
स्वामी गणेशानंद खड़ाऊं पहने खटाकखटाक करते आगे बढ़ते जा रहे थे. उन के पीछे उन के भक्तों की भीड़ चल रही थी. दाएंबाएं उन के शिष्य शिवानंद और निगमानंद अपने चिमटे खड़खड़ाते हुए हल में जुते मरियल बैलों की तरह चल रहे थे. उन्हें पता था कि भीड़ स्वामीजी का अनुसरण कर रही है, उन का नहीं.
शिवानंद ने भभूत में अटे अपने बालों को खुजलाया और पीछे मुड़ कर एक बार भीड़ को देखा. उस की खोजपूर्ण आंखें कुछ ढूंढ़ रही थीं. निगमानंद ने आंख मिचका कर शिवा को संकेत किया. वह पीले दांत दिखा कर मुसकरा पड़ा. इस का अर्थ था कि वह उस का आशय समझ गया.
भीड़ जलाशय के निकट पहुंच गई थी. सब स्वामीजी की जयजयकार कर रहे थे. शिवा और निगम दूसरे किनारे की ओर, जहां औरतें नहा रही थीं, आ कर बैठ गए.
शिवा बोला, ‘‘गुरु, ऐसे क्यों बैठे हो? कुछ हो जाए.’’
‘‘क्या हो जाए बे, उल्लू के चरखे? फिल्मी नाच हो जाए या कालिज का रोमांस हो जाए?’’ निगम गुर्राया.
‘‘अरे, कैसी बातें करता है? देखता नहीं, नाचने वाली छोकरी गोता लगा रही है. गोलमटोल चेहरा, बाढ़ की तरह चढ़ती जवानी. क्या खूबसूरती है. खैर, छोड़ो इन बातों को. बूटी तैयार करो. एकएक लोटा चढ़ाएंगे. राम कसम, इस के नशे में हर चीज, हर औरत मुंहजोर घोड़े की तरह हावी हो जाती है.’’
निगम ने आंखों से कीचड़ पोंछ कर स्वामीजी की तरफ ताका. वह मटमैले पानी में एक टांग पर खड़े कुछ गुनगुना रहे थे. वह चिमटे को धरती में ठोंक कर बोला, ‘‘स्वामीजी जब से बूटी चढ़ाने लगे हैं, उसी दिन से भगतिनियों की गिनती बढ़ने लगी है. कहते हैं भंगेड़ी के चक्कर में औरतें ज्यादा आती हैं.’’
एकाएक दोनों चुप हो गए. गुरुजी सब भक्तों को आशीर्वाद दे रहे थे. निगम चुपचाप बूटी तैयार कर रहा था. बारीबारी से दोनों ने एकएक लोटा गटक लिया. भक्तगण पांव छूते, स्वामीजी भभूत का तिलक लगाते और आशीर्वाद देते. फिर उमा की बारी आई. ऐसा सलोना, कुंआरा सौंदर्य सामने देख कर स्वामीजी ठगे से रह गए. उमा ने चरण छुए तो स्वामीजी ने दोनों हाथों से उस का मुखड़ा ऊपर उठा दिया. तिलक लगाते समय उन का हाथ गालों से हो कर फिसलता हुआ उमा के कंधे पर जा टिका.
वह बोले, ‘‘बेटी, तुझ में माधव का वास है. अभीअभी भगवान ने मेरे दिल में आ कर कहा है. तेरी आत्मा माधव की प्यासी है. मुझे सपने में रात जो देवी दिखाई दी उस का रूप तेरी ही तरह था.
‘‘उस ने मुझे नींद से जगा कर कहा, गणेशानंद, यह मेरा गांव है. मैं यहां प्रकट होना चाहती हूं. मैं अपने गांव को स्वर्ग बनाना चाहती हूं. तुम जहां पर लेटे हुए हो, यहां से सौ कदम पूरब को चलो. ऊपर से मिट्टी हटाओ. वहां तुम मुझे देखोगे. उस जगह एक मंदिर बनवाना. यह काम तुम्हें ही करना है.
‘‘मैं देवी के चरणों पर गिर पड़ा. मंदिर बनवाने का वचन दे दिया. वह स्थान मैं ने तुम सब के सामने खुदवाया है. अगर तुम लोगों ने मिलजुल कर मंदिर न बनवाया तो न जाने गांव पर कैसी विपदा आ पड़े.’’
उमा चुप बैठी थी. उस की मां की आंखों में आनंद के आंसू चमक रहे थे. सब गांव वालों ने स्वामीजी को सहायता देने का पूरा विश्वास दिलाया. उमा की मां स्वामीजी के चरणों को छू कर बोली, ‘‘महात्माजी, मेरे पल्ले कुछ नहीं है. बस, यह छोकरी है, उमा. मैं क्या दे सकूंगी.’’
‘‘चिंता क्यों करती हो उमा की मां, उमा तुम्हारे घर की ही नहीं, पूरे गांव की देवी है. मैं मंदिर की धूपबाती का काम इसे ही सौंपना चाहता हूं. अगर इस ने भगवान को खुश कर लिया तो तुम्हें मनचाही मुराद मिल जाएगी.’’
‘‘स्वामीजी, मुझे कुछ नहीं चाहिए. इस नासपीटी का बापू घर लौट आए, यही बहुत है. मुझे धनदौलत की इच्छा नहीं है,’’ उमा की मां उदास हो कर बोली.
‘‘घबरा मत. तेरी मनसा जल्दी पूरी हो जाएगी. उमा को हरेक काम में हमारे साथ रहना पड़ेगा. कल भंडारा करेंगे और मंदिर की नींव रखेंगे.’’
अगले दिन भंडारा हुआ. गांव के लोगों ने 10 हजार रुपए इकट्ठे कर के गणेशानंद को भेंट कर दिए. आसपास के गांव वाले भी आए. सूर्यास्त तक बहुत गहमागहमी रही. गणेशानंद ऊंची चौकी पर बैठे थे. शिवानंद और निगमानंद भंडारे की देखरेख के लिए खड़े थे. प्रबंध उमा के हाथ में था. गांव वालों की वाहवाही हो उठी.
रात को खापी कर सब स्वामीजी की धूनी के पास इकट्ठे हो गए. उमा पास ही बैठी थी. उस ने चेहरे पर हलकी सी भभूत लगा रखी थी. भभूत के प्रभाव से वह और अधिक प्यारी लग रही थी. दहकते कोयलों की चमक में उस का मुखमंडल पलाश के फूल सा लग रहा था.
कीर्तन शुरू हुआ. शिवानंद ने करताल संभाली, निगमानंद ने चिमटा. स्वामीजी गाते, फिर उमा दोहराती और तब सब के स्वर में स्वर मिला कर दोनों शिष्य गाते. आधी रात बीत गई. लोग जादू में बंधे से बैठे रहे. अंत में मीरा का पद गाया गया. उस पद की ‘तेरे कारण जोगन हूंगी, करवट लूंगी कासी’ पंक्ति वातावरण में काफी देर तक तैरती रही. पूरी सभा भावविभोर हो उठी. निगम और शिवा उमा के पास बैठने से ही खुश थे.
शांतिपाठ के बाद सभी अपनेअपने घर चले गए. वहां रह गई उमा और उस की मां, जो गणेशानंद के पांव दबा रही थीं. तनिक हट कर अंधेरे में चुपचाप बैठा एक व्यक्ति सब बातों का जायजा ले रहा था. वह था अमरेश.
‘‘कल मैं तीर्थभ्रमण करने जाऊंगा. उमा, तुम भी साथ चलना. हृदय पवित्र हो जाएगा. आंखें देवीदेवताओं के
दर्शन कर के निहाल हो जाएंगी,’’ स्वामीजी उमा के चेहरे पर दृष्टि गड़ा कर बोले.
शिवा ने सुल्फे पर कोयले रख
कर कश लिया और फिर स्वामीजी की तरफ बढ़ा दिया. गणेशानंद ने पूरा दम लगाया. सुल्फे की लपट निकली, जिस में उमा का चेहरा उसे सुर्ख दिखाई दिया.
अमरेश अधीर हो उठा. उमा उस की सगी बहन नहीं थी, पर वह उसे बेहद चाहता था. किसी भी कार्य से पराएपन का आभास नहीं होने देता था. उसी की कृपा से वह चिट्ठीपत्री पढ़ने लायक हो गई. उसे उमा के कारण गांव वालों का कोपभाजन भी बनना पड़ा था. वह अपने को संभाल नहीं सका. वहीं बैठेबैठे बोला, ‘‘उमा, इधर आ.’’
उमा इस अप्रत्याशित स्वर से चौंक उठी. वह अमरेश के पास आ कर खड़ी हो गई, ‘‘क्या तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं है, जो इस तरह पहरा दे रहे हो?’’
‘‘विश्वास था, अब नहीं रहा,’’ अमरेश के स्वर में आक्रोश था.
‘‘क्यों, अब क्या हो गया?’’
‘‘मैं ने कुछ गलत नहीं कहा. इस भंगेड़ी के चक्कर में तेरी अक्ल मारी गई है. गांव वाले सब जा चुके हैं, तू फिर भी यहां डटी हुई है. अगर तेरी आंख में जरा भी शरम है तो यहां से चलती बन,’’ अमरेश अधिकारपूर्वक बोला.
विवाद सुन कर स्वामीजी और उमा की मां भी उन के पास आ पहुंचे. उमा स्वामीजी की नजरों में अपने को बहुत ऊंचा समझ रही थी. इसीलिए उस ने स्वयं को अपमानित महसूस किया.
वह तैश में आ कर बोली, ‘‘भैया, तुम हद से बाहर पांव रख रहे हो. मैं किसी के चक्कर में नहीं आई. तुम ईश्वर को मानते तो इस तरह की बातें न करते. जिस बात को तुम समझते नहीं हो, उस में टांग न अड़ाओ.’’
‘‘तुम मुझे गलत समझ रही हो. अगर तुम्हें अक्ल होती तो इन सुल्फा पीने वालों के ढोंग में न फंसतीं.’’
‘‘क्या भौंकता है बे बदजात,’’ गणेशानंद ने उस की ओर चिमटा घुमाया.
‘‘जरा होश में बातचीत करो. ऐसे पहुंचे हुए महात्मा होते तो घर बैठे पूजे जाते. यहां दरदर मारे न फिरते. ज्यादा चबरचबर किया तो मारतेमारते भुरकस बना दूंगा,’’ अमरेश ने उमा को बांह पकड़ कर खींचा, ‘‘भला इसी में है कि इस समय यहां से चलती बनो.’’
उमा ने उस का हाथ झटक दिया. वह गिरतेगिरते बचा. संभलने पर उस ने उमा के गाल पर थप्पड़ जमा दिया.
उमा की मां भभक पड़ी, ‘‘लुच्चे कहीं के, चला जा इसी वक्त मेरे आगे से, नहीं तो तेरा खून पी जाऊंगी,’’ इतना कह कर वह उमा को ले कर घर चल पड़ी.
उमा ने आग्नेय नेत्रों से अमरेश की ओर देखा. वह गुस्से में होंठ चबा कर बोली, ‘‘अमरेश, मेरे लिए तुम मर गए. तुम ने अपनी औकात पर ध्यान नहीं दिया. भला इसी में है कि मुझे अपनी घिनौनी सूरत न दिखाना.’’
अमरेश का चेहरा लटक गया. वह ठगा सा वहीं खड़ा रहा. सारी धरती उसे आंखों के सामने घूमती प्रतीत हो रही थी. स्वामीजी उस की ओर क्रूरतापूर्ण दृष्टि से घूर रहे थे. थोड़ी देर की चुप्पी के बाद स्वामीजी कुटिया में चले गए. अमरेश भी ढीले कदमों से घर की ओर मुड़ गया. उमा के व्यवहार से उस का हृदय बिंधा जा रहा था.
वह उस पर क्रुद्ध होते हुए भी उस का अहित नहीं सोच सकता था. उस ने रूठने पर उमा को न जाने कितनी बार मनाया था, कितनी बार उस की गीली आंखें पोंछी थीं. वह भी उस के तनिक से दुख में बेचैन हो जाती थी. जराजरा सी बात पर उसे कसमें दिलाती. दोनों में कभी ठेस पहुंचाने वाली बातें नहीं हुई थीं.
अगले दिन अमरेश को पता चला कि उमा और उस की मां तीर्थयात्रा के लिए स्वामी गणेशानंद के साथ चली गई हैं. सुन कर उस के पैरों तले जमीन खिसक गई. क्या इस दुनिया के सभी संबंध थोथे हैं? यह प्रश्न उस के मन को मथने लगा. उस जैसे अनाथ के लिए उमा और उस की मां सागर में नौका की तरह थीं. उस का समूचा हार्दिक प्रवाह उन्हीं की ओर था.
रिक्तता से उस का हृदय कराह उठा. उमा जो बचपन में उस के कंधे पर सवार रहती थी, उस की घोर उपेक्षा कर बैठी, यह कम दाहक बात न थी. शत्रु का शत्रुतापूर्ण आचरण क्षमा किया जा सकता है, परंतु मित्र का दुर्व्यवहार क्षमा करने पर भी फांस की तरह चुभता रहता है.
2 दिन बाद उमा की मां लौट आई. उस की सूनीसूनी आंखों को देख कर अमरेश सिहर उठा. उस के मुंह से आवाज नहीं निकल रही थी.
आखिर अमरेश ने ही पूछा, ‘‘मांजी, उमा कहां है?’’
वह उत्तर नहीं दे सकी और प्रत्युत्तर में फूटफूट कर रो पड़ी.
‘‘मांजी, बताओ, उमा को क्या हो गया? मेरी उस लाड़ली को कहां छोड़ आईं?’’ अमरेश व्याकुल हो उठा.
‘‘वह ढोंगी स्वामी उसे न जाने कहां उड़ा ले गया. मेरी बच्ची…’’ वह आगे और कुछ नहीं बोल सकी.
‘‘मैं ने कितना समझाया था कि इन लोगों पर भरोसा करना मूर्खता है, पर तुम दोनों ने मेरी एक न सुनी. मुझे पता था कि इन दुष्टों ने रात के समय देवी की एक मूर्ति अपनी कुटिया के पास धरती में दबा दी थी, लेकिन तुम्हारे ऊपर पागलपन सवार था.’’
उमा की मां ने सिर ऊपर नहीं उठाया. धुंधलका छाने लगा. अमरेश खाट पर बैठा था और उमा की मां लुटीहारी सी उस के सामने भूमि पर. दोनों चुप थे.
इसी बीच अमरेश का ध्यान दरवाजे की ओर गया. एक पगलाई सी परछाईं वहां जड़वत खड़ी थी. ज्यों ही वह खड़ा हुआ, परछाईं उस की ओर बढ़ी और दौड़ कर उस के गले से लिपट गई. वह उमा थी, उस के वस्त्र चिथेड़ेचिथड़े हो रहे थे.
‘‘अमरेश,’’ कह कर वह अचेत हो कर धरती पर गिर पड़ी.
अमरेश का दिल पसीज गया. उस ने उमा को चारपाई पर लिटा दिया. बहुत देर बाद उस की चेतना लौटी तो वह फफक पड़ी, ‘‘अमरेश, मुझे माफ मत करना. मैं ने तुम्हारी बात नहीं मानी. अपने हाथों से मेरा गला घोंट दो. मुझ पर पागलपन सवार था.
‘‘उस भेडि़ए ने मेरी इज्जत लूटी. उस के चेलों ने भी मुंह काला किया. उस के बाद मुझे 8 हजार रुपए में एक वेश्या के हाथ बेच दिया. मैं कहीं की नहीं रही. किसी तरह चकले से भाग आई, सिर्फ तुम्हारी सूरत देखने के लिए. मेरी तरफ एक बार अपना चेहरा तो घुमाओ.’’
अमरेश ने उस के सिर पर हाथ फेर कर सांत्वना देने की कोशिश की. काफी देर तक वह उस की आंखों की ओर टुकुरटुकुर देखती रही. उस समय अमरेश की आंखों में आंसू भर आए.
कुछ देर चुप रहने के बाद उमा जोर से खिलखिला पड़ी. उस ने अपनी मां को एक तरफ धकेल दिया, ‘‘मां, अब मैं ऐसे स्वामियों का खून करूंगी,’’ उस की क्रूर हंसी से दोनों सहम गए.
‘‘तुम ने मुझ को चौपट किया है, मां. तुम्हारी विषैली श्रद्धा मुझे डस गई. मैं तुम्हारा भी खून करूंगी,’’ वह फिर जोर से अट्टहास कर उठी.
उमा की मां सहम कर एक ओर हट गई. अमरेश ने उमा को पकड़ कर चारपाई पर लिटा दिया, ‘‘चुप रहो, उमा. मैं सब संभाल लूंगा.’’
उमा दोनों हाथों में सिर ले कर सुबकने लगी.
सूरज डूब चुका था. अंधेरा घिरने लगा था. सारा शहर रोशनी से जगमगा रहा था. बाजारों की चहलपहल देखने लायक थी, लेकिन शहर से दूर एक जगह ऐसी भी थी, जहां लोग सरेशाम ही सो चुके थे.यह एक कब्रिस्तान था, जहां हर तरफ एक डरावनी खामोशी थी. कभीकभी हवा का कोई झोंका माहौल में हलचल मचा देता. उस दिन जुमेरात थी, इसलिए कब्रों पर मोमबत्तियां जल रही थीं.चौधरी इलाहीबख्श काफी अरसे के बाद आज अपने मांबाप के कब्र पर फातिहा पढ़ने आए थे. जैसे ही वे कब्रिस्तान से बाहर जाने के लिए मुड़े कि सामने की कब्र पर एक साए को देख कर उन के कदम ठिठक गए.
उस कब्र को देख कर ऐसा लगता था कि मरने वाले ने चंद रोज पहले ही यहां बसेरा किया होगा. उस कब्र पर तसवीर बनाने का सामान बिखरा हुआ था और एक लड़की बड़ी तेजी से कोई तसवीर बना रही थी.वह लड़की काले रंग के सलवारसूट में बहुत प्यारी लग रही थी. उस के काले घने बाल कंधों पर बिखरे हुए थे. उस की बड़ीबड़ी आंखों में आंसू भरे थे. उस के मासूम चेहरे में इतनी कशिश थी कि चौधरी इलाहीबख्श उस तक खिंचे चले गए. उन्होंने उस के सिर पर हाथ रखा तो वह लड़की चौंक गई.चौधरी इलाहीबख्श बोले, ‘‘बेटी, मैं तुम्हें जानता तो नहीं हूं, पर इतना जरूर कहूंगा कि रात ज्यादा हो रही है, तुम अब घर जाओ.’’
‘‘पर, अभी मेरी तसवीर अधूरी है,’’ उस लड़की ने कहा.
‘‘तो कल पूरी कर लेना,’’ चौधरी इलाहीबख्श ने जवाब दिया.
‘‘कल किस ने देखा है,’’ यह कह कर वह लड़की आगे बढ़ गई.
चौधरी इलाहीबख्श वह तसवीर देखना चाह रहे थे कि तेज हवा के एक बेरहम झोंके ने कब्रों की मोमबत्तियां बुझा दीं. तब अंधेरे ने उन्हें वहां से जाने पर मजबूर कर दिया.अगली जुमेरात चौधरी इलाहीबख्श फिर कब्रिस्तान पहुंचे. टहलते हुए वह उसी कब्र के पास पहुंचे. लड़की तो वहां पर नहीं थी, पर तसवीर वहीं रखी थी. चौधरी इलाहीबख्श ने देखा कि वह एक कब्रिस्तान की तसवीर थी, जिस में कई कब्रें बनी हुई थीं. एक कब्र के ऊपर पलाश के पेड़ से गिरते हुए फूलों को बड़ी खूबसूरती से दिखाया गया था. उस के नीचे लिखा हुआ था ‘आरजुओं का कब्रिस्तान. अभी चौधरी इलाहीबख्श तसवीर देख ही रहे थे कि कदमों की आहट सुनाई दी. वे तसवीर रख कर पेड़ के पीछे छिप गए. वही लड़की कब्र के करीब आई. एक भरपूर नजर उस ने तसवीर पर डाली और कब्र पर अपना सिर रख कर फूटफूट कर रोने लगी.
जब दिल का गुबार कुछ कम हुआ, तो लड़की ने बोलना शुरू किया, ‘‘मां, आप ने अपने दिल को बड़ी खामोशी से अपने अरमानों का कब्रिस्तान बना लिया था.
‘‘आज देखो, मैं ने इस तसवीर में यह सचाई उजागर कर दी है कि औरत का दिल खुद एक कब्रिस्तान होता है, जहां आरजुओं की अनगिनत कब्रें होती हैं…’’फिर वह लड़की सिसकते हुए आगे बोली, ‘‘मां, आप तो मुझे बहुत प्यार करती थीं न… पर शायद वह दिखावा था. आप ने अपने दिल में अरमानों की इतनी कब्रें बना लीं, पर मेरी कब्र के लिए जगह ही नहीं छोड़ी. मुझे अपने पास बुला लो.
‘‘देखो मां, मैं कितनी अकेली हूं. मेरा दिल इस दुनिया में बिलकुल नहीं लगता.’’
अब चौधरी इलाहीबख्श से न रहा गया. वे करीब आ कर बोले, ‘‘सब्र करो, जिंदगी तो कुदरत का दिया हुआ एक तोहफा है. मरने की मत सोचो.’’‘‘चाचाजी, यह बात आप इसलिए कह रहे हैं, क्योंकि आप मर्द हैं. काश, अगर आप औरत होते तो जानते कि जिंदगी औरत के लिए एक तोहफा नहीं, बल्कि कुदरत की तरफ से मिली उम्रकैद की सजा है, जो उसे हर हाल में समाज के कैदखाने में काटनी पड़ती है… तब मर्द जेलर का रोल अदा करता है.’’
‘‘पर बेटी, औरतें भी कम नहीं होतीं, लेकिन उन्हें बुरा कहते वक्त मां का चेहरा सामने आ जाता है,’’ चौधरी इलाहीबख्श बोले.
‘‘लेकिन, मर्दों की बुराई करते वक्त मेरी आंखों के सामने मेरे बाप का चेहरा भी नहीं आता,’’ लड़की बोली.
‘‘बेटी, तुम बड़ों का लिहाज करना सीखो. तुम जानती हो कि तुम किस मजहब से ताल्लुक रखती हो?’’ चौधरी इलाहीबख्श को गुस्सा आ गया.
‘‘जी हां, उस मजहब का नाम ‘इसलाम’ है, जिस में औरत के पैरों के नीचे जन्नत बताई गई है और उस मजहब के मानने वालों ने औरत को जूती बना कर अपने पैरों में पहन लिया है,’’ लड़की ने ताना देते हुए कहा.
चौधरी इलाहीबख्श ने पूछा, ‘‘क्या सुबूत है तुम्हारे पास?’’
‘‘सुबूत तो मेरी अपनी कहानी है. यह कब्र मेरी मां की है. जिस ने एक बेटी, बहन, महबूबा, बीवी, मां हर शक्ल में अपने अरमानों का गला घोंटा है.
‘‘मेरी मां 5 बहनों और एक भाई में सब से बड़ी थीं. उन के 2 ही शौक थे, एक पढ़ना और दूसरा तसवीरें बनाना. भाईबहनों के परवरिश की जिम्मेदारी भी उन के नन्हें कंधों पर थी.
‘‘अव्वल दर्जे में 8वीं जमात पास करने के बाद वह विज्ञान लेना चाहती थीं, पर हमारे खानदान में यह हक सिर्फ लड़कों को ही हासिल था, लड़कियों को नहीं.
‘‘परदे के नाम पर पढ़ाई खत्म करवा कर उन्हें घर बिठा लिया गया. अब वे खामोशी से तसवीरें बना कर अपनी एक सहेली को दे देतीं.
‘‘एक दिन उन की सहेली के भाई ने वे सारी तसवीरें एक नुमाइश में रख दीं. मेरी मां को इनाम मिला, तो मामू ने आफत खड़ी कर दी, ‘शीबा, तुम ने मेरी इज्जत मिट्टी में मिला दी. हर जबान पर तुम्हारी तसवीरों का ही जिक्र है. मैं नहीं चाहता कि गलीगली में तुम्हारा नाम लोगों की जबान पर हो. तुम इनाम लेने नहीं जाओगी.’ ‘‘मेरी मां ने इस आरजू को भी दिल में दफन कर लिया. उन्हें सहेली का भाई बहुत पसंद करता था. पर जब वे लोग रिश्ता ले कर आए तो नाना ने रिश्ता यह कह कर लौटा दिया कि वे छोटी जाति के हैं.
‘‘मां ने फिर दिल में अपनी मुहब्बत की कब्र बना ली. फिर नानाजी चल बसे. बिना दहेज के रिश्ता होना मुश्किल था, इसलिए अपने से दोगुनी उम्र के एक अमीर बूढ़े से मेरी मां की शादी करा दी गई.‘‘निकाह के वक्त जबरदस्ती उन्हें इज्जत का वास्ता दे कर ‘हां’ कहलवा ली. मेरी मां ने सबकुछ भूल कर शौहर की खिदमत की, पर बदले में उन्हें नफरत मिली.
‘‘पहले तो सिर्फ लड़ाईझगड़ा होता था, फिर अब्बू मारपीट पर उतर आए. मां का हक छीन कर भी अब्बू अपना हक हासिल करते रहे… जिस के नतीजे में मैं और बंटी इस दुनिया में आए. ‘‘फिर एक दिन सबकुछ उजड़ गया, जब अब्बू ने किसी खाने में नमक तेज होने के बहाने से मां को तलाक दे कर जीतेजी मारा डाला.
‘‘मामू के घर में हम लोगों के लिए जगह न थी. गुजारा मिलने का कोई इंतजाम था नहीं. मां ने कंगन बेच कर एक झोंपड़ी बना ली. उन्होंने तसवीरें बेचनी चाहीं, पर उन की जगह लोग मां की खूबसूरती का सौदा करते. उन्होंने कान की बालियां बेच कर सिलाई मशीन खरीदी और सिलाई करने लगीं.‘‘इस बीच मैं बहुत बीमार रहने लगी. डाक्टर ने दवाएं लिख कर दीं, पर यहां तो दो वक्त की रोटी भी मिलनी मुश्किल थी. मेरी बीमारी बढ़ती गई.
‘‘डाक्टर को मुझे दिखाने के बाद अम्मी बहुत खामोश रहने लगीं. बस उन्हें हर वक्त पैसों की फिक्र लगी रहती. मेरी समझ में नहीं आता था कि उन्हें पैसों की क्या जरूरत है?‘‘धीरेधीरे दिन महीनों में और महीने सालों में बदलते गए. मैं इंटर में पहुंच गई. उस वक्त तक मेरी बीमारी बहुत बढ़ गई थी.
‘‘एक दिन मां ने खाना बनाया. अभी बंटी ने रोटी का पहला कौर मुंह में रखा था कि उस ने खाने की प्लेट उठा कर फेंकी, जो मां के सिर पर लगी… और वे लड़खड़ा कर जमीन पर गिर गईं.
‘‘मैं ने गुस्से से कहा, ‘बंटी, तुम ने यह क्या किया?’
‘‘वह बोला, ‘खाने में नमक तेज था.’ ‘‘तब तक मां बहुत दूर जा चुकी थीं. शायद वे अपने बेटे में अपने शौहर की शक्ल नहीं देख सकी थीं… या फिर एक मां की शक्ल में वे अपने अरमानों की कब्र बनते नहीं देख सकी थीं.‘‘अम्मी के तीजे के दिन मुझे उन की याद बहुत आ रही थी. मैं ने तसवीरें बनाने का सामान निकाला. उसी के नीचे डाक्टरी रिपोर्ट पड़ी थी. अपना नाम देख कर मैं ने उसे पढ़ा तो मालूम हुआ कि डाक्टर ने मुझे कैंसर बताया था… अच्छा चाचाजी…’’ कहते हुए वह लड़की चली गई.
रात के 12 बजे थे. पूरे होटल में खामोशी थी. सभी सो चुके थे, पर कमरा नंबर 13 में ठहरे चौधरी इलाहीबख्श की आंखों से नींद कोसों दूर थी. उस लड़की की बातों ने उन्हें चौराहे पर ला कर खड़ा कर दिया था.
वे सोचने लगे, ‘कहीं वे मेरे बच्चे तो नहीं? ठीक है, मैं उन्हें ढूंढ़ूंगा और माफी मांगूंगा. कुदरत ने पहले ही मुझे काफी सजा दे दी है. दूसरी बीवी से मेरी कोई औलाद हुई नहीं. मैं उन के सारे दुख समेट लूंगा.’
फिर बहुत दिन गुजर गए. चौधरी इलाहीबख्श रोज कब्रिस्तान जाते और मायूस हो कर लौट आते. लेकिन एक दिन उन का इंतजार पूरा हो गया, जब उन्हें दूर से वह लड़की आती दिखाई दी. सफेद सलवारसूट पर काले घने बाल बिखरे हुए थे. वह बहुत दुबली हो गई थी. उस की आंखों में एक अजीब सा सूनापन था. आज वह अकेली नहीं थी, बल्कि उस के साथ एक लड़का भी था.
चौधरी इलाहीबख्श से रहा नहीं गया और वह पूछ बैठे, ‘‘तुम… तुम… नीलू हो न… बोलो?’’
‘‘तो आप ने मुझे पहचान ही लिया अब्बू?’’
‘‘क्या…? तुम जानती थी कि मैं…?’’ चौधरी इलाहीबख्श बोले.
‘‘जी हां, मैं भला उस जालिम आदमी को कैसे भूल सकती हूं?’’
‘‘मुझे माफ कर दो नीलू. जितने गिलेशिकवे हैं, सब कह डालो.’’
‘‘शिकवा और आप से…?’’ नीलू हैरत से बोली, ‘‘हक छीनने वालों से हक नहीं मांगा जाता… कातिलों से इंसाफ की भीख नहीं मांगी जाती…’’ अचानक उसे खांसी का दौरा पड़ गया. फिर खून की उलटी ने उस के सफेद कपड़ों को रंग दिया.
‘‘नहीं…’’ बंटी चीख पड़ा, ‘‘नीलू, मेरी बहन… तुम नहीं जा सकती.’’
‘‘मैं मर कहां रही हूं… हर औरत में मुझे पाओगे पर वादा करो कि भाभी
को तुम वैसे दुख कभी न दोगे जैसे अब्बू ने अम्मी को दिए,’’ नीलू की सांसें उखड़ने लगीं.
‘‘मैं तुम्हारे बिना नहीं रह पाऊंगा,’’ बंटी चीखा.
‘‘तुम मर्द हो, तुम्हें दुनिया में जीने का हक है…’’ फिर नीलू ने धीरे से पुकारा, ‘‘अब्बू, अगर आप ने मां को गुजारे के लिए पैसों की मदद दी होती तो शायद मैं यों न सिसकती. पर, अब मैं यह चाहती हूं कि आखिरी वक्त भी आप से कुछ न लूं.
‘‘अब्बू, वादा कीजिए कि आप मुझे अपने पैसों से कफन नहीं देंगे. ये तसवीरें बेचने से जो पैसा आए, उसी से मेरा…’’
‘‘बंटी, तुम मेरी कब्र मां के पास बना देना… क्योंकि अकेले… मुझे… अंधेरे से डर लगता है. उस… तसवीर… में… भी एक कब्र बना देना. मैं ने… जगह बना दी… दी है… मैं जा रही हूं…’’
‘नहीं…’ बंटी और चौधरी एकसाथ चीख पड़े.
तभी हवा के तेज झोंके से पलाश के ढेरों लाल फूलों ने नीचे गिर कर नीलू की लाश को ढक दिया.
फिर बंटी ने अचानक उठ कर तसवीर में एक और कब्र की तसवीर बना डाली और वह फूटफूट कर रोने लगा. उस की प्यारी बहन आज खुद अपने आरजुओं के कब्रिस्तान में एक कब्र बन चुकी थी.
‘जी, भाभी,’’ ऋचा के बाल संवारते हुए श्री बोली और फिर हाथ में कंघी लिए ही वह ड्राइंगरूम में आ गई, जहां विश्वा भाभी, मांजी एवं दादीमां बैठी थीं.
‘‘आज हमें एक खास जगह, किसी खास काम के लिए जाना है. तुम तैयार हो न?’’ भाभी ने पूछा.
‘‘जी, आप कहें तो अभी चलने को तैयार हूं लेकिन हमें जाना कहां होगा?’’
‘‘जाना कहां है यह भी पता चल जाएगा पर पहले तुम यह तसवीर देखो,’’ यह कहते हुए भाभी ने एक तसवीर उस की ओर बढ़ा दी. तसवीर में कैद युवक को देखते ही वह चौंक उठी. अरे, यह तो सार्थक है, अभि का दूसरा भांजा…प्रदीप का छोटा भाई.
‘‘हमारी लाडली बिटिया की पसंद है….हमारे घर का होने वाला दामाद,’’ भाभी ने खुशी से खुलासा किया.
‘‘सच?’’ उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था. फिर तो जरूर अभि से भी मिलने का मौका मिलेगा.
घर के सभी लोगों ने आस्था की पसंद पर अपनी सहमति की मोहर लगा दी. सार्थक एक साधारण परिवार से जरूर था लेकिन एक बहुत ही सलीकेदार, सुंदर, पढ़ालिखा और साहसी लड़का है. अनिकेत के साथ ही एम.बी.ए. कर के अब बहुराष्ट्रीय कंपनी में उच्च पद पर कार्यरत है.
उन की सगाई के मौके पर एक विशाल पार्टी का आयोजन होटल में किया गया. साकेत व वेदश्री मुख्यद्वार पर खड़े हो कर सभी आने वाले मेहमानों का स्वागत कर रहे थे. जब सार्थक के साथ अभि, उस की बहन और बहनोई ने हाल में प्रवेश किया तो श्री व साकेत ने बड़ी गर्मजोशी से उन का स्वागत किया.
अभि ने वर्षों बाद श्री को देखा तो बस, अपलक देखता ही रह गया. एक बड़े घराने की बहू जैसी शान उस के अंगअंग से फूट रही थी. साकेत के साथ उस की जोड़ी इतनी सुंदर लग रही थी कि अभि यह सोचने पर मजबूर हो गया कि उस ने वर्षों पहले जो फैसला श्री की खुशी के लिए लिया था, वह उस की जिंदगी का सर्वोत्तम फैसला था.
अभि ने अपनी पत्नी भव्यता से श्री का परिचय करवाया. भव्यता से मिल कर श्री बेहद खुश हुई. वह खुश थी कि अभि की जिंदगी की रिक्तता को भरने के लिए भव्यता जैसी सुंदर और शालीन लड़की ने अपना हाथ आगे बढ़ाया था. उन की भी एक 2 साल की प्यारी सी बेटी शर्वरी थी.
श्री ने बारीबारी से सार्थक के मम्मीपापा तथा अभि की मां के पैर छुए और उन का स्वागत किया. वे सभी इस बात से बेहद खुश थे कि उन का रिश्ता श्री के परिवार में होने जा रहा है. अभि की मम्मी बेहद खुश थीं, उन्होंने श्री को गले लगा लिया.
साकेत को अपनी ओर देखते हुए पा कर श्री ने कहा, ‘‘साकेत, आप अभिजीत हैं. सार्थक के मामा.’’
‘‘अभिजीत साहब, आप से दोबारा मिल कर मुझे बेहद प्रसन्नता हुई है,’’ कह कर साकेत ने बेहद गर्मजोशी से हाथ मिलाया.
‘‘दोबारा से आप का क्या तात्पर्य है, साकेत’’ श्री पूछे बिना न रह सकी.
‘‘श्री, तुम शायद नहीं जानती कि हमारा मानव इन्हीं की बदौलत दोनों आंखों से इस संसार को देखने योग्य बना है.’’
‘‘अभि, तुम ने मुझ से यह राज क्यों छिपाए रखा?’’ यह कहतेकहते श्री की आंखें छलक आईं. वह अपनेआप को कोसने लगी कि क्यों इतनी छोटी सी बात उस के दिमाग में नहीं आई….मानव की आंखें और प्रदीप की आंखों में कितना साम्य था? उन की आंखों का रंग सामान्य व्यक्ति की आंखों के रंग से कितना अलग था. तभी तो मानव की सर्जरी में इतना अरसा लग गया था. क्या प्रदीप की आंख न मिली होती तो उस का भाई…इस के आगे वह सोच ही नहीं पाई.
‘‘श्री, आज के इस खुशी के माहौल में आंसू बहा कर अपना मन छोटा न करो. यह कोई इतनी बड़ी बात तो थी नहीं. हमें खुशी इस बात की है कि मानव की आंखों में हमें प्रदीप की छवि नजर आती है…वह आज भी जिंदा है, हमारी नजरों के सामने है…उसे हम देख सकते हैं, छू सकते हैं, वरना प्रदीप तो हम सब के लिए एक एहसास ही बन कर रह गया होता.’’
श्री ने मानव को गले लगा लिया. उस की भूरी आंखों में उसे सच में ही प्रदीप की परछाईं नजर आई. उस ने प्यार से भाई की दोनों आखोंं पर चुंबनों की झड़ी सी लगा दी, जैसे प्रदीप को धन्यवाद दे रही हो.
साकेत, अभि की ओर मुखातिब हुआ, ‘‘अभिजीत साहब, हम आप से तहेदिल से माफी मांगना चाहते हैं, उस खूबसूरत गुनाह के लिए जो हम से अनजाने में हुआ,’’ उस ने सचमुच ही अभि के सामने हाथ जोड़ दिए.
‘‘किस बात की माफी, साकेतजी?’’ अभि कुछ समझ नहीं पाया.
‘‘हम ने आप की चाहत को आप से हमेशाहमेशा के लिए जो छीन लिया…यकीन मानिए, यदि मैं पहले से जानता तो आप दोनों के सच्चे प्यार के बीच कभी न आता.’’
आप अपना मन छोटा न करें, साकेतजी. आप हम दोनों के प्यार के बीच आज भी नहीं हैं. मैं आज भी वेदश्री से उतना ही प्यार करता हूं जितना किसी जमाने में किया करता था. सिर्फ हमारे प्यार का स्वरूप ही बदला है.
‘‘वह कैसे?’’ साकेत ने हंसते हुए पूछा. उस के दिल का बोझ कुछ हलका हुआ.
‘‘देखिए, पहले हम दोनों प्रेमी बन कर मिले, फिर मित्र बन कर जुदा हुए और आज समधी बन कर फिर मिले हैं…यह हमारे प्रेम के अलगअलग स्वरूप हैं और हर स्वरूप में हमारा प्यार आज भी हमारे बीच मौजूद है.’’
‘‘श्री, याद है, मैं ने तुम से कहा था, कल फिर आएगा और हमेशा आता रहेगा?’’
श्री ने सहमति में अपना सिर हिलाया. वह कुछ भी बोलने की स्थिति में कहां थी.
सार्थक एवं आस्था ने जब एकदूसरे की उंगली में सगाई की अंगूठी पहनाई तो दोनों की आंखों में एक विशेष चमक लहरा रही थी, जैसे कह रही हों…
‘आज हम ने अपने प्यार की डोर से 2 परिवारों को एक कभी न टूटने वाले रिश्ते में हमेशा के लिए बांध दिया है…कल हमेशा आता रहेगा और इस रिश्ते को और भी मजबूत बनाता रहेगा, क्योंकि कल हमेशा रहेगा और उस के साथ ही साथ सब के दिलों में, एकदूसरे के प्रति प्यार भी.
मम्मीपापा के दबाव में आ कर वेदश्री ने डा. साकेत से शादी करने का फैसला ले लिया. वह इस बात से दुखी थी कि अभि को यह बात कैसे समझाएगी. लेकिन बहते हुए आंसुओं को रोक कर उस ने एक निर्णय ले ही लिया कि वह अभि से मिलने आखिरी बार जरूर जाएगी.
वेदश्री की बातें सुनने के बाद अभि तय नहीं कर पा रहा था कि वह किस तरह अपनी प्रतिक्रिया दर्शाए. वह श्री को दिल से चाहता था और अपनी जिंदगी उस के साथ हंसीखुशी बिताने का मनसूबा बना रहा था. उस का सपना आज हकीकत के कठोर धरातल से टकरा कर चकनाचूर हो गया था और वह कुछ भी करने में असमर्थ था.
उस ने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उस की अपनी गरीबी और लाचारी उस की जिंदगी से इस कदर खिलवाड़ करेगी. यदि वह अमीर होता तो क्या मानव के इलाज के लिए अपनी तरफ से योगदान नहीं देता? श्री उस के लिए सबकुछ थी तो उस के परिवार का हर सदस्य भी तो उस का सबकुछ था.
अब समय मुट्ठी से रेत की तरह सरक गया था. समय पर अब उस का कोई नियंत्रण नहीं रहा था. अब तो वह सिर्फ श्री और साकेत के सफल सहजीवन के लिए दुआ ही कर सकता था.
अपना हृदय कड़ा कर और आवाज में संतुलन बना कर अभिजीत बोला, ‘‘श्री, मैं तुम्हारी मजबूरी समझ सकता हूं पर तुम से तो मैं यही कहूंगा कि हमें समझदार प्रेमियों की तरह हंसीखुशी एकदूसरे से अलग होना चाहिए. प्यार कोई ऐसी शै तो है नहीं कि दूरियां पैदा होने पर दम तोड़ दे. प्यार किया है तो उसे निभाने के लिए शादी करना कतई जरूरी नहीं. प्लीज, तुम मेरी चिंता न करना. मैं अपनेआप को संभाल लूंगा पर तुम वचन दो कि आज के बाद मुझे भुला कर सिर्फ साकेत के लिए ही जिओगी.’’
आंखों में आंसू लिए भारी मन से दोनों ने एकदूसरे से विदा ली.
‘‘श्री, आज का दिन यहां खत्म हुआ तो क्या हुआ? याद रखना, कल फिर आएगा और हमेशा आता रहेगा… और हर आने वाला कल तुम्हारी जिंदगी को और कामयाब बनाए, यही मेरी दुआ है.’’
मंगलसूत्र पहनाते समय साकेत की उंगलियों ने ज्यों ही वेदश्री की गरदन को छुआ, उस के सारे शरीर में सिहरन सी भर गई. सप्तपदी की घोषणा के साथसाथ शहनाई का उभरता संगीत हवा में घुल कर वातावरण को और भी मंगलमय बनाता गया. एकएक फेरे की समाप्ति के साथ उसे लगता गया कि वह अपने अभिजीत से एकएक कदम दूर होती जा रही है. आज से अभि उस से इस एक जन्म के लिए ही नहीं, बल्कि आने वाले सात जन्मों के लिए दूर हो गया है. अब उस का आज और कल साकेत के साथ हमेशा के लिए जुड़ गया है.
फेरों के खत्म होते ही मंडप में मौजूद लोगों ने अपनेअपने हाथों के सारे फूल एक ही साथ नवदंपती पर निछावर कर दिए. तब वेदश्री ने अपने दिल में उमड़ते हुए भावनाओं के तूफान को एक दृढ़ निश्चय से दबा दिया और सप्तपदी के एकएक शब्द को, उस से गर्भित हर अर्थ हर सीख को अपने पल्लू में बांध लिया. उस ने मन ही मन संकल्प किया कि वह अपने विवाहित जीवन को आदर्श बनाने का हरसंभव प्रयास करेगी क्योंकि वह इस सच को जानती थी कि औरत की सार्थकता कार्येषु दासी, कर्मेषु मंत्री, भोज्येशु माता और शयनेशु रंभा के 4 सूत्रों के साथ जुड़े हर कर्तव्यबोध में समाई हुई है.
सुहाग सेज पर सिकुड़ी बैठी वेदश्री के पास बैठ कर साकेत ने कोमलता से उस का चेहरा ऊपर की ओर इस तरह उठाया कि साकेत का चेहरा उस की आंखों के बिलकुल सामने था. वह धड़कते हृदय से अपने पति को देखती रही, लेकिन उसे साकेत के चेहरे पर अभि का चेहरा क्यों नजर आ रहा है? उसे लगा जैसे अभि कह रहा हो, ‘श्री, आखिर दिखा दिया न अपना स्त्रीचरित्र. धोखेबाज, मैं तुम्हें कभी क्षमा नहीं करूंगा.’ और घबराहट के मारे वेदश्री ने अपनी पलकें भींच कर बंद कर लीं.
‘‘क्या हुआ, श्री. तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न?’’ साकेत उस की हालत देख कर घबरा गया.
‘‘नहींनहीं…बिलकुल ठीक हूं…आप चिंता न करें…पहली बार आज आप ने मुझे इस तरह छुआ न इसलिए पलकें स्वत: शरमा कर झुक गईं,’’ कह कर वह अपनी घबराहट पर काबू पाने का निरर्थक प्रयास करने लगी.
मन में एक निश्चय के साथ श्री ने अपनी आंखें खोल दीं और चेहरा उठा कर साकेत को देखने लगी.
‘‘अब मैं ठीक हूं, साकेत. पर आप से कुछ कहना चाहती हूं…प्लीज, मुझे एक मौका दीजिए. मैं अपने मन और दिल पर एक बोझ महसूस कर रही हूं, जो आप को हकीकत से वाकिफ कराने के बाद ही हलका हो सकता है.’’
‘‘किस बोझ की बात कर रही हो तुम? देखो, तुम अपनेआप को संभालो, और जो कुछ भी कहना चाहती हो, खुल कर कहो. आज से हम नया जीवन शुरू करने जा रहे हैं और ऐसे में यदि तुम किसी भी बात को मन में रख कर दुखी होती रहोगी तो मुझे अच्छा नहीं लगेगा.’’
‘‘साकेत, मैं ने आप से अपनी जिंदगी से जुड़ा एक गहरा राज छिपा कर रखा है और यह छल नहीं तो और क्या है?’’ फिर वह अभिजीत और अपने रिश्ते से जुड़ी हर बात साकेत को बताती चली गई.
‘‘साकेत, मैं आप को वचन देती हूं कि मैं अपनी ओर से आप को शिकायत का कोई भी मौका नहीं दूंगी,’’ अपनी बात खत्म करने के बाद भी वह रो रही थी.
‘‘गलत बात है श्री, आज का यह विशेष अवसर और उस का हर पल, हमारी जिंदगी में पहली और आखिरी बार आया है. क्या इन अद्भुत पलों का स्वागत आंसुओं से करोगी?’’ साकेत ने प्यार से उस का चेहरा अपने हाथों में ले लिया.
‘‘रही बात तुम्हारे और अभिजीत के प्रेम की तो वह तुम्हारा अतीत था और अतीत की धूल को उड़ा कर अपने वर्तमान को मैला करने में मैं विश्वास नहीं रखता…भूल जाओ सबकुछ…’’
वह रात उन की जिंदगी में अपने साथ ढेर सारा प्यार और खुशियां लिए आई. साकेत ने उसे इतना प्यार दिया कि उस का सारा डर, घबराहट, कमजोर पड़ता हुआ आत्मविश्वास…उस प्यार की बाढ़ में तिनकातिनका बन कर बह गया.
वसंत पंचमी का शुभ मुहूर्त वेदश्री के जीवन में एक कभी न खत्म होने वाली वसंत को साथ ले आया जिस ने उस के जीवन को भी फूलों की तरह रंगीन बना दिया क्योंकि साकेत एक अच्छे पति होने के साथ ही एक आदर्श जीवनसाथी भी साबित हुए.
पहले दिन से ही श्री ने अपनी कर्तव्यनिष्ठा द्वारा घर के सभी सदस्यों को अपना बना लिया. समय के पंखों पर सवार दिन महीनों में और महीने सालों में तबदील होते गए. 5 साल यों गुजर गए मानो 5 दिन हुए हों. इन 5 सालों में वेदश्री ने जुड़वां बेटियां ऋचा एवं तान्या तथा उस के बाद रोहन को जन्म दिया. ऋचा व तान्या 4 वर्ष की हो चली थीं और रोहन अभी 3 महीने का ही था. साकेत का प्यार, 3 बच्चों का स्नेह और परिवार के प्रति कर्तव्यनिष्ठा, यही उस के जीवन की सार्थकता के प्रतीक थे.
साकेत की दादी दुर्गा मां सुबह जल्दी उठ जातीं. उन के स्नान से ले कर पूजाघर में जाने तक सभी तैयारियों में श्री का सुबह का वक्त कब निकल जाता, पता ही नहीं चलता. उस के बाद मांबाबूजी, साकेत तथा भैयाभाभी बारीबारी उठ कर तैयार होते. फिर अनिकेत और आस्था की बारी आती. सभी के नहाधो कर अपनेअपने कामों में लग जाने के बाद श्री अपना भी काम पूरा कर के दुर्गा मां की सेवा में लग जाती.
अनिकेत एवं आस्था तो भाभी के दीवाने थे. हर पल उस के आगेपीछे घूमते रहते. उन की हर जरूरत का खयाल रखने में श्री को बेहद सुख मिलता. श्री एवं अनिकेत दोनों की उम्र में बहुत फर्क नहीं था. अनिकेत ने एम.बी.ए. की डिगरी प्राप्त की थी. अब वह अपने पिता एवं बड़े भाई के व्यवसाय में हाथ बंटाने लगा था लेकिन अपनी हर छोटीबड़ी जरूरतों के लिए श्री पर ही निर्भर रहता. वह उस से मजाक में कहती भी थी, ‘अनिकेत भैया, अब आप की भाभी में आप की देखभाल करने की शक्ति नहीं रही. जल्दी ही हाथ बंटाने वाली ले आइए वरना मैं अपने हाथ ऊपर कर लूंगी.’
आस्था का कहना था कि ‘जिस घर में इतनी प्यारी भाभी बसती हों उस घर को छोड़ कर मैं तो कभी नहीं जाने वाली,’ फिर भाभी के गले में बांहें डाल कर झूल जाती.
वेदश्री के खुशहाल परिवार को एक ही ग्रहण वर्षों से खाए जा रहा था कि विश्वा भाभी की गोद अब तक खाली थी. वैसे भैयाभाभी दोनों शारीरिक रूप से पूर्णतया स्वस्थ थे पर भाभी के गर्भाशय में एक गांठ थी जो बारबार की शल्यक्रिया के बाद भी पनपती रहती थी. भाभी को गर्भ जरूर ठहरता, पर गर्भ के पनपने के साथ ही साथ वह गांठ भी पनपने लगती जिस की वजह से गर्भपात हो जाता था.
बारबार ऐसा होने से भाभी के स्वास्थ्य पर गहरा असर पड़ता जा रहा था. इसी बात का गम उन्हें मन ही मन खाए जा रहा था. श्री हमेशा भाभी से कहती, ‘भाभी, मैं आप से उम्र में बहुत छोटी हूं और उम्र एवं रिश्ते के लिहाज से बड़ी भाभी, मां समान होती हैं. आप मुझे अपनी देवरानी समझें या बेटी, हर लिहाज से मैं आप को यही कहूंगी कि आप इस बात को कभी मन पर न लें कि आप की अपनी कोई संतान नहीं है मैं अपने तीनों बच्चे आप की गोद में डालने को तैयार हूं. आप को मुझ पर भरोसा न हो तो मैं कानूनी तौर पर यह कदम उठाने को तैयार हूं. बच्चे मेरे पास रहें या आप के पास, रहेंगे तो इसी वंश से जुडे़ हुए न.’’
सुन कर भाभी की आंखों में तैरने वाला पानी उसे भीतर तक विचलित कर देता. मांबाबूजी श्री के इन्हीं गुणों पर मोहित थे. उन्हें खुशी थी कि घरपरिवार में शांति एवं खुशी का माहौल बनाए रखने में छोटीबहू का योगदान सब से ज्यादा था. बड़ी बहू भी उस की आत्मीयता में सराबोर हो कर अपना गम भुलाती जा रही थी. तीनों बच्चों को वह बेहद प्यार करती. श्री घर के कार्य संभालती और भाभी बच्चों को. घर की चिंताओं से मुक्त पुरुष वर्ग व्यापार के कार्यों में दिनरोज विकास की ओर बढ़ता जा रहा था.‘‘श्री,’’ विश्वा भाभी ने उसे आवाज दी.
रतन सिंह की निगाहें पिछले कई दिनों से झुमरी पर लगी हुई थीं. वह जब भी उसे देखता, उस के मुंह से एक आह निकल जाती. झुमरी की खिलती जवानी ने उस के तनमन में एक हलचल सी मचा दी थी और वह उसे हासिल करने को बेताब हो उठा था. वैसे भी रतन सिंह के लिए ऐसा करना कोई बड़ी बात न थी. वह गांव के दबंग गगन सिंह का एकलौता और बिगड़ैल बेटा था.
कई जरूरतमंद लड़कियों को अपनी हवस का शिकार उस ने बनाया था. झुमरी तो वैसे भी निचली जाति की थी. झुमरी 20वां वसंत पार कर चुकी एक खूबसूरत लड़की थी. गरीबी में पलीबढ़ी होने के बावजूद जवानी ने उस के रूप को यों निखारा था कि देखने वालों की निगाहें बरबस ही उस पर टिक जाती थीं. गोरा रंग, भरापूरा बदन, बड़ीबड़ी कजरारी आंखें और हिरनी सी मदमस्त चाल.
इस सब के बावजूद झुमरी में एक कमी थी. वह बोल नहीं सकती थी, पर उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था. वह अपनेआप में मस्त रहने वाली लड़की थी. झुमरी घर के कामों में अपनी मां की मदद करती और खेत के काम में अपने बापू की. उस के बापू तिलक के पास जमीन का एक छोटा सा टुकड़ा था, जिस के सहारे वह अपने परिवार को पालता था. वैसे भी उस का परिवार छोटा था. परिवार में पतिपत्नी और 2 बच्चे, झुमरी और शंकर थे. अपनी खेती से समय मिलने पर तिलक दूसरों के खेतों में भी मजदूरी का काम कर लिया करता था. गरीबी में भी तिलक का परिवार खुश था. परंतु कभीकभी पतिपत्नी यह सोच कर चिंतित हो उठते थे कि उन की गूंगी बेटी को कौन अपनाएगा?
झुमरी इन सब बातों से बेखबर मजे में अपनी जिंदगी जी रही थी. वह दिमागी रूप से तेज थी और गांव के स्कूल से 10 वीं जमात तक पढ़ाई कर चुकी थी. उसे खेतखलिहान, बागबगीचों से प्यार था. गांव के दक्षिणी छोर की अमराई में झुमरी अकसर शाम को आ बैठती और पेड़ों के झुरमुट में बैठे पक्षियों की आवाज सुना करती. कोयल की आवाज सुन कर उस का भी जी चाहता कि वह उस के सुर में सुर मिलाए, पर वह बोल नहीं सकती थी. झुमरी की इस कमी को रतन सिंह ने अपनी ताकत समझा. उस ने पहले तो झुमरी को तरहतरह के लालच दे कर अपने प्रेमजाल में फांसना चाहा और जब इस में कामयाब न हुआ, तो जबरदस्ती उसे हासिल करने का मन बना लिया. रात घिर आई थी. चारों तरफ अंधेरा हो चुका था. आज झुमरी को खेत से लौटने में देर हो गई थी. पिछले कई दिनों से उस की ताक में लगे रतन सिंह की नजर जब उस पर पड़ी, तो उस की आंखों में एक तेज चमक जाग उठी.
मौका अच्छा जान कर रतन सिंह उस के पीछे लग गया. एक तो अंधेरा, ऊपर से घर लौटने की जल्दी. झुमरी को इस बात का एहसास ही नहीं हुआ कि कोई उस के पीछे लगा हुआ है. वह चौंकी तब, जब अमराई में घुसते ही रतन सिंह उस का रास्ता रोक कर खड़ा हो गया. ‘‘मैं ने तुम्हारा प्यार पाने की बहुत कोशिश की…’’ रतन सिंह कामुक निगाहों से झुमरी के उभारों को घूरता हुआ बोला, ‘‘तुम्हें तरहतरह से रिझाया. तुम से प्रेम निवेदन किया, पर तू न मानी. आज अच्छा मौका है. आज मैं छक कर तेरी जवानी का रसपान करूंगा.’’ रतन सिंह का खतरनाक इरादा देख झुमरी के सारे तनबदन में डर की सिहरन दौड़ गई. उस ने रतन सिंह से बच कर निकल जाना चाहा, पर रतन सिंह ने उसे ऐसा नहीं करने दिया. उस ने झपट कर झुमरी को अपनी बांहों में भर लिया.
झुमरी ने चिल्लाना चाहा, पर उस के होंठों से शब्द न फूटे. झुमरी को रतन सिंह की आंखों में वासना की भूख नजर आई. रतन सिंह झुमरी को खींचता हुआ अमराई के बीचोंबीच ले आया और जबरदस्ती जमीन पर लिटा दिया. इस के पहले कि झुमरी उठे, वह उस पर सवार हो गया. झुमरी उस के चंगुल से छूटने के लिए छटपटाने लगी. दूसरी ओर वासना में अंधा रतन सिंह उस के कपड़े नोचने लगा. उस ने अपने बदन का पूरा भार झुमरी के नाजुक बदन पर डाल दिया, फिर किसी भूखे भेडि़ए की तरह उसे रौंदने लगा. झुमरी रो रही थी, तड़प रही थी, आंखों ही आंखों में फरियाद कर रही थी, लेकिन रतन सिंह ने उस की एक न सुनी और उसे तभी छोड़ा, जब अपनी वासना की आग बुझा ली. ऐसा होते ही रतन सिंह उस के ऊपर से उठ गया. उस ने एक उचटती नजर झुमरी पर डाली. जब उस की निगाहें झुमरी की निगाहों से टकराईं, तो उस को एक झटका सा लगा. झुमरी की आंखों में गुस्से की चिनगारियां फूट रही थीं, पर अभीअभी उस ने झुमरी के जवान जिस्म से लिपट कर जवानी का जो जाम चखा था, इसलिए उस ने झुमरी के गुस्से और नफरत की कोई परवाह नहीं की और उठ कर एक ओर चल पड़ा.
इस घटना ने झुमरी को झकझोर कर रख दिया था. वह 2 दिन तक अपने कमरे में पड़ी रही थी. झुमरी के मांबाप ने जब उस से इस की वजह पूछी, तो उस ने तबीयत खराब होने का बहाना बना दिया था. कई बार झुमरी के दिमाग में यह बात आई थी कि वह इस के बारे में उन्हें बतला दे, पर यह सोच कर वह चुप रह गई थी कि उन से कहने से कोई फायदा नहीं. वे चाह कर भी रतन सिंह का कुछ बिगाड़ नहीं पाएंगे, उलटा रतन सिंह उन की जिंदगी को नरक बना देगा. इस मामले में जो करना था, उसे ही करना था. रतन सिंह ने उस की इज्जत लूट ली थी और उसे इस के किए की सजा मिलनी ही चाहिए थी. पर कैसे?
झुमरी ने इस बात को गहराई से सोचा, फिर उस के दिमाग में एक तरकीब आ गई. रात आधी बीत चुकी थी. सारा गांव सो चुका था, पर झुमरी जाग रही थी. वह इस समय अमराई से थोड़ी दूर बांसवारी यानी बांसों के झुरमुट में खड़ी हाथों में कुदाल लिए एक गड्ढा खोद रही थी. तकरीबन 2 घंटे तक वह गड्ढा खोदती रही, फिर हाथ में कटार लिए बांस के पेड़ों के पास पहुंची. उस ने कटार की मदद से बांस की पतलीपतली अनेक डालियां काटीं, फिर उन्हें गड्ढे के करीब ले आई. डालियों को चिकना कर उन्हें बीच से चीर कर उन की कमाची बनाईं, फिर उन की चटाई बुनने लगी. अपनी इच्छानुसार चटाई बुनने में उसे तकरीबन 3 घंटे लग गए.
चटाई तैयार कर झुमरी ने उसे गड्ढे के मुंह पर रखा. चटाई ने तकरीबन एक मीटर दायरे के गड्ढे के मुंह को पूरी तरह ढक लिया. यह चटाई किसी आदमी का भार हरगिज सहन नहीं कर सकती थी. सुबह होने में अभी चंद घंटे बचे थे. हालांकि बांसों के इस झुरमुट की ओर गांव वाले कम ही आते थे और दिन में यह सुनसान ही रहता था, फिर भी झुमरी कोई खतरा मोल लेना नहीं चाहती थी. उस ने जमीन पर बिखरे बांस के सूखे पत्तों को इकट्ठा कर उन का ढेर लगा दिया. इस काम से निबट कर झुमरी ने बांस की चटाई से गड्ढे का मुंह ढका, पर उस पर पत्तों को इस तरह डाल दिया, ताकि चटाई पूरी तरह ढक जाए और किसी को वहां गड्ढा होने का एहसास न हो. गड्ढे से निकली मिट्टी को उस ने अपने साथ लाई टोकरी में भर कर गड्ढे से थोड़ी दूर डाल दिया.
काम खत्म कर झुमरी ने एक निगाह अपने अब तक के काम पर डाली, फिर अपने साथ लाए बड़े से थैले में अपना सारा सामान भरा और थैला कंधे पर लाद कर घर की ओर चल पड़ी. 7 दिनों तक झुमरी का यह काम चलता रहा. इतने दिन में उस ने 7 फुट गहरा गड्ढा तैयार कर लिया था. गड्ढे में उतरने और चढ़ने के लिए वह अपने साथ घर से लाई सीढ़ी का इस्तेमाल करती थी. काम पूरा कर उस ने पत्ते डाले, फिर अपने अगले काम को अंजाम देने के बारे में सोचती. रतन सिंह ने झुमरी की इज्जत लूट तो ली थी, परंतु अब वह इस बात से डरा हुआ था कि कहीं झुमरी इस बात का जिक्र अपने मांबाप से न कर दे और कोई हंगामा न खड़ा हो जाए. परंतु जब 10 दिन से ज्यादा हो गए और कुछ नहीं हुआ, तो उस ने राहत की सांस ली. अब उसे रात की तनहाई में वो पल याद आते, जब उस ने झुमरी के जवान जिस्म से अपनी वासना की आग बुझाई थी. जब भी ऐसा होता, उस का बदन कामना की आग में झुलसने लगता था.
इस बीच रतन सिंह ने 1-2 बार झुमरी को अपने खेत की ओर जाते या आते देखा था, परंतु उस के सामने जाने की उस की हिम्मत न हुई थी. पर उस दिन अचानक रतन सिंह का सामना झुमरी से हो गया. वह विचारों में खोया अमराई की ओर जा रहा था कि झुमरी उस के सामने आ खड़ी हुई. उसे यों अपने सामने देख एकबारगी तो रतन सिंह बौखला गया था और झुमरी को देखने लगा था. झुमरी कुछ देर तक खामोशी से उसे देखती रही, फिर उस के होंठों पर एक दिलकश मुसकान उभर उठी. उसे इस तरह मुसकराते देख रतन सिंह ने राहत की सांस ली और एकटक झुमरी के खूबसूरत चेहरे और भरेभरे बदन को देखने लगा. इस के बावजूद जब झुमरी मुसकराती रही, तो रतन सिंह बोला, ‘‘झुमरी, उस दिन जो हुआ, उस का तुम ने बुरा तो नहीं माना?’’
झुमरी ने न में सिर हिलाया.
‘‘सच…’’ कहते हुए रतन सिंह ने उस की हथेली कस कर थाम ली, ‘‘इस का मतलब यह है कि तू फिर वह सब करना चाहती है?’’ बदले में झुमरी खुल कर मुसकराई, फिर हौले से अपना हाथ छुड़ा कर एक ओर भाग गई. उस की इस हरकत पर रतन सिंह के तनमन में एक हलचल मच गई और उस की आंखों के सामने वो पल उभर आए, जब उस ने झुमरी की खिलती जवानी का रसपान किया था. झुमरी को फिर से पाने की लालसा में रतन सिंह उस के इर्दगिर्द मंडराने लगा. झुमरी भी अपनी मनमोहक अदाओं से उस की कामनाओं को हवा दे रही थी. झुमरी ने एक दिन इशारोंइशारों में रतन सिंह से यह वादा कर लिया कि वह पूरे चांद की आधी रात को उस से अमराई में मिलेगी. आकाश में पूर्णिमा का चांद हंस रहा था. उस की चांदनी चारों ओर बिखरी हुई थी. ऐसे में रतन सिंह बड़ी बेकरारी से एक पेड़ के तने पर बैठा झुमरी का इंतजार कर रहा था.
झुमरी ने आधी रात को यहीं पर उस से मिलने का वादा किया था, परंतु वह अब तक नहीं आई थी. जैसेजैसे समय बीत रहा था, वैसेवैसे रतन सिंह की बेकरारी बढ़ रही थी. अचानक रतन सिंह को अपने पीछे किसी के खड़े होने की आहट मिली. उस ने पलट कर देखा, तो उस का दिल धक से रह गया. वह झटके से उठ खड़ा हुआ. उस के सामने झुमरी खड़ी थी. उस ने भड़कीले कपड़े पहन रखे थे, जिस से उस की जवानी फटी पड़ रही थी. जब झुमरी ने रतन सिंह को आंखें फाड़े अपनी ओर देखा पाया, तो उत्तेजक ढंग से अपने होंठों पर जीभ फेरी. उस की इस अदा ने रतन सिंह को और भी बेताब कर दिया. रतन सिंह ने झटपट झुमरी को अपनी बांहों में समेट लेना चाहा, लेकिन झुमरी छिटक कर दूर हो गई.
‘‘झुमरी, मेरे पास आओ. मेरे तनबदन में आग लगी है, इसे अपने प्यार की बरसात से शांत कर दो,’’ रतन सिंह बेचैन होते हुए बोला. झुमरी ने इशारे से रतन सिंह को खुद को पकड़ लेने की चुनौती दी. रतन सिंह उस की ओर दौड़ा, तो झुमरी ने भी दौड़ लगा दी. अगले पल हालत यह थी कि झुमरी किसी मस्त हिरनी की तरह भाग रही थी और रतन सिंह उसे पकड़ने के लिए उस के पीछे दौड़ रहा था. झुमरी अमराई से निकली, फिर बांस के झुरमुट की ओर भागी. वह उस गड्ढे की ओर भाग रही थी, जिसे उस ने कई दिनों की कड़ी मेनत से तैयार किया था. वह जैसे ही गड्ढे के नजदीक आई, एक लंबी छलांग भरी और गड्ढे की ओर पहुंच गई. झुमरी के हुस्न में पागल, गड्ढे से अनजान रतन सिंह अचानक गड्ढे में गिर गया. उस के मुंह से घुटीघुटी सी चीख निकली.
कुछ देर तक तो रतन सिंह कुछ समझ ही नहीं पाया कि क्या हो गया है. वह बौखलाया हुआ गड्ढे में गिरा इधरउधर झांक रहा था, पर जैसे ही उस के होशोहवास दुरुस्त हुए, वह जोरजोर से झुमरी को मदद के लिए पुकारने लगा. परंतु उधर से कोई मदद नहीं आई. झुमरी की ओर से निराश रतन सिंह खुद ही गड्ढे से बाहर निकलने की कोशिश करने लगा. उस ने अपने दोनों हाथ ऊपर उठा कर गड्ढे के किनारे को पकड़ना चाहा, परंतु वह उस की पहुंच से दूर था. रतन सिंह ने उछल कर बाहर निकलने की 2-4 बार नाकाम कोशिश की. आखिरकार वह गड्ढे का छोर पकड़ने में कामयाब हो गया. उस ने अपने बदन को सिकोड़ कर अपना सिर ऊपर उठाया. उस का सिर थोड़ा ऊपर आया, तभी उस की नजर झुमरी पर पड़ी. उस के हाथों में कुदाल थी और उस की आंखों से नफरत की चिनगारियां फूट रही थीं. इस के पहले कि रतन सिंह कुछ समझता, झुमरी ने कुदाल का भरपूर वार उस के सिर पर किया.
रतन सिंह की दिल दहलाने वाली चीख से वह सुनसान इलाका दहल उठा. उस का सिर फट गया था और खून की धारा फूट पड़ी थी. गड्ढे का किनारा रतन सिंह के हाथ से छूट गया और वह गिर पड़ा था. गड्ढे में गिरते ही रतन सिंह ने अपना सिर थाम लिया. उस की आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा था और उस पर बेहोशी छाने लगी थी. उस के दिमाग में एक विचार बिजली की तरह कौंधा कि यह झुमरी का फैलाया हुआ जाल था, जिस में फंसा कर वह उसे मार डालना चाहती है. तभी रतन सिंह के सिर पर ढेर सारी मिट्टी आ गिरी. उस ने अपनी बंद होती आंखें उठा कर ऊपर की ओर देखा, तो झुमरी टोकरी लिए वहां खड़ी थी. अगले ही पल वह बेहोशी के अंधेरों में गुम होता चला गया. झुमरी ने मिट्टी से पूरा गड्ढा भर दिया, फिर उस पर पत्तियां डाल कर उठ खड़ी हुई. उस ने सिर उठा कर ऊपर देखा. आकाश में पूर्णिमा का चांद हंस रहा था. थोड़ी देर बाद झुमरी कंधे पर थैला लादे अपने घर को लौट रही थी.
लेखक- जयप्रकाश
अभि अपलक उसे देखता रहा. क्या वह कभी उसे बता भी सकेगा कि प्रदीप की ही आंख से उस का भाई इस दुनिया को देख रहा है? वह मरा नहीं, मानव की एक आंख के रूप में उस की जिंदगी के रहने तक जिंदा रहेगा.
वह बोझिल स्वर में वेदश्री को बताने लगा.
‘‘प्रदीप अपने दोस्त के साथ ‘कल हो न हो’ फिल्म देखने जा रहा था. हाई वे पर उन की मोटरसाइकिल फिसल कर बस से टकरा गई. उस का मित्र जो मोटरसाइकिल चला रहा था, वह हेलमेट की वजह से बच गया और प्रदीप ने सिर के पिछले हिस्से में आई चोट की वजह से गिरते ही वहीं उसी पल दम तोड़ दिया.
‘‘कहना अच्छा नहीं लगता, आखिर वह मेरी बहन का बेटा था, फिर भी मैं यही कहूंगा कि जो कुछ भी हुआ ठीक ही हुआ…पोस्टमार्टम के बाद डाक्टर ने रिपोर्ट में दर्शाया था कि अगर वह जिंदा रहता भी तो शायद आजीवन अपाहिज बन कर रह जाता…’’
‘‘इतना सबकुछ हो गया और तुम ने मुझे कुछ भी बताने योग्य नहीं समझा?’’ अभिजीत की बात बीच में काट कर श्री बोली.
‘‘श्री, तुम वैसे भी मानव को ले कर इतनी परेशान रहती थीं, तुम्हें यह सब बता कर मैं तुम्हारा दुख और बढ़ाना नहीं चाहता था.’’
कुछ पलों के लिए दोनों के बीच मौन का साम्राज्य छाया रहा. दिल ही दिल में एकदूसरे के लिए दुआएं लिए दोनों जुदा हुए. अभि से मिल कर वेदश्री घर लौटी तो डा. साकेत को एक अजनबी युगल के साथ पा कर वह आश्चर्य में पड़ गई.
‘‘नमस्ते, डाक्टर साहब,’’ श्री ने साकेत का अभिवादन किया.
प्रत्युत्तर में अभिवादन कर डा. साकेत ने अपने साथ आए युगल का परिचय करवाया.
‘‘श्रीजी, यह मेरे बडे़ भैया आकाश एवं भाभी विश्वा हैं और आप सब से मिलने आए हैं. भाभी, ये श्रीजी हैं.’’
विश्वा भाभी उठ खड़ी हुईं और बोलीं, ‘‘आओ श्री, हमारे पास बैठो,’’ उन्हें भी श्री पहली ही नजर में पसंद आ गई.
‘‘अंकलजी, हम अपने देवर
डा. साकेत की ओर से आप की बेटी वेदश्री का हाथ मांगने आए हैं,’’ भाभी ने आने का मकसद स्पष्ट किया.
यह सुन कर श्री को लगा जैसे किसी ने उसे ऊंचे पहाड़ की चोटी से नीचे खाई में धकेल दिया हो. उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ कि जो वह सुन रही है वह सच है या फिर एक अवांछनीय सपना?
भाभी का प्रस्ताव सुनते ही श्री के मातापिता की आंखोंमें एक चमक आ गई. उन्होंने तो कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि उन की बेटी के लिए इतने बड़े घराने से रिश्ता आएगा.
‘‘क्या हुआ श्री, तुम हमारे प्रस्ताव से खुश नहीं?’’ श्री के चेहरे का उड़ा हुआ रंग देख कर भाभी ने पूछ लिया.
साकेत और आकाश दोनों ही उसे देखने लगे. साकेत का दिल यह सोच कर तेजी से धड़कने लगा कि कहीं श्री ने इस रिश्ते से मना कर दिया तो?
‘‘नहीं, भाभीजी, ऐसी कोई बात नहीं. दरअसल, आप का प्रस्ताव मेरे लिए अप्रत्याशित है. इसीलिए कुछ पलों के लिए मैं उलझन में पड़ गई थी पर अब मैं ठीक हूं,’’ जबरन मुसकराते हुए वेदश्री ने कहा, ‘‘मैं ने तो साकेत को सिर्फ एक डाक्टर के नजरिए से देखा था.’’
‘‘सच तो यह है श्री कि जिस दिन तुम पहली बार मेरे अस्पताल में अपने भाई को ले कर आई थीं उसी दिन तुम्हें देख कर मेरे मन ने मुझ से कहा था कि तुम्हारे योग्य जीवनसाथी की तलाश आज खत्म हो गई. और आज मैं परिवार के सामने अपने मन की बात रख कर तुम्हें अपना जीवनसाथी बनाना चाहता हूं. अब फैसला तुम्हारे ऊपर है.’’
‘‘साकेत, मुझे सोचने के लिए कुछ वक्त दीजिए, प्लीज. मैं ने आप को आज तक उस नजरिए से कभी देखा नहीं न, इसलिए उलझन में हूं कि मुझे क्या फैसला लेना चाहिए…क्या आप मुझे कुछ दिन का वक्त दे सकते हैं?’’ वेदश्री ने उन की ओर देखते हुए दोनों हाथ जोड़ दिए.
‘‘जरूर,’’ आकाश जो अब तक चुप बैठा था, बोल उठा, ‘‘शादी जैसे अहम मुद्दे पर जल्दबाजी में कोई भी फैसला लेना उचित नहीं होगा. तुम इत्मीनान से सोच कर जवाब देना. हम साकेत को भलीभांति जानते हैं. वह तुम पर अपनी मर्जी थोपना कभी भी पसंद नहीं करेगा.’’
‘‘हम भी उम्मीद का दामन कभी नहीं छोडें़गे, क्यों साकेत?’’ भाभी ने साकेत की ओर देखा.
‘‘जी, भाभी,’’ साकेत ने हंसते हुए कहा, ‘‘शतप्रतिशत, आप ने बड़े पते की बात कही है.’’
जलपान के बाद सब ने फिर एकदूसरे का अभिवादन किया और अलग हो गए.
आज की रात वेदश्री के लिए कयामत की रात बन गई थी. साकेत के प्रस्ताव को सुन वह बौखला सी गई थी. ये प्रश्न बारबार उस के मन में कौंधते रहे:
‘क्या मुझे साकेत का प्रस्ताव स्वीकार कर लेना चाहिए? यदि मैं ने ऐसा किया तो अभि का क्या होगा? हमारे उन सपनों का क्या होगा जो हम दोनों ने मिल कर संजोए थे? क्या अभि मेरे बिना जी पाएगा और उस से वादाखिलाफी कर क्या मैं जी पाऊंगी? नहीं…नहीं…मैं अपने प्यार का दामन नहीं छोड़ सकती. मैं साकेत से साफ शब्दों में मना कर दूंगी. नए रिश्तों को बनाने के लिए पुराने रिश्तों से मुंह मोड़ लेना कहां की रीति है?’
सोचतेसोचते वेदश्री को साकेत याद आ गया. उस ने खुद को टोका कि श्री तुम
डा. साकेत के बारे में क्यों नहीं सोच रहीं? तुम से प्यार कर के उन्होंने भी तो कोेई गलती नहीं की. कितना चाहते हैं वह तुम्हें? तभी तो एक इतना बड़ा डाक्टर दिल के हाथों मजबूर हो कर तुम्हारे पास चला आया. कितने नेकदिल इनसान हैं. भूल गईं क्या, जो उन्होंने मानव के लिए किया? यदि उन का सहारा न होता तो क्या तुम्हारा मानव दुनिया को दोनों आंखों से फिर से देख पाता? खबरदार श्री, तुम गलती से भी अपने दिमाग में इस गलतफहमी को न पाल बैठना कि साकेत ने तुम्हें पाने के इरादे से मानव के लिए इतना सबकुछ किया. आखिर तुम दुनिया की अंतिम खूबसूरत लड़की तो हो ही नहीं सकतीं न…दिल ने उसे उलाहना दिया.
साकेत के जाने के बाद पापामम्मी से हुई बातचीत का एकएक शब्द उसे याद आने लगा.
मां ने उसे समझाते हुए कहा था, ‘बेटी, ऐसे मौके जीवन में बारबार नहीं आते. समझदार इनसान वही है जो हाथ आए मौके को हाथ से न जाने दे, उस का सही इस्तेमाल करे. बेटी, हो सकता है ऐसा मौका तुम्हारी जिंदगी के दरवाजे पर दोबारा दस्तक न दे…साकेत बहुत ही नेक लड़का है, लाखों में एक है. सुंदर है, नम्र है, सुशील है और सब से अहम बात कि वह तुम्हें दिल से चाहता है.’
पापा ने भी मम्मी के साथ सहमत होते हुए कहा था, ‘बेटी, डा. साकेत ने हमारे बच्चे के लिए जो कुछ भी किया, वह आज के जमाने में शायद ही किसी के लिए कोई करे. यदि उन्होंने हमारी मदद न की होती तो क्या हम मानव का इलाज बिना पैसे के करवा सकते थे?
‘यह बात कभी न भूलना बेटी कि हम ने मानव के इलाज के बारे में मदद के लिए कितने लोगों के सामने अपने स्वाभिमान का गला घोंट कर हाथ फैलाए थे, और हर जगह से हमें सिर्फ निराशा ही हाथ लगी थी. जब अपनों ने हमारा साथ छोड़ दिया तब साकेत ने गैर होते हुए भी हमारा दामन थामा था.’
‘अभिजीत अगर तुम्हारा प्यार है तो मानव तुम्हारा फर्ज है. फर्ज निभाने में जिस ने तुम्हारा साथ दिया वही तुम्हारा जीवनसाथी बनने योग्य है, क्योंकि सदियों से चली आ रही प्यार और फर्ज की जंग में जीत हमेशा फर्ज की ही हुई है,’ दिमाग के किसी कोने से वेदश्री को सुनाई पड़ा.
इस की खास वजह है लड़कियों का कमाई का नया रास्ता खुलना. वह है बौडी बिल्डिं ग कर के फिटनैस मौडल और बाउंसर बनने का. इस से उन की सेहत तो अच्छी रहती ही है, साथ ही वे एक रोजगार पा कर अपनी जिंदगी को भी खुशहाल बना रही हैं.
हर शहर में फिटनैस सैंटर तेजी से बढ़ते जा रहे हैं. इन में आने वाली लड़कियों की तादाद सब से ज्यादा होती है. लड़कियों के लिए अब तमाम ऐसे कैरियर भी हैं, जिन में उन की बौडी को फिट रखना जरूरी होता है. इन में जिम ट्रेनर से ले कर फिटनैस मौडल और बौडीगार्ड बनने तक के तमाम अवसर बढ़ रहे हैं.
यही वजह है कि अब लड़कियों को लगता है कि फिटनैस उन के कैरियर में बहुत जरूरी है. ऐसे में लड़कियां अब पढ़ाई के साथसाथ अपनी फिटनैस और बौडी शेपिंग पर भी खासा ध्यान दे रही हैं. बौडी बिल्डिंग का नाम सामने आते ही बड़ेबड़े पहलवानों की छवि आंखों के सामने घूमने लगती है, पर अब जमाना बदल गया है. बौडी बिल्डिंग के क्षेत्र में लड़कियां भी आगे आने लगी हैं.
इस की वजह यह है कि अब लड़कियों के लिए बौडी बिल्डिंग के क्षेत्र में भी कैरियर के तमाम औप्शन आ गए हैं. शहरों में लड़कियों ने जिम जाना शुरू कर दिया है. ऐसे में जिम ट्रेनर के रूप में लड़कियों के लिए जौब के नए रास्ते खुल गए हैं.
लेडीज फिटनैस ट्रेनर के रूप में उन लड़कियों की मांग बढ़ गई है जो बौडी बिल्डिंग की शौकीन हैं. हर छोटेबड़े शहर में ऐसे जिम की तादाद तेजी से बढ़ रही है.
सुंदर और फिट बौडी रखने वाली लड़कियों के लिए नौकरी के तमाम अवसर आ रहे हैं. इस की सब से बड़ी वजह यह है कि अब समाज ऐसी लड़कियों को बढ़ावा देने लगा है.
समाज में तमाम तरह की सैलिब्रिटी को अपनी सिक्योरिटी के लिए लड़कियों को बौडीगार्ड रखने का चलन बढ़ गया है. महिला नेता, बिजनैस वुमन वगैरह अपनी हिफाजत के लिए बाउंसर रखने लगी हैं. इस के अलावा मौल, सिनेमाघर, बड़े इवैंट के दौरान भी इन लड़कियों की जरूरत महसूस होती है.
प्राइवेट सिक्योरिटी गार्ड को पहले इज्जत की नजरों से नहीं देखा जाता था, पर अब ऐसा नहीं है. अब हालात बदल गए हैं. ऐसे में लड़कियों में भी बौडीगार्ड बनने की होड़ लग गई है. लंबी और मजबूत कदकाठी वाली लड़कियों को पहले प्राथमिकता दी जाती है.
महिला बाउंसर की तैनाती उन रिहायशी जगहों पर भी होने लगी है, जहां सिक्योरिटी का ज्यादा इंतजाम करना पड़ता है. शहरों में ऐसी कालोनी, जहां अपराध का डर ज्यादा होता है, बाउंसर रखे जाते हैं. इस की सब से बड़ी वजह पुलिस से लोगों का भरोसा उठना है.
आम लोगों को लगता है कि शिक्षा और सेहत संबंधी जरूरतों के बाद अब सुरक्षा का इंतजाम खुद ही करना चाहिए. तमाम बैंक, ज्वैलरी शोरूम और पैसों
का कारोबार करने वाली कंपनियां भी पैसों के लेनदेन का काम निजी सुरक्षा एंजेसियों के भरोसे कर रही हैं. इस के चलते सुरक्षाकर्मियों को मुहैया कराने वाली एजेंसियों की मांग बढ़ गई है. इन में भी साधारण सिक्योरिटी गार्ड की जगह महिला बाउंसरों का इस्तेमाल बढ़ गया है.
मिलती अच्छी तनख्वाह
22 साल की विमलेश उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के रामपुर गांव की रहने वाली है. उस का कद लंबा और छरहरा था. भीड़ में भी वह अलग नजर आती थी. नौकरी की तलाश में वह मुंबई गई और एक सिक्योरिटी कंपनी में पहुंच गई.
सिक्योरिटी कंपनी में लंबी और मजबूत कदकाठी वाली लड़कियों की जरूरत थी. विमलेश इस लिहाज से पूरी तरह फिट थी.
कंपनी ने 2 महीने विमलेश को जिम में भेजा और उस की ट्रेनिंग कराई. इस दौरान उस के खानपान का खासा खयाल भी रखा गया.
2 महीने के अंदर ही विमलेश स्मार्ट और चुस्त नजर आने लगी. काले रंग की वरदी पहन कर सिर पर काले रंग का कपड़ा बांध कर जब विमलेश तैयार होती है तो देखते ही बनता है. विमलेश को 15,000 रुपए महीने की तनख्वाह पर नौकरी मिल गई.
सिक्योरिटी कंपनी की बोली में विमलेश को ‘बाउंसर’ कहा जाता है. विमलेश कहती है, ‘‘आज के समय में मौल्स, होटल, नाइट क्लब में महिला बाउंसरों को तैनात किया जाने लगा है. इस महिला के अलावा हीरोहीरोइन की सुरक्षा के लिए भी महिला बाउंसर का प्रयोग होने लगा है. छोटे शहरों और गांव की लड़कियों को इस में प्राथमिकता मिलती है. इस क्षेत्र में बहुत ज्यादा पढ़नेलिखने की जरूरत नहीं होती है.’’
विमलेश के बाद उस के गांव की 4 मजबूत कदकाठी वाली लड़कियां भी बाउंसर का काम करने लगी हैं.
बदल गया तरीका
22 साल की रेखा यादव के चेहरे पर एक काले रंग का दाना लटक रहा था. यह देखने में काफी खराब लग रहा था. रेखा को पता चला कि 10,000 रुपए खर्च कर सर्जरी के जरीए वह इस दाने को हटा सकती है.
डाक्टर के पास जा कर रेखा ने उसे हटवा दिया. अब वह पहले से ज्यादा तनख्वाह पर काम कर रही है.
प्लास्टिक सर्जरी के डाक्टर अनुपम सरन कहते हैं, ‘‘अपनी कमी को दूर कर के लोग पहले से अधिक स्मार्ट बन कर ज्यादा पैसे कमाते हैं. पहले केवल लड़कियां ही प्लास्टिक सर्जरी के जरीए अपनी बौडी को सुंदर दिखाने के लिए आती थीं, पर अब लड़के भी खूब आने लगे हैं.’’
लखनऊ के विनायक कौस्मैटिक लेजर ऐंड सर्जरी सैंटर के डाक्टर अनुपम सरन कहते हैं, ‘‘स्मार्टनैस बढ़ाने के लिए कई लड़कियां अपने स्तन के आकार को सही कराने के लिए हमारे पास आती हैं. इस के अलावा नाक की खूबसूरती बढ़ाने के लिए वे आपरेशन कराने को तैयार हो जाती हैं. चेहरे पर अगर किसी तरह का निशान होता है तो वे उसे भी हटवा लेती हैं.’’
समाजसेवी और वकील शिवा पांडेय कहती हैं, ‘‘पहले सरकारी नौकरियां खूब होती थीं जिन में एक बार भरती होने के बाद नौकरी जाने की चिंता नहीं रहती थी. अब ज्यादातर लड़कियों को प्राइवेट नौकरी करनी होती है. इन में भी मार्केटिंग और दूसरों से मिलनेजुलने या उन के साथ रहने वाली नौकरियां ज्यादा होती हैं. ऐसे में अगर उन की स्मार्टनैस घटती है तो नौकरी में आगे बढ़ने के मौके भी कम हो जाते हैं. यही वजह है कि बहुत सारी प्राइवेट कंपनियां अपने कर्मचारियों को जिम में जाने के लिए बढ़ावा देने लगी हैं.’’
सुधार रही हैं डाइट
हैल्थ मैनेजमैंट का कारोबार देख रही सुरभि जैन कहती हैं, ‘‘बाउंसर बनने या बौडी फिटनैस से जुड़ी लड़कियों के लिए सब से ज्यादा जरूरी है कि उन का खानपान सही हो. इस के लिए ऐसे लोगों को एक डाइट चार्ट बना कर उस पर अमल करना चाहिए.
‘‘बौडी बनाने की दवाएं लेने से ज्यादा जरूरी है कि सही खानपान से बौडी बनाएं. सुबह दूध और अंडे लेने चाहिए. इस के डेढ़ घंटे के बाद प्रोटीन शेक वाला दूध लेना चाहिए. केले और दोपहर के भोजन में रोटी, हरी सब्जी, दाल, चिकन, दही लेना ठीक रहेगा. शाम के नाश्ते में उबले आलू और जूस पीना चाहिए. प्रोटीन शेक के बाद रात में 9 बजे खाने में 100 ग्राम पनीर, सब्जी, सलाद और दूध लेना चाहिए.
‘‘फिटनैस के लिए ऐक्सपर्ट की सलाह के मुताबिक जिम में ट्रेनिंग लेनी बहुत जरूरी होती है.
डाक्टर अनुपम सरन कहते हैं, ‘‘सुंदर दिखने के लिए अब लड़कियां सर्जरी कराने से किसी तरह का डर या संकोच नहीं करती हैं. अनचाहे बालों को हटवाने से ले कर वे आपरेशन के जरीए फैट निकलवाने की कोशिश भी करती हैं.
‘‘चेहरे पर अगर कोई दागधब्बा है तो उसे भी सही कराने की कोशिश करती हैं. इस के साथ ही लड़कियां जिम जाने के बाद खुद को फिट रख रही हैं.’’
कई ब्यूटी कौंटैस्ट जीतने वाली आरती पाल कहती हैं, ‘‘मुझे फिटनैस मौडल बनना है. इस के लिए मैं जम कर मेहनत कर रही हूं. मुझे देख कर कोई कह नहीं सकता है कि मैं शादीशुदा और एक बच्चे की मां हूं.’’
अपनी फिटनैस को ले कर आरती पाल जैसी क्रेजी लड़कियां तेजी से आगे बढ़ रही हैं.
दरअसल, साकेत उम्र में वेदश्री से
2-3 साल ही बड़े होंगे. जवान मन का तकाजा था कि वह जब भी वेदश्री को देखते उन का दिल बेचैन हो उठता. वह हमेशा इसी इंतजार में रहते कि कब वह मानव को ले कर उस के पास आए और वह उसे जी भर कर देख सकें. न जाने कब वेदश्री डा. साकेत के हृदय सिंहासन पर चुपके से आ कर बैठ गई, उन्हें पता ही नहीं चला. तभी तो साकेत ने मन ही मन फैसला किया था कि मानव की सर्जरी के बाद वह उस के मातापिता से उस का हाथ मांग लेंगे.
उधर वेदश्री डा. साकेत के मन में अपने प्रति उठने वाले प्यार की कोमल भावनाओं से पूरी तरह अनभिज्ञ थी. वह अभिजीत के साथ मिल कर अपने सुंदर सहजीवन के सपने संजोने में मगन थी. उस के लिए साकेत एक डाक्टर से अधिक कुछ भी न थे. हां, वह उन की बहुत इज्जत करती थी क्योंकि उस ने महसूस किया था कि डा. साकेत एक आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी होने के साथसाथ नेक दिल इनसान भी हैं.
समय अपनी चाल से चलता रहा और देखते ही देखते डेढ़ वर्ष का समय कैसे गुजर गया पता ही नहीं चला. एक दिन फोन की घंटी बजी तो अभिजीत का फोन समझ कर वेदश्री ने फोन उठा लिया और ‘हैलो’ बोली.
‘‘वेदश्रीजी, डा. साकेत बोल रहा हूं. मैं ने यह बताने के लिए आप को फोन किया है कि यदि आप मानव को ले कर कल 12 बजे के करीब अस्पताल आ जाएं तो बेहतर होगा.’’
साकेत चाहता तो अपनी रिसेप्शनिस्ट से फोन करवा सकता था, लेकिन दिल का मामला था अत: उस ने खुद ही यह काम करना उचित समझा.
‘‘क्या कोई खास बात है, डाक्टर साहब,’’ वेदश्री समझ नहीं पा रही थी कि डाक्टर ने खुद क्यों उसे फोन किया. उसे लगा जरूर कोई गंभीर बात होगी.
‘‘नहीं, कोई ऐसी खास बात नहीं है. मैं ने तो यह संभावना दर्शाने के लिए आप के पास फोन किया है कि शायद कल मैं आप को एक बहुत बढि़या खबर सुना सकूं, क्योंकि मैं मानव को ले कर बेहद सकारात्मक हूं.’’
‘‘धन्यवाद, सर. मुझे खुशी है कि आप मानव के लिए इतना सोचते हैं. मैं कल मानव को ले कर जरूर हाजिर हो जाऊंगी, बाय…’’ और वेदश्री ने फोन रख दिया.
वेदश्री की मधुर आवाज ने साकेत को तरोताजा कर दिया. उस के होंठों पर एक मीठी मधुर मुसकान फैल गई.
मानव का चेकअप करने के बाद डा. साकेत वेदश्री की ओर मुखातिब हुए.
‘‘क्या मैं आप को सिर्फ ‘श्री…जी’ कह कर बुला सकता हूं?’’ डा. साकेत बोले, ‘‘आप का नाम सुंदर होते हुए भी मुझे लगता है कि उसे थोड़ा छोटा कर के और सुंदर बनाया जा सकता है.’’
‘‘जी,’’ कह कर वेदश्री भी हंस पड़ी.
‘‘श्रीजी, मेरे खयाल से अब मानव की सर्जरी में हमें देर नहीं करनी चाहिए और इस से भी अधिक खुशी की बात यह है कि एशियन आई इंस्टीट्यूट बैंक से हमें मानव के लिए योग्य डोनेटर मिल गया है.’’
‘‘सच, डाक्टर साहब, मैं आप का यह ऋण कभी भी नहीं चुका सकूंगी,’’ उस की आंखों में आंसू उभर आए.
डा. साकेत के हाथों मानव की आंख की सर्जरी सफलतापूर्वक संपन्न हुई. परिवार के लोग दम साधे उस की आंख की पट्टी खुलने का इंतजार कर रहे थे.
सर्जरी के तुरंत बाद डा. साकेत ने उसे बताया कि मानव की सर्जरी सफल तो रही लेकिन उस आंख का विजन पूर्णतया वापस लौटने में कम से कम 6 महीने का वक्त और लगेगा. यह सुन कर उसे तकलीफ तो हुई थी लेकिन साथसाथ यह तसल्ली भी थी कि उस का भाई फिर इस दुनिया को अपनी स्वस्थ आंखों से देख सकेगा.
‘‘श्री…जी, मैं ने आप से वादा किया था कि आप को कभी नाउम्मीद नहीं होने दूंगा…’’ साकेत ने उस की गहरी आंखों में झांकते हुए कहा, ‘‘मैं ने आप को दिया अपना वादा पूरा किया.’’
वेदश्री ने संकोच से अपनी पलकें झुका दीं.
‘‘फिर मिलेंगे…’’ कुछ निराश भाव से डा. साकेत ने कहा और फिर मुड़ कर चले गए.
उस दिन एक लंबे अरसे के बाद वेदश्री बिना किसी बोझ के बेहद खुश मन से अभिजीत से मिली. उसे तनावरहित और खुशहाल देख कर अभि को भी बेहद खुशी हुई.
‘‘अभि, कितने लंबे अरसे के बाद आज हम फिर मिल रहे हैं. क्या तुम खुश नहीं?’’ श्री ने उस का हाथ अपने हाथ में थाम कर ऊष्मा से दबाते हुए पूछा.
‘‘ऐसी बात नहीं, मैं तुम्हें अपने इतने नजदीक पा कर बेहद खुश हूं…खैर, मेरी बात जाने दो, मुझे यह बताओ, अब मानव कैसा है?’’
‘‘वह ठीक है. उसे एक नेक डोनेटर मिल गया, जिस की बदौलत वह अपनी नन्हीनन्ही आंखों से अब सबकुछ देख सकता है. आज मुझे लगता है जैसे उसे नहीं, मुझे आंखों की रोशनी वापस मिली हो. सच, उस की तकलीफ से परे, मैं कुछ भी साफसाफ नहीं देख पा रही थी. हर पल यही डर लगा रहता था कि यदि उस की आंखों की रोशनी वापस नहीं मिली तो उस के गम में कहीं मम्मी या पापा को कुछ न हो जाए. उस दाता का और डा. साकेत का एहसान हम उम्र भर नहीं भुला सकेंगे.’’
‘‘अच्छा, तुम बताओ, तुम्हारा भांजा प्रदीप किस तरह दुर्घटना का शिकार हुआ? मैं ने सुना था तो बेहद दुख हुआ. कितना हंसमुख और जिंदादिल था वह. उस की गहरी भूरी आंखों में हर पल जिंदगी के प्रति कितना उत्साह छलकता रहता…’’
घरऔर दफ्तर की भागतीदौड़ती जिंदगी में थोड़ा सा ठहरती हुई मैं, रिश्तों के जाल में फंसी हुई खुद से ही खुद का परिचय कराती हुई मैं, एक बेटी, एक बहू, एक पत्नी, एक मां और एक कर्मचारी की भूमिका निभाते हुए खुद को ही भूलती हुई मैं, इसलिए सोचा चलो आज खुद के साथ ही एक दिन बिताती हूं मैं, वह भी कोरोनाकाल में.
अब आप लोग सोच रहे होंगे कि कोरोनाकाल में भी अगर मुझे खुद के लिए समय नहीं मिला तो फिर उम्रभर नहीं मिलेगा.
मगर अगर सच बोलूं तो शायद कोरोनाकाल में हम लोगों की अपनी प्राइवेसी खत्म हो गई है. हम चाहें या न चाहें हम सब परिवाररूपी जाल में बंध गए हैं. घर में कोई भी एक ऐसा कोना नहीं है जहां खुद के साथ कुछ समय बिता सकूं.
सब से पहले अगर यह बात सीधी तरह किसी को बोली जाए तो अधिकतर लोगों को समझ ही नहीं आएगा कि खुद के साथ समय बिताने के लिए एक दिन की आवश्यकता ही क्या है?
आज का समय तो जब तक जरूरी न हो घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए पर क्या हर इंसान को भावनात्मक और मानसिक आजादी की आवश्यकता नहीं होती है? लोग मखौल उड़ाते हुए बोलेंगे कि यह नए जमाने की नई हवा है जिस के कारण यह फुतूर मेरे दिमाग में आया है.
कुछ लोग यह जुमला उछालेंगे कि जब कोई काम नहीं हो तो ऐसे ही खुद को पहचानने का कीड़ा दिमाग को काटता है. यह मैं इसलिए कह रही हूं क्योंकि शायद मैं भी उन लोगों में से ही हूं जो ऐसे ही प्रतिक्रिया करेगी अगर कोई मुझ से भी बोले कि आज मैं खुद के साथ समय बिताना चाहती या चाहता हूं.
ऐसे लोगों को हम स्वार्थी या बस अपने तक सीमित अथवा केवल अपनी खुशी देखने वाला और भी न जाने क्याक्या बोलते हैं. चलिए अब बात को और न खींचते हुए मैं अपने अनुभव को साझ करना चाहती हूं.
खैर, लौकडाउन खत्म हुआ और मेरा दफ्तर चालू हो गया परंतु बच्चों और पति का अभी भी घर से स्कूल और दफ्तर जारी था. छुट्टी का दिन मेरे लिए और अधिक व्यस्त होता है क्योंकि जिन कार्यों की अनदेखी मैं दफ्तर के कारण कर देती थी वे सब कार्य ठुनकते हुए कतार में सिर उठा कर खड़े रहते थे कि उन का नंबर कब आएगा? बच्चे अगर सामने से नहीं पर आंखों ही आंखों में यह जरूर जता देते हैं कि मैं हर दिन कितनी व्यस्त रहती हूं, उन को जब मेरी जरूरत होती है तो मैं दफ्तर के कार्यों में अपना सिर डाल कर बैठी रहती हूं. पति महोदय का बस यही वाक्य होता है, ‘‘तुम्हें ही सारा काम क्यों दिया जाता है? जरूर तुम ही भागभाग कर हर काम के लिए लपकती होगी.’’
‘‘अरे वर्क फ्रौम होम के लिए बात क्यों नहीं करती हो,’’ पर फिर हर माह की 5 तारीख को जब वेतन आता है तो वे ये सारी चीजें भूल जाते हैं और नारी मुक्ति या उत्थान के पुजारी बन जाते हैं.
ऐसे ही एक ठिठुरते हुए रविवार में सब के लिए खाना परोसते हुए मेरे दिमाग में यह खयाल आया क्यों न दफ्तर से छुट्टी ले ली जाए और बस लेटी रहूं. घर पर तो यह मुमकिन नहीं था. पहले तो बिना किसी कारण छुट्टी लेना किसी को हजमन ही होगा दूसरा अगर ले भी ली तो सारा समय घर के कामों में ही निकल जाना है. कहने को मेरे जीवन में बहुत सारे मित्र हैं पर ऐसा कोई नहीं है जिस के साथ मैं ये दिन साझ कर सकूं.
पर न जाने क्यों मन ने कुछ नया करने की ठानी थी, खुद के साथ समय बिताने की दिल ने की मनमानी थी.
जब से ये खयाल मन में जाग्रत हुआ तो कुछ जिंदगी में रोमांच सा आ गया, साथ ही
साथ एक अनजाना डर भी था कि कही मैं इस वायरस की चपेट में न आ जाऊं. पर फिर अंदर की औरत बोल उठीं, अरे तो रोज दफ्तर भी तो जाती हो. उस में भी तो इतना ही जोखिम है. मेरे पास भी कुछ ऐसा होना चाहिए है जो मेरा बेहद निजी हो. पूरा रविवार दुविधा में बीत गया. करूं या न करूं ऐसे सोचते हुए सांझ हो गई. मुझे कहीं घूमने नहीं जाना था न ही किसी दर्शनीय स्थल के दर्शन करने थे, कारण था कोरोना. मुझे तो अपने अंदर की औरत को पहचानना था कि क्या इस कोरोना की आपाधापी में उस में थोड़ी सी चिनगारी अभी भी बाकी है.
दफ्तर में तो छुट्टी की सूचना दे दी थी पर अब सवाल यह था कि खुद को कहां पर ले जाऊं, क्या होटल में सेफ रहेगा या मौल के किसी कैफे में? तभी फेसबुक पर ओयो रूम दिखाई पड़े. यहां पर घंटों के हिसाब से कमरे उपलब्ध थे. किराया भी बस हजार रुपए था.
कोरोना के कारण घर से ही चैकइन करने की सुविधा थी पर फिर दिमाग में आया कि कहीं पुलिस की रेड न पड़ जाए क्योंकि ऐसे माहौल में कमरे घंटों के हिसाब से क्यों लिए जाते हैं यह सब को पता है तो ऐसे कमरों में ठहरना क्या सुरक्षित रहेगा?
इधरउधर होटल खंगाले तो कोई भी होटल 5 हजार से कम नहीं था. पति महोदय मेरी समस्या को चुटकी में ही हल कर सकते थे पर यह तो मेरी खुद के साथ की डेट थी, फिर उन से मदद कैसे ले सकती थी और अगर सच बोलूं तो मुझे अपने पति से कोई लैक्चर नहीं सुनना था.
यह बात नहीं सुननी थी कि मैं मिड ऐज क्राइसिस से गुजर रही हूं, इसलिए ऐसी
बचकानी हरकतें कर रही हूं. माह की 27 तारीख थी बहुत अधिक शाहखर्च नहीं हो सकती थी, इसलिए धड़कते दिल से एक ओयो रूम 900 रुपए में 8 घंटों के लिए बुक कर लिया.
वहां से कन्फर्मेशन में भी आ गया. फिर शाम के 5 बजे से मैं अपने मोबाइल को ले कर बेहद सजग हो गई जैसे मेरी कोई चोरीछिपी हो उस में. बेटे ने जैसे ही हमेशा की तरह मेरे मोबाइल को हाथ लगाया, मैं फट पड़ी कि मैं तुम्हारे मोबाइल को हाथ नहीं लगाती हूं तो तुम्हें क्या जरूरत पड़ी है?
बेटा खिसिया कर बोला, ‘‘मम्मी मेरे एक फ्रैंड ने मुझे ब्लौक कर रखा है या नहीं बस यही देखना चाहता था.’’
पति और घर के अन्य सदस्य मुझे प्रश्नवाचक दृष्टि से देख रहे थे.
मैं बिना कोई उत्तर दिए रसोई में घुस गई. फिर रात को मैं ने अपने कार्ड्स और आईडी सब अपने पर्स में रख लिए. सुबह दफ्तर के समय ही घर से निकली और धड़कते दिल से कैब बुक करी. कैब ड्राइवर ने कैब उस गंतव्य की तरफ बढ़ा दी और फिर करीब आधे घंटे के बाद हम वहां पहुंच गए.
मेरे उतरते हुए कैब ड्राइवर ने पूछा, ‘‘मेम आप को यहीं जाना था न?’’
मुझे पता था वह बाहर ओयो रूम का बोर्ड देख कर पूछ रहा होगा, मैं कट कर रह गई पर ऊपर से खुद को संयत करते हुए बोली, ‘‘हां, परंतु तुम क्यों पूछ रहे हो?’’
वह कुछ न बोला पर उस के होंठों पर व्यंग्यात्मक मुसकान मुझ से छिपी न रही.
मैं अंदर पहुंची पर कोई रिसैप्शन नहीं दिखाई दिया, फिर भी मैं अंदर पहुंच गई तो एक ड्राइंगरूम दिखाई दिया, 2 बड़ेबड़े सोफे पड़े हुए थे और एक डाइनिंगटेबल भी थी. 2 लड़के सोए हुए थे, मुझे देखते हुए आंखें मलते हुए उठने वाले ही थे कि मैं तीर की गति से बाहर निकल गई.
खुद पर गुस्सा आ रहा था, एक भी ऐसा कोना नहीं है मेरा इस शहर में, शहर में ही क्यों, मेरा निजी कुछ भी नहीं है मेरे जीवन में, खुद के साथ समय बिताना भी मुश्किल हो गया था. जो फोन नंबर वहां पर अंकित था, वह मिलाया तो पता लगा कि वह नंबर आउट औफ सर्विस है. यह स्थान एक घनी आबादी में स्थित था, इसलिए सड़क पर आतेजाते लोगों में से कुछ मुझे आश्चर्य से और कुछ बेशर्मी से देख रहे थे. मैं बिना कुछ सोचे तेजतेज कदमों से बाहर निकल गई. नहीं समझ आ रहा था कि कहां जाऊं. ऐसे ही चलती रही. एक मन किया कि किसी मौल मैं चली जाऊं पर फिर वहां पर मैं क्या खुद से गुफ्तगू कर पाऊंगी. करीब 1 किलोमीटर चलतेचलते फिर से एक इमारत दिखाई दी, ओयो रूम का बोर्ड यहां भी मौजूद था. न जाने क्या सोचते हुए मैं उस इमारत की ओर बढ़ गई.
वहां पर देखा कि रिसैप्शन आरंभ में ही थी. उस पर बैठे हुए पुरुष को देख कर मैं ने बोला, ‘‘सर कमरा मिल जाएगा.’’
रिसैप्शनिस्ट बोला, ‘‘जरूर मैडम, कितने लोगों के लिए.’’
मैं ने कहा, ‘‘बस मैं.’’
उस ने आश्चर्य से मेरी तरफ देखा और फिर बोला, ‘‘मैडम कोई मेहमान या दोस्त आएगा आप से मिलने?’’
मैं बोली, ‘‘नहीं, दरअसल घर की चाबी नहीं मिल रही है.’’
न जाने क्यों एक झठ जबान पर आ गया खुद को सामान्य दिखाने के लिए. मुझे मालूम था कि अगर उसे पता चलेगा कि मैं ऐसे ही समय बिताने आई हूं, तो शायद वह मुझे पागल ही करार कर देता.
आज पहली बार मन ही मन कोरोना को धन्यवाद दिया, मास्क के पीछे मुझे बेहद सुरक्षित महसूस हो रहा था. रूम नंबर 202, रूम के अंदर घुसते ही मैं ने देखा एक छोटा सा बैड है, साफसुथरी रजाई भी रखी हुई थी. मेरे सामने ही रूम को दोबारा सैनिटाइज करा गया था. मैं ने राहत की सांस ली और अपना मास्क निकाला और फिर दोबारा से हाथ सैनिटाइज कर लिए. टैलीविजन चलाने की कोशिश करी तो जाना मुझे तो पता ही नहीं ये नए जमाने के स्मार्ट टैलीविजन कैसे चलाते हैं. थोड़ीबहुत कोशिश करी और फिर नीचे से लड़का बुला कर टैलीविजन चलवाया गया. एक म्यूजिक चैनल औन किया तो जाना न जाने कितने वर्ष हाथों से फिसल गए. न कोई गाना पहचान पा रही थी और न ही किसी अभिनेता या अभिनेत्री को. फिर भी कुछ ?िझक के साथ रजाई ओढ़ते हुए मैं लेट गई मन में यह सोचते हुए कि न जाने कितने जोड़ों ने इसे ओढ़ कर प्रेम क्रीड़ा करी होगी. टनटन करते हुए व्हाट्सऐप के दफ्तर वाले गु्रप पर कार्यों की बौछार हो रही थी. मैं ने तुरंत डेटा बंद किया.
अंदर बैठी हुई महिला ने मुसकरा कर शुक्रिया किया. करीब आधे घंटे बाद एक असीम शांति महसूस हुई, ऐसी शांति जो कभी योगा में भी लाख कोशिशों के बाद नहीं हुई थी. लेटे हुए यह सोच रही थी कि कौनकौन से मोड़ से जिंदगी गुजर गई और मुझे पता भी नहीं चला. फिर गुसलखाने जा कर अपनेआप को निहारने लगी, घर पर न तो फुरसत थी और न ही इजाजत, जैसे ही देखना चाहती कि एकाएक एक जुमला उछाला जाता, ‘‘अब क्या देख रही हो, कौन सा 16 साल की हो?’’
जैसे सुंदर दिखना बस युवाओं का मौलिक अधिकार है. 40 वर्ष की महिला तो महिला नहीं एक मशीन है. आईना देखते हुए मेरी त्वचा ने चुगली करी कि कब से पार्लर का मुंह नहीं देखा?
शायद पहले तो फिर भी माह में 1 बार चली जाती थी पर अब तो 9 माह से भी अधिक समय हो गया था. बाल भी बेहद रूखे और बेजान लग रहे थे. ?िझकते हुए रूम से बाहर निकली तो देखा सामने ही पार्लर भी था. बिना कुछ सोचे कमरे का ताला लगाया और पार्लर चली गई. हेयरस्पा और फेशियल कराया. बहुत मजा आया.
ऐसा लगा जैसे खुद के लिए कुछ करना अंदर से असीम शांति और खुशी भर देता है. जब 3 घंटे बाद कमरे में पहुंची तो कस कर भूख लग गई थी. इंटरकौम से खाना और्डर किया. बहुत दिनों बाद बिना किसी ग्लानि के अपनी पसंदीदा तंदूरी रोटी और बेहद तीखा कोल्हापुरी पनीर खाया. अब कोरोना का डर काफी हद तक दिमाग से निकल गया था.
जब पूरे 8 घंटे बिताने के बाद मैं घर पहुंची तो देखा चारों ओर घर में तूफान आया हुआ था. अभीअभी दोनों बच्चे लड़ाई कर के बैठे थे. पर यह क्या मुझे बिलकुल भी गुस्सा नहीं आया, गुनगुनाती हुई मैं रसोई में घुस गई और गरमगरम पोहे बनाने में जुट गई.
अंदर बैठी हुई खूबसूरत महिला फिर से दिल के दरवाजे पर दस्तख कर रही थी कि मैं अगली डेट पर कब जा रही हूं? शायद दूसरों को खुश करने से पहले खुद को खुश करना जरूरी है. इस कोरोनाकाल में मेरे अंदर जो चिड़चिड़ापन और तनाव बढ़ गया था वह आज काफी हद तक कम हो गया था.
एक दिन स्वयं के साथ बिता कर एक बात तो समझ आ गई कि खुद के साथ समय बिताना बेहद जरूरी है. लेकिन एक डेट के बाद यह भी समझ में अवश्य आ गया कि ऐसा कौंसैप्ट हमारे समाज में अभी प्रचिलित नहीं है. अभी यह रचना लिखते हुए भी मेरे दिमाग में यह बात आ रही है कि अगर उस दिन मुझे किसी जानपहचान वाले ने देख लिया होता तो शायद मैं भी उस के लिए एक अनसुलझी कहानी बन जाती. पर हम सब को तो मालूम है न कि हर प्रेम कहानी में थोड़ाबहुत जोखिम तो होता ही है और यह जोखिम मैं अब लेने के लिए तैयार हूं.