से शादी करे और किस धर्म में रहे. धर्म को मानव इच्छा से ऊपर रखना ही गलत है. यही कट्टरपंथियों को ताकत देता है. यह संदेशा तो चला गया ही कि दूसरे धर्म वाले से प्रेम और शादी करोगे तो हल्ला मचेगा और जब तक पैसा और साधन न हों विवाह टिक न पाएगा.
दोनों अदालतों को तो उन को जेल भेजना चाहिए था जो शादी पर रोकटोक लगा रहे थे. चाहे वह लड़की का पिता अशोकन ही क्यों न हो जो जादूटोने और बहकाने के बहाने लगा रहा था. कट्टरपंथियों को किसी भी तरह की छूट नहीं मिलनी चाहिए, बाल बराबर भी नहीं, कम से कम अदालतों से तो नहीं. जब एक शादी के मामले में श्याम दीवान, कपिल सिब्बल और इंदिरा जयसिंह जैसे भारीभरकम वकीलों की जरूरत पड़े तो यह आजाद भारत की निशानी नहीं है. यह तो सरकार, अदालतों, पुलिस, कट्टरों का साफ दखल है, यह उन की प्रेम पर जीत है. सुप्रीम कोर्ट ने जो किया ठीक है पर उस का गलत संदेश भी जाता है.