सर्वोच्च न्यायालय ने अप्रैल में अपने एक फैसले में केरल के डायरैक्टर जनरल औफ पुलिस को 2 साल से पहले मुख्यमंत्री का विश्वास खो जाने के कारण हटाए जाने पर एतराज जताया है और उन्हें फिर से उस पद पर तैनात किए जाने की बात कही है. मुख्यमंत्री का तर्क था कि 2 मामलों में पुलिस की असफलता के कारण जनता में अधिकारी के खिलाफ रोष व असंतुष्टि थी, सो, उसे हटाया जाना प्रशासनिक कारणों से जरूरी था. सरकार का कहना था कि पुलिस अधिकारियों पर मुख्यमंत्री का विश्वास होना जरूरी है और उस विश्वास को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती.

पुलिस अधिकारी टी पी सेन कुमार पद से हटाए जाने के बाद पहले प्रशासनिक ट्रिब्यूनल में गए थे. वहां उन की याचिका रद हो गई तो वे उच्च न्यायालय गए थे जिस की अपील फिर सर्वोच्च न्यायालय में की गई थी. सर्वोच्च न्यायालय का मानना है कि पुलिस की स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए जरूरी है कि पुलिस बिना डरे कानून को लागू करे और वह इस दौरान ज्यादती कर रहे राजनीतिक हुक्मरानों की भी चिंता न करे. यह कुशल प्रशासन के लिए जरूरी है.

जिस देश में पुलिस अधिकारियों को सत्ताधारी राजनेता अपना चाटुकार मानते हैं वहां इस प्रकार का फैसला ठीक है और संतोष देने वाला है. देशभर में नेताओं और पुलिस अधिकारियों के बीच सांठगांठ रहती है. ऊपरी कमाई में नेताओं, अफसरों और पुलिस में चोरचोर मौसेरे भाई सा संबंध रहता है.

नेता लोग पुलिस का इस्तेमाल विपक्षी पार्टियों के खिलाफ भी करते हैं और अपने ही दल में अपनों के खिलाफ भी. नेताओं के चारों ओर जो भीड़ जमा रहती है उस में से आधे लोग तो पुलिस से अपना काम कराने की दुहाई ले कर आते हैं. यदि कोई पुलिस अधिकारी सत्ताधारी पार्टी के कार्यकर्ताओं के हिसाब से न चले, तो मुख्यमंत्री के पास शिकायतों का ढेर लग जाता है.

इन शिकायतों को ही जनता की असंतुष्टि कहा जाता है और सर्वोच्च न्यायालय पुलिस अधिकारियों को राजनीतिज्ञों के कहर से बचाने की कोशिश कर रहा है.

टी पी सेन कुमार के बारे में तो सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दे दिया है पर वह अधिकारी अपना आदर क्या प्रशासन से पा सकेगा, इस में शक है. उसे खरदिमाग ही माना जाएगा और फालतू के कामों में ही लगाया जाएगा.

दूसरा पक्ष, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने नहीं देखा है, वह यह है कि पुलिस अधिकारियों के निक्कमेपन, भेदभाव, रिश्वतखोरी, हिंसा, दुर्व्यवहार के खिलाफ जनता, जनप्रतिनिधियों और मातहतों के पास क्या उपाय है? इन बातों को सुबूतों से सिद्ध नहीं किया जा सकता. दरअसल, जो ताकत रखता है उस के खिलाफ मौखिक शिकायत की जा सकती है, लिखित नहीं.

मुख्यमंत्री को ऐसे अधिकारियों के खिलाफ मिली शिकायतों पर बिना जांच किए, बिना कारण बताओ नोटिस दिए, फैसला लेना होगा. उस का अधिकार अगर छीन लिया गया है तो ऐसा फोरम होना चाहिए जहां अपना नाम छिपा कर शिकायतें की जा सकें, हालांकि ऐसा फोरम बनाना तकरीबन असंभव है. यह फोरम जनप्रतिनिधि ही हो सकते हैं और उन के पर कतरने का अर्थ है पुलिस को निरंकुशता का लाइसैंस देना. क्या सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाने से पहले परिणामों पर भी विचार किया?

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