दर्द-भाग 3 : जिंदगी के उतार चढ़ावों को झेलती कनीजा

गनी ने अपने दोस्तों तथा दफ्तर के सहकर्मियों के लिए ईद की खुशी में खाने की दावत का विशेष आयोजन किया था. उस दिन कनीजा बी बहुत खुश थीं. घर में चहलपहल देख कर उन्हें ऐसा लग रहा था मानो दुनिया की सारी खुशियां उन्हीं के घर में सिमट आई हों.

गनी की ससुराल पास ही के शहर में थी. ईद के दूसरे दिन वह ससुराल वालों के विशेष आग्रह पर अपनी बीवी और बेटे के साथ स्कूटर पर बैठ कर ईद की खुशियां मनाने ससुराल की ओर चल पड़ा था. गनी तेजी से रास्ता तय करता हुआ बढ़ा जा रहा था कि एक ट्रक वाले ने गाय को बचाने की कोशिश में स्टीयरिंग पर अपना संतुलन खो दिया. परिणामस्वरूप उस ने गनी के?स्कूटर को चपेट में ले लिया. पतिपत्नी दोनों गंभीर रूप से घायल हो गए और डाक्टरों के अथक प्रयास के बावजूद बचाए न जा सके.

लेकिन उस जबरदस्त दुर्घटना में नन्हे नदीम का बाल भी बांका नहीं हुआ था. वह टक्कर लगते ही मां की गोद से उछल कर सीधा सड़क के किनारे की घनी घास पर जा गिरा था और इस तरह साफ बच गया था. वक्त के थपेड़ों ने कनीजा बी को अंदर ही अंदर तोड़ दिया था. मुश्किल यह थी कि वह अपनी व्यथा किसी से कह नहीं पातीं. उन्हें मालूम था कि लोगों की झूठी हमदर्दी से दिल का बोझ हलका होने वाला नहीं.

उन्हें लगता कि उन की शादी महज एक छलावा थी. गृहस्थ जीवन का कोई भी तो सुख नहीं मिला था उन्हें. शायद वह दुख झेलने के लिए ही इस दुनिया में आई थीं. रशीद तो उन का पति था, लेकिन हलीमा बी तो उन की अपनी नहीं थी. वह तो एक धोखेबाज सौतन थी, जिस ने छलकपट से उन्हें रशीद के गले मढ़ दिया था.

गनी कौन उन का अपना खून था. फिर भी उन्होंने उसे अपने सगे बेटे की तरह पालापोसा, बड़ा किया, पढ़ाया- लिखाया, किसी काबिल बनाया. कनीजा बी गनी के बेटे का भी भार उठा ही रही थीं. नदीम का दर्द उन का दर्द था. नदीम की खुशी उन की खुशी थी. वह नदीम की खातिर क्या कुछ नहीं कर रही थीं. कनीजा बी नदीम को डांटतीमारती थीं तो उस के भले के लिए, ताकि वह अपने बाप की तरह एक काबिल इनसान बन जाए.

‘लेकिन ये दुनिया वाले जले पर नमक छिड़कते हैं और मासूम नदीम के दिलोदिमाग में यह बात ठूंसठूंस कर भरते हैं कि मैं उस की सगी दादी नहीं हूं. मैं ने तो नदीम को कभी गैर नहीं समझा. नहीं, नहीं, मैं दुनिया वालों की खातिर नदीम का भविष्य कभी दांव पर नहीं लगाऊंगी.’ कनीजा बी ने यादों के आंसू पोंछते हुए सोचा, ‘दुनिया वाले मुझे सौतेली दादी समझते हैं तो समझें. आखिर, मैं उस की सौतेली दादी ही तो हूं, लेकिन मैं नदीम को काबिल इनसान बना कर ही दम लूंगी. जब नदीम समझदार हो जाएगा तो वह जरूर मेरी नेकदिली को समझने लगेगा. ‘गनी को भी लोगों ने मेरे खिलाफ कम नहीं भड़काया था, लेकिन गनी को मेरे व्यवहार से जरा भी शंका नहीं हुई थी कि मैं उस की बुराई पर अमादा हूं.

अब नदीम का रोना भी बंद हो चुका था. उस का गुस्सा भी ठंडा पड़ गया था. उस ने चोर नजरों से दादी की ओर देखा. दादी की लाललाल आंखों और आंखों में भरे हुए आंसू देख कर उस से चुप न रहा गया. वह बोल उठा, ‘‘दादीजान, पड़ोस वाली चचीजान अच्छी नहीं हैं. वह झूठ बोलती हैं. आप मेरी सौतेली नहीं, सगी दादीजान हैं. नहीं तो आप मेरे लिए यों आंसू न बहातीं. ‘‘दादीजान, मैं जानता हूं कि आप को जोरों की भूख लगी है, अच्छा, पहले आप खाना तो खा लीजिए. मैं भी आप का साथ देता हूं.’’

नदीम की भोली बातों से कनीजा बी मुसकरा दीं और बोलीं, ‘‘बड़ा शरीफ बन रहा है रे तू. ऐसे क्यों नहीं कहता. भूख मुझे नहीं, तुझे लगी है.’’

‘‘अच्छा बाबा, भूख मुझे ही लगी है. अब जरा जल्दी करो न.’’ ‘‘ठीक है, लेकिन पहले तुझे यह वादा करना होगा कि फिर कभी तू अपने मुंह से अपने अम्मीअब्बू के पास जाने की बात नहीं करेगा.’’

‘‘लो, कान पकड़े. मैं वादा करता हूं कि अम्मीअब्बू के पास जाने की बात कभी नहीं करूंगा. अब तो खुश हो न?’’ कनीजा बी के दिल में बह रही प्यार की सरिता में बाढ़ सी आ गई. उन्होंने नदीम को खींच कर झट अपने सीने से लगा लिया.

अब वह महसूस कर रही थीं, ‘दुनिया वाले मेरा दर्द समझें न समझें, लेकिन नदीम मेरा दर्द समझने लगा है.’

गुलदारनी – भाग 3 : चालाक शिकारी की कहानी

चौधरी राम सिंह को जब पता चला कि स्वाति प्रधानजी के साथ हरिद्वार घूम आई है तो उन की काटो तो खून नहीं वाली हालत हो गई. उन्हें उन की ‘गुलदारनी’ के बारे में सूचना मिली कि उस ने आज एक नया तगड़ा शिकार किया है.

उस रात 9 बजे चौधरी राम सिंह के पास स्वाति का फोन आया. वह उन से तुरंत मिलना चाहती थी. चौधरी सबकुछ भूल कर स्वाति के घर की ओर लपके, मानो उन्हें दुनिया की दौलत मिल गई हो.

नरदेव चौधरी राम सिंह को घर के अंदर ले गया. स्वाति गुलाबी गाउन पहने सोफे पर बैठी थी. उस ने चौधरी को भी सोफे पर ही बैठा लिया और कहा, ‘‘चौधरी साहब, हमारे तो बस आप ही हो. आप के कहे बिना तो हम एक कदम नहीं चलते.

‘‘आप ने प्रधानजी को मना लेने की बात कही थी, हम ने उन्हें मना लिया. अब बचा हरिया, उस से एक बार मिलाने का जुगाड़ बिठा दो, तो बात बन जाए.’’

आज रसोईघर में चाय नरदेव बना रहा था. स्वाति बेझिझक बोल रही थी, लेकिन चौधरी को समझ नहीं आ रहा था कि वे अपने मन की बात कहें कि स्वाति की बात का जवाब दें.

स्वाति के साथ अकेले बैठने का मौका, वह भी रात में उन्हें पहली बार मिला था. इस से पहले कि वे अपने मन की कुछ कह पाते, नरदेव चाय ले कर आ गया.

चौधरी राम सिंह मन मसोस कर रह गए. स्वाति की बात का जवाब देते हुए उन्होंने कहा, ‘‘हरिया, तुम्हारे घर तो आएगा नहीं, उसे किसी बहाने से मुझे अपने घर की बैठक पर ही बुलाना पड़ेगा.’’

‘‘चौधरी साहब, आप किसी बहाने से भी बस हरिया को अपनी बैठक पर बुला लो. बस, फिर मैं ने जानी या उस ने जानी.’’

चौधरी राम सिंह स्वाति की बात को कैसे टालते? उन्होंने अगले दिन ही शाम को हरिया को अपनी बैठक पर बुला लिया.

दिन तकरीबन ढल चुका था. हरिया के आते ही उन्होंने चुपके से स्वाति को फोन कर दिया.

स्वाति नरदेव के साथ चौधरी राम सिंह की बैठक पर पहुंची. हरिया को देखते ही वह भड़क गई, ‘‘क्यों रे हरिया, तू हमारी बहुत इज्जत उतारने में लगा है. बहुत पंचायत कराने में लगा है. बोल अभी उतारू तेरी इज्जत. अभी फाड़ूं अपना ब्लाउज और शोर मचाऊं कि हरिया ने मेरी इज्जत पर हाथ डाला है.’’

स्वाति का यह गुस्साया रूप देख कर हरिया तो हरिया चौधरी राम सिंह भी दंग रह गए. हरिया को लगा कि उस ने किस से पंगा मोल ले लिया. यहां तो लेने के देने पड़ने की नौबत आ गई. कहां तो वह नरदेव को जूते लगवाने की बिसात बिछा रहा था, कहां खुद जूते खाने की नौबत आ गई.

हरिया ने अपने बचाव का रास्ता ढूंढ़ते हुए कहा, ‘‘न जी न, मैं कोई पंचायत नहीं करवा रहा. मैं तो अपने घर जा रहा हूं.’’

उस दिन से गांव में हरिया की बोलती बंद हो गई. चौधरी के मन में भी डर बैठ गया कि जो हरिया को ऐसी धमकी दे सकती है, वह एक दिन उस के साथ भी ऐसा कर सकती है.

अगले दिन चौधरी राम सिंह को खबर मिली कि पिछली रात जंगल की ‘गुलदारनी’ ने एक पिंजरा और पलट दिया और पिंजरा लगाने वालों को भी घायल कर दिया.

चौधरी राम सिंह को स्वाति अभी भी बुलाती है, पर चौधरी या तो कोई बहाना बना देते हैं या फिर अपनी पत्नी के साथ ही स्वाति के घर जाते हैं. स्वाति अभी भी उन की खूब सेवा करती है. सुना है कि बिल्ली प्रजाति के जानवर अपने शिकार पर वापस लौटते हैं.

तीन युग – भाग 3 : क्या थी आसिफ की कहानी

तब नईमा बी झूठी मुसकान चेहरे पर सजा लेतीं, ‘‘अरे, मैं खाली बैठ कर क्या करूं, तबीयत घबराने लगती है… कामकाज से दिल बहला रहता है. फिर दुलहन के अभी अरमानों भरे दिन हैं, बाद में तो उसे ही अपना घरबार संभालना है.’’ लेकिन बुढ़ापा और गम दोनों ही नईमा बी को भीतर ही भीतर घुन की तरह चाटते गए. कोई अपना नहीं था, जिस से वह अपना दुखदर्द कहतीं.

तसल्ली के दो बोल बोलने वाला कोई नहीं था. नजमा जब तक यहां रही, मां का दुख हलका करने की कोशिश करती रही, पर जल्दी ही वह अपने पति के पास दुबई चली गई. आखिरकार अंदर ही अंदर गम सहते हुए नईमा बी बिस्तर पर पड़ गईं. शुरूशुरू में दिखावे को आसिफ ने मां का इलाज करवाया, पर उन के दिल के जख्मों को कोई न भर सका. वे सुबह से ही कुछ उदास सी थीं.

बच्चे स्कूल जा चुके थे. घर में सन्नाटा था. आसिफ तैयार हो कर दुकान पर जा रहा था, तभी दालान में पड़ी नईमा बी बोलीं, ‘‘बेटा, इस दवा से भी कोई फायदा नहीं हुआ. डाक्टर से कहना, कोई अच्छी दवा लिख दे…’’ ‘‘कहां तक बूढ़ी जान पर पैसा खर्च करेंगे आप? अरे, आज मरे, कल दूसरा दिन… यह हिसाब होता है बूढ़ों का. मेरी मानिए, दवादारू का चक्कर छोडि़ए. आखिर हमें भी तो अपने बच्चों के लिए सोचना है… उन की जिंदगी बनानी है…’’ नईमा बी की बात काटते हुए बहू आगे बढ़ आई थी और आसिफ बिना कोई जवाब दिए बाहर निकल गया.

इस तरह उन का इलाज भी उस दिन से बंद हो गया. मौत के इंतजार में वे टूटी खाट पर पड़ी पलपल गिना करतीं. दो रोटी सुबह और दो शाम को मिल जाती, पेट का दोजख भरने को. दूसरी किसी चीज की जरूरत भी कहां रह गई थी भला उसे. कूड़े की तरह कोने में पड़ी रहतीं नईमा बी. एक नईमा बी खुद, दूसरे शौहर, तीसरा बेटा… जिंदगी का कल, आज और कल. बचपन, जवानी और बुढ़ापा तीनों युगों ने ठगा था उन्हें. अचानक मुंडेर पर बैठा कौआ जोर से कांवकांव करने लगा. नईमा बी टूटी खाट पर पड़ी गुजरे जमाने की उलझी डोर को बीच में ही छोड़ कर गीली आंखों को पोंछने लगीं. फिर आसमान की तरफ देखते हुए वे सोचने लगीं, ‘शायद जिंदगी इसी को कहते हैं.’

तीन युग – भाग 2 : क्या थी आसिफ की कहानी

‘‘भई, अब तो नईमा अप्पी भी परवीन बाजी की तरह खूब चमचमाती साडि़यां पहना करेंगी. झुमके, झाले और पता नहीं क्याक्या, इन की बराबरी भला कहां कर पाएंगे हम लोग…’’ नईमा बनावटी ठंडी सांस भर फिर से गोटा टांकने लगी. ‘‘अप्पी, हम से मिलने रोज आना दूल्हा भाई के साथ,’’ छोटी नाजिया की बात पर सब बहनें हंस पड़ीं. ‘‘परवीन बाजी तो रोज आती हैं अपने दूल्हा के साथ… तुम क्यों नहीं आओगी?’’ नाजिया बेचारी खिसिया कर बोली.

‘‘आऊंगी नाजो, मैं भी आया करूंगी रोज,’’ गालों पर शर्म की लाली बिखेरती नईमा ने जवाब दिया. उस की आंखों में परवीन का चेहरा चमक गया, ‘वाकई परवीन की तरह मैं भी खूब सजधज कर मायके आया करूंगी, बल्कि उस से भी ज्यादा.’ परवीन नईमा के पड़ोस में रहती थी. दोनों बचपन की सहेलियां थीं. परवीन के घर काफी पैसा था. उस के बाप की कपड़े की दुकान थी. परवीन का घर भी शानदार था. पैसे की रेलपेल थी, सो छोटी सी उम्र में उस के लिए अच्छेअच्छे पैगाम आने लगे थे. पढ़ाई के बीच ही उस की शादी भी हो गई. वह तीसरेचौथे रोज सजधज कर अपने पति के साथ गाड़ी में मायके आती थी. ‘मैं भी उन के साथ खूब घूमा करूंगी,’

नईमा हर समय खोई रहती थी. पर सपने कभी सच नहीं होते. इस बात का एहसास नईमा को शादी के चंद दिनों बाद ही होने लगा था. नईमा के पति की बिजली के सामान की छोटी सी दुकान थी, जिस में वह दिनरात खटता रहता. उस से 2 छोटे भाई थे. एक मोटर का काम सीख रहा था, दूसरा पढ़ने जाता था. बाप अपने जमाने के बेहतरीन कारीगर थे, पर अब नजर बेकार हो जाने के चलते कुछ नहीं करते थे. इस तरह सारे घर की जिममेदारी जाकिर मियां पर थी, जिस से वह अकसर परेशान और चिढ़चिढ़ा रहता था. एक सास थी, जिन की जबान दिनभर चलती रहती थी और निशाना बेचारी नईमा बनती. उन की मिलने वाली कोईर् न कोई रोज आ जाती और बूढ़ी सास तेरीमेरी बहूबेटियों के बहाने नईमा को सौ बातें सुनाती रहतीं. इन्हीं तानों की मार के डर से बेचारी नईमा कई कई महीनों तक मायके जाने का नाम न लेती. सुबह से रात तक बावर्चीखाने में जुटी रहती.

पर तारीफ के दो बोल तक उस की झोली में न आते. मायके की याद आती, भाईबहन, मांबाप सब याद आते, लेकिन सास की जहरीली बातें याद कर वह कांप जाती कि पता नहीं कब उन पर या उन के मायके वालों पर भी कोई इलजाम लग जाए. कभीकभी जाकिर मियां ही जब मूड में होते तो 1-2 दिन के लिए बीवी को मायके छोड़ आते. पर बुढि़या जल्दी ही किसी न किसी बहाने से बुलवा लेती. सारा घर जो चौपट हो जाता था. रात तक नईमा थकहार कर आंखें बंद करती तो दिल किसी नन्हे बच्चे की तरह मचल उठता, ‘‘कहां हैं वे सुनहरे सुख, जिन के सपने देखे थे?’’

ऐसे में परवीन का हंसता हुआ चेहरा उस के सामने आ जाता. परवीन तो खूबसूरत भी नहीं थी, पढ़ाई भी अधूरी थी. फिर कैसे जिंदगी की सारी खुशियां उस की झोली मे उतर आई थीं, सौगात बन कर. दूसरी ओर खुद उन में क्या कमी थी, जो दुखों के सिवा उस के दामन में कुछ भी नहीं था. मोतियों की लड़ी टूट कर उस की आंखों से बिखरने लगती,

‘‘आखिर मेरी जिंदगी में ही अरमानों का खून क्यों लिखा है?’’ वह खुद से सवाल कर बैठती. वक्त का पहिया अपनी रफ्तार से चलता रहा. नईमा के आंगन के 2 फूल आसिफ और नजमा अब जवान हो चुके थे. सासससुर गुजर चुके थे. दोनों देवर अपने कदम जमा कर घरगृहस्थी चला रहे थे. जाकिर मियां की दिनरात की मेहनत रंग लाई थी.

उन की छोटी सी बिजली की दुकान काफी बड़ी बन चुकी थी. कई आदमी उन के पास नौकरी करते थे. जाकिर मियां की शुमार पैसे वालों में होने लगी थी. लेकिन वह तहेदिल से नईमा की मेहनत और कुरबानी के कायल थे. नईमा खुद भी अब नमकीन चेहरे वाली सलोनी न रह गई थी. अपनी जवानी उन्होंने पति और बच्चों पर कुरबान कर दी थी, शायद इस उम्मीद के सहारे कि यह कुरबानी कभी बेकार नहीं जाएगी. सारी जिंदगी खूनपसीना बहा कर जो पूंजी उन्होंने जमा की है, वह अनमोल है. कभीकभी नईमा सोचती कि चलो, तमाम जिंदगी कड़ी धूप में झुलसने के बाद अब वह बेटे के सहारे ठंडी छाया में जिंदगी के बचे दिन गुजार देगी. काफी पैसा आ जाने के बाद भी नईमा ने उसी तरह गुजरबसर कर घर में अपनी हैसियत ऊंची की थी. दहेज दे कर बड़े चाव से अपनी बेटी नजमा की शादी बड़े घर में की थी.

अपनी नाकाम तमन्नाएं अपनी बेटी के रूप में पूरी की. मुंहमांगा दहेज दे कर बेटी की ससुराल वालों का नईमा ने हमेशा के लिए मुंह बंद कर दिया था, ताकि उस की बेटी पर कभी दुखों का साया भी न पड़े. नजमा की शादी कर उस ने सुख की सांस लेनी चाही, पर सुख हमेशा की तरह दूर थे, उस की पहुंच से. जाकिर मियां अचानक बीमार पड़ गए. ऐसे पलंग से लगे कि जल्दी ही दुनिया छोड़ दी. गम का पहाड़ नईमा पर आ गिरा. पर जल्दी ही खुद को संभाला.

बाप का साया सिर पर से उठने के बाद कहीं आसिफ गलत राहों पर न चल दे, इसलिए अपने गमों को भुला कर उस ने बेटे के लिए लड़की की तलाश करना शुरू कर दिया. लोगों ने उस की ऊंची हैसियत के मुताबिक बड़ेबड़े घरों के एक से बढ़ कर एक लड़कियों के रिश्ते बताए.

लेकिन नईमा को अपने बीते दिन याद थे. उस ने अच्छी से अच्छी बड़े घर की लड़कियों को ठुकरा कर गरीब घर की लड़की अपनाई. ब्याह कर घर लाते ही अपनी कुल जमापूंजी उस की झोली में डालते हुए कहा, ‘‘दुलहन, यह सबकुछ आज से तुम्हारा है.’’ पर शायद नईमा बी की जिंदगी में सुख था ही नहीं, बहू ने जो पैसे की चमक देखी तो अपनी औकात ही भूल गई. चंद दिनों में ही आसिफ को ऐसी पट्टी पढ़ाई कि मां की सूरत देखना भी भूल गया. बेचारी नईमा बी सारा दिन बावर्चीखाने में घुटती रहती, पर बेटा पलट कर न पूछता कि मां तुम क्यों काम कर रही हो? पड़ोस की औरतें कहतीं, ‘अरे खाला, अब तो बहू ले आई हो, कुछ तो बुढ़ापे में आराम कर लो.’

दोराहा – भाग 2 : क्या हुआ था उस रात

जब भीड़ चौकी के बाहर खड़ी जीप के पास पहुंची, तो देखा कि ग्लास फैक्टरी का मालिक सेठ दयालराम अपने हिमायती लोगों के बीच खड़ा मंगलू और उस के घर वालों को गंदी गालियां दे रहा था.

आएदिन उन गलियों में मारपीट, गालीगलौज देखनेसुनने के आदी लोगों ने इस से यह अंदाज तो लगा लिया कि आज मंगलू की किसी करतूत से सेठ दयालराम परेशान हैं, तभी तो उतना हंगामा हो रहा था.

पुलिस वालों की सरगर्मी और सख्त चेहरों को देख कर लोग अटकल लगा रहे थे कि इस बार मंगलू नहीं बचेगा.

‘‘अरे, सेठ चाहे तो

10 बस्तियां चुटकियों में खरीद ले. मंगलू जैसे तो बीसियों भर रखे हैं उस ने अपनी फैक्टरी में.’’

‘‘फिर इस की जुर्रत तो देखो.’’

सेठ के पैरों पर गिरा हुआ मंगलू का बाप और लगभग कमर तक झुकी उस की मां दोनों बेटे के लिए दया की भीख मांग रहे थे. मंगलू को देखते ही सेठ का गुस्सा और बढ़ गया. वह पैरों पर गिर कर गिड़गिड़ाते हुए मरियल शरीर के मंगलू के बाप को पीछे धकेलते हुए नफरत से चिल्ला कर बोला, ‘‘इंस्पैक्टर, हटाओं इन्हें यहां से. इन बदमाश लफंगों ने जीना हराम कर दिया है हम शरीफ लोगों का.’’

इंस्पैक्टर, जो सेठ दयालराम की दया और गुस्से की ताकत जानता था, बिना कोई जवाब दिए जल्दी से मंगलू को जीप में बैठा कर बड़े थाने की तरफ चल पड़ा.

जीप कालोनी से दूर होती गई.

2 सिपाहियों के साथ पीछे बिलकुल चुपचाप बैठे मंगलू की आंखों के सामने बारबार सेठ के पैरों पर गिर कर गिड़गिड़ाता हुआ अपने बाप का

चेहरा घूमने लगा. उस के कानों में सेठ की गालियां हथौड़े जैसी चोट कर

रही थीं.

सड़क के गड्ढों पर उछलती जीप के झटकों के बावजूद बारबार इन शब्दों को दोहराती उस की याद पीछे लौटती हुई बचपन के उन दिनों तक पहुंच

गई, जब उस की जिंदगी पर किसी गलत व गैरकानूनी काम की छाया तक नहीं पड़ी थी.

मंगलू को याद आने लगा सेठ दयालराम का वह बड़ा बंगला जिस में उस का बाप, उस की मां और वह खुद तीनों जीजान से पूरे दिन काम किया करते थे. बदले में उन्हें दो वक्त का खाना और नाममात्र की मजदूरी मिलती थी. उस का बाप सुबह से दोपहर तक फैक्टरी में काम करता. दोपहर से शाम तक बंगले के बगीचे में अपने हाथों से उगाए फूलों की क्यारियों की गुड़ाई करता व उन्हें सजातासंवारता था. शाम को सेठानी जोजो सब्जियां या फल बाजार से मंगातीं, ले आता. कई बार घंटों शराब की दुकान पर लाइन में लग कर सेठ के लिए शराब की बोतलें खरीदता. फिर रात देर तक सेठ के साथ उन के दोस्तों को खाना परोसते हुए उन से बख्शीश में मिली बचीखुची शराब पी कर नशे में घर लौटता. उसे नशे की लत इस बख्शीश की ही देन थी.

क्रेजी कल्चर – भाग 2

‘‘अंकल, यह क्या कर रहे हैं आप?’’ आशु एकदम से उठने की कोशिश करने लगी.‘‘बैठी रहो चुपचाप…’’ उस आदमी की पत्नी चिल्लाई. तब तक अंकल ने आशु को जकड़ कर उस पर चुम्मों की बरसात कर दी थी. वे बहुत देर तक आशु के शरीर को यहांवहां टटोलते रहे और आंटी अपने मोबाइल फोन से फोटो खींचती रहीं.‘‘चलो, उठो अब यहां से,’’

आंटी आशु से बोलीं.आशु तुरंत उठ गई.‘‘रुको… प्रोडक्ट कितने के हुए?’’ अंकल ने पूछा.घबराई आशु ने धीरे से कहा, ‘‘2,000 रुपए के.’’‘‘ये लो 5,000 पकड़ो… 2,000 तुम्हारे प्रोडक्ट के, 3,000 तुम्हारी टिप… जो चुम्मे दिए अंकल को…’’ आंटी बोलीं, ‘‘क्योंकि ये चुम्मा लेने के अलावा कुछ कर भी नहीं सकते… नामर्द हैं… उम्र हो गई है… ठीक है न…’’

कह कर आंटी ने ‘भड़ाक’ से दरवाजा बंद कर दिया.आशु सोचती रह गई, पर जब वह वापस घर पहुंची तो बड़ी खुश थी. उस के पास 3,000 रुपए जो थे.

उसे याद आया कि कालेज में एक रईसजादा उस पर लाइन मारता है, पर वह उसे भाव नहीं देती है. अगर वह चुम्मे के बदले उस से पैसे वसूले तो… यह सब सोचते हुए आशु को रात को नींद नहीं आई.

उस ने फैसला किया कि पैसे की कमी में वह उन अंकल के पास भी कभीकभी चली जाएगी, लेकिन कल उस कार वाले रईसजादे से ‘हैलो’ से शुरुआत की जाए.

अगले दिन जब आशु कालेज से बाहर निकली तो कार वाला लड़का गेट के बाहर खड़ा था. आशु ने उसे देख कर एक मुसकराहट उछाली. कार वाला लड़का उस के पास पहुंचा और हाथ आगे बढ़ाते हुए बोला, ‘‘हैलो, मैं नीरज…’’‘‘और मैं आशु,’’ कह कर उस ने भी अपना हाथ आगे बढ़ा दिया.नीरज ने कहा, ‘‘अगर फ्री हो, तो कहीं चल कर कौफी पी जाए?’’

आशु ने ‘हां’ कर दी, तो नीरज ने कार का दरवाजा खोला. आशु ने कार के अंदर बैठ कर खुद को राजकुमारी सा महसूस किया. वह पहली बार किसी लड़के के साथ कार में बैठी थी.कौफी पीने के दौरान नीरज ने बताया कि उस के पापा के कई पैट्रोल पंप हैं और वह एकलौता लड़का है. उस ने यह भी बताया कि वह गुजराती साइंस ऐंड कौमर्स कालेज का स्टूडैंट है.

आशु बड़ी प्रभावित हुई. नीरज ने आशु को पहला गिफ्ट एक मोबाइल फोन दिया. कुछ महीने तक मिलनेमिलाने का सिलसिला चलता रहा.

कभीकभी कार चलाते चलाते सूने रास्तों पर नीरज ने उस के कई बार चुम्मे लिए थे.आशु ने अपने घर पर बताया था कि दोनों बहनों ने बचत कर के यह मोबाइल फोन खरीदा था. इस तरह से ईशा भी उस का राज जान गई थी.एक दिन नीरज आशु को अपने घर ले गया.

उस समय वहां कोई नहीं था. उस ने आशु के लिए एक नाइटी खरीदी थी. पहले तो आशु झिझकी, पर नीरज की अमीरी उस पर हावी थी. वह जैसे ही नाइटी पहन कर बैडरूम में गई, नीरज ने मौके का फायदा उठा कर आशु की इज्जत तारतार कर दी.नीरज ने अपनी हवस का वीडियो बनाया और बोला, ‘‘मेरी जान, हमारे प्यार की याद अमर बनाने के लिए यह वीडियो जरूरी है.

तुम डिजिटल लड़की हो…’’ इस के बाद नीरज के साथसाथ उस के कई दोस्तों ने आशु को अपनी हवस का शिकार बनाया.इधर ईशा को आशु पर शक होने लगा कि वह कुछ गलत कर रही है, क्योंकि रात में जब आशु कपड़े चेंज कर के नाइटी डाल कर बिस्तर पर आती थी, तो उस के गले, पीठ और छाती पर काटने के लाल निशान दिखते थे. धीरेधीरे ईशा को आशु के क्रेजी होने पर नफरत सी होने लगी.एक दिन ऐसा आया कि अचानक आशु ने खुदकुशी कर ली.

सरकारी कालोनी में बाथरूम घर में नहीं बने हो कर, घर के बाहर बने थे. आशु ने बाथरूम में जा कर कैरोसिन छिड़क कर खुद को आग के हवाले कर लिया था… जब सहन नहीं हुआ तो वह बाहर चिल्लाती हुई मैदान में भागने लगी, पर उस की जान नहीं बच पाई.

तभी अचानक ईशा अपनी यादों से बाहर निकल आई. वह पसीने से तरबतर थी. वह तेजी से कालेज से बाहर भागी और सड़क पर आटोरिकशा का इंतजार करने लगी.जब तक ईशा घर पहुंची, तब तक उस का बदन तपने लगा था. वह सीधी अपने बिस्तर में जा घुसी.

‘‘यह कौन सा समय है सोने का…’’ कहते हुए मां ने ईशा के चेहरे से कंबल हटाया, ‘‘चल उठ ईशा, चाय पी ले.’’ईशा ने कोई जवाब नहीं दिया.मां ने जैसे ही ईशा के माथे पर हाथ रखा, तो वे घबरा गईं और तुरंत ही गज्जू को आवाज लगाई. गज्जू और बाबा दोनों कमरे में आ गए.घर से कुछ ही दूर एक क्लिनिक था. गज्जू ईशा को वहीं ले गया. कुछ मैडिसिन ले कर ईशा गज्जू के साथ वापस आ गई.दवा लेने के बाद भी ईशा का बुखार कम नहीं हो रहा था.

आखिर में किसी ने मनोचिकित्सक के पास जाने की सलाह दी और कहा कि शायद ईशा पर किसी घटना का बुरा असर पड़ा है और वह उस बात को भुला नहीं पा रही है.मां बड़ी मुश्किल से राजी हुईं. शहर के मशहूर मनोचिकित्सक डाक्टर रमन जैन के पास ईशा को ले जाया गया.

डाक्टर रमन जैन ने ईशा के बारे में नौर्मल जानकारी ली और ईशा के लंबे बालों की जम कर तारीफ की. उन्होंने ईशा से कहा, ‘‘मेरी बेटी ने तो मौडर्न बनने के चक्कर में अपने बालों को छोटा करवा दिया है. कुछ टिप्स मेरी बेटी को भी देना, ताकि उस के बाल भी लंबे और खूबसूरत हो जाएं.’’

‘‘जी डाक्टर साहब,’’ इतनी देर से चुपचाप ईशा के चेहरे पर हलकी सी मुसकराहट आ गई.‘‘अगली मुलाकात में अपनी बेटी से तुम्हारी बात करवाऊंगा,’’ डाक्टर रमन जैन बोले.जब ईशा घर पहुंची, तो उसे हलकापन महसूस हो रहा था. मां प्यार से उस का सिर सहलाने लगीं. रात को खाना खाने के बाद ईशा ने दवा ली और सो गई. उसे सपने में आशु नहीं दिखी, क्योंकि उस ने नींद आने की दवा भी खाई थी. यह सिलसिला 10 दिनों तक चलता रहा. पूरा परिवार ईशा की देखभाल करता रहा. उसे अकेला नहीं छोड़ा गया.

फ्रैंडशिप क्लब का चक्कर – भाग 2

‘‘10 मिनट के भीतर बैरा सारा सामान ले आया और मेज पर सजा दिया.‘‘लड़की छोटेछोटे पैग बनाने लगी. हम पी रहे थे और वह मेरे बदन से खेल रही थी. इसी बीच धीरेधीरे उस ने कपड़े उतारने शुरू कर दिए थे. मैं यह सब देख कर हैरान था.‘‘उस ने मु?ा से कहा, ‘तुम कपड़े क्यों नहीं उतार रहे?

खेल का एक दौर तो चले. फिर मेरी सहेली भी आती होगी.’‘‘इतना कह कर उस ने वोदका का एक बड़ा पैग गटका और मेरे कपड़े उतारने लगी. फिर उस ने मेरे नाजुक अंगों पर हाथ फेरना शुरू कर दिया. मैं अपना जोश संभाल न सका. इस पर वह लड़की खिलखिला कर हंस पड़ी.

‘‘उस ने कहा, ‘कोई बात नहीं, शुरूशुरू में ऐसा होता है. हम तुम्हें तैयार कर देंगे. ‘‘‘अच्छा, यह बताओ कि तुम ने पहले किसी लड़की से सैक्स किया है या नहीं?’‘‘मैं ने कहा, ‘नहीं जी, कभी नहीं.’‘‘वह लड़की बोली, ‘तभी तो… चलो, कोई बात नहीं…’ ‘‘तभी दरवाजे की घंटी बजी. वह लड़की बोली, ‘लो, वह भी आ गई…’‘‘एक मोटीताजी लड़की मिनी स्कर्ट और टौप में थी.

मैं ने जल्दी से बैड की चादर से अपनेआप को छिपाने की कोशिश की, पर उस लड़की ने वह चादर हटा दी और बोली, ‘इस तरह शरमाओगे, तो कैसे काम चलेगा?’‘‘उस लड़की ने आते ही मु?ो बांहों में भरते हुए कहा, ‘चूजा तो अच्छा दिखता है. देखें, कमाल क्या दिखाता है?’‘‘उस ने भी अपने बैग से एक अद्धा निकाला और उस लड़की से कहा, ‘जल्दी खाना मंगवाओ. खाने के बाद ही खेल शुरू होगा.’‘‘उस लड़की ने कमरे में लगे फोन से खाने का और्डर दिया.‘‘15 मिनट के बाद खाना आ गया.

उन दोनों ने तो जम कर खाया, पर ज्यादा नशे में होने के चलते मैं ज्यादा नहीं खा सका.‘‘इस के बाद उस लड़की ने अपने सारे कपड़े उतार डाले और मु?ो पलंग पर धकेल दिया. उस ने मु?ो चूमनाचाटना और दांतों से काटना शुरू कर दिया.‘‘मैं बिलबिला उठा. उस ने अभी असली खेल शुरू ही किया था कि मैं फिर अपना जोश संभाल नहीं पाया. इस पर उस ने मु?ो पलंग से धक्का दे दिया और कपड़े पहनने लगी.‘‘उस ने कहा, ‘यह चूजा सिर्फ दिखने में ठीक है, पर किसी काम का नहीं.

’‘‘मैं बहुत शर्मिंदा हो रहा था. पहली वाली लड़की ने कहा, ‘यह एकदम कोरा है. मैं कोशिश करती हूं.’‘‘अब वह उछल कर पलंग पर आई और मु?ो दबोच लिया. फिर वही चूमनाचाटना और दांतों से काटना, पर उस की लाख कोशिशों के बावजूद मैं जोश में नहीं आ पा रहा था.

आखिर में निराश हो कर उस ने मु?ो एक जोरदार लात मारी और अपने कपड़े पहनने लगी.‘‘तब उस मोटी लड़की ने कहा, ‘इस चूजे को हम छोड़ेंगे नहीं. मैं कालू पठान को फोन लगाती हूं. वही इस का इलाज करेगा.’‘‘यह सुन कर मैं डर गया. उधर वह मोटी लड़की कालू पठान को फोन लगा कर बता रही थी, ‘अरे, एक चूजा जाल में फंसा था, पर किसी काम का नहीं है. तेरे लिए अच्छा रहेगा. जल्दी आ जा.’‘‘पता नहीं, उधर से क्या आवाज आई, पर आधे घंटे बाद दरवाजे की घंटी बजी. मोटी लड़की ने आगे बढ़ कर दरवाजा खोला, तो एक लंबाचौड़ा आदमी अंदर आया.

‘‘अंदर आते ही वह सोफे पर पसर गया और पूछा, ‘कुछ पीने को है?’‘‘अभी वोदका का एक अद्धा वैसे ही पड़ा था. उस ने 2-3 पैग लगाए. दोनों लड़कियों को बांहों में भर कर किस किया और मेरे पास आ कर मेरे गालों को सहलाते हुए बोला, ‘सच, तू तो बड़ा मजेदार चूजा है.’‘‘यह सुन कर मैं और ज्यादा डर गया कि कहीं यह मु?ा से सैक्स न करे. मैं चुपचाप पड़ा था. मेरे शरीर ने हरकत करनी बंद कर दी थी, इधर दोनों अधनंगी लड़कियां ठहाके लगा रही थीं. पठान ने मोटी लड़की से कहा,

‘फिल्म तो तू बनाएगी न? चल तैयार हो जा.’‘‘यह सुनते ही उस लड़की ने बैग से कैमरा निकाल लिया. फिर उस ने पहली वाली लड़की से कहा, ‘देख, यह पूरी तरह कोरा है. काफी चीखपुकार मचाएगा. मेरे बैग में रस्सी होगी. निकाल ला और अच्छी तरह से बांध दे.’‘‘अब मेरी सम?ा में आ गया कि मेरे साथ क्या होने जा रहा था. पठान ने मेरे गालों को काटते हुए कहा, ‘चल, अच्छे बच्चे की तरह पेट के बल लेट जा.’‘‘मैं ने जब कोई हरकत नहीं की, तो उस ने जबरदस्ती मु?ो पलट दिया. लड़कियां खिलखिला कर हंस रही थीं. पहली वाली ने मेरे पैरों को चौड़ा कर पलंग के किनारे वाले हुकों से बांध दिया.

उसी तरह हाथों को भी.‘‘पठान ने कहा, ‘देख, यह चिल्लाएगा. टैलीविजन को तेज आवाज में चला दे.’ ‘‘इस के बाद वह मु?ा पर लद गया. मु?ा पर बेहोशी छा गई. पता नहीं, पठान कब तक मु?ा पर लदा रहा.‘‘सुबह जब आंख खुली, तो दर्द से मैं बेहाल था.‘‘मैं ने समय देखने के लिए हाथ सीधा करना चाहा तो पाया कि घड़ी नहीं थी. गले में सोने की एक चेन थी, वह भी गायब. मोबाइल फोन की तरफ हाथ बढ़ाया, तो एक पुराना सस्ता सा मोबाइल दिखाई पड़ा.‘‘मेरा महंगा मोबाइल गायब हो चुका था.

पैंट की जेब में हाथ डाला, तो पर्स गायब. उस में 6-7 हजार रुपए थे.‘‘मैं बुरी तरह लुट गया था. यह तो कहिए कि मेरे फोन से सिम निकाल कर उन्होंने इस पुराने मोबाइल फोन में लगा दी थी.‘‘इतनी मेहरबानी उन्होंने क्यों की थी, इस का पता मु?ो बाद में चला. ‘‘सब से पहले तो मैं ने दफ्तर में फोन मिला कर सूचना दे दी कि अचानक तेज बुखार हो जाने के कारण आज नहीं आ पाऊंगा.

‘‘तभी होटल का बैरा आया. उस ने पूछा कि रात कैसी रही साहब? अभी कुछ नाश्ता और चाय लेंगे?‘‘मैं ने कहा कि चायनाश्ता ले लूंगा. ‘‘15 मिनट के भीतर चायनाश्ता ले कर आ गया. इस बीच मैं नहाधो कर कपड़े पहन कर तैयार हो गया था.‘‘मैं नाश्ता करने लगा, पर बैरा वहीं खड़ा रहा. उस ने पूछा कि साहब, आज रहोगे? मेरे नहीं कहने पर उस ने कहा कि फिर बिल ले आता हूं.

दर्द – भाग 2 : जिंदगी के उतार चढ़ावों को झेलती कनीजा

कनीजा बी भी गनी को एक सगे बेटे की तरह चाहने लगीं. वह गनी पर अपना पूरा प्यार उड़ेल देतीं और गनी भी ‘अम्मीअम्मी’ कहता हुआ उन के आंचल से लिपट जाता.

अब गनी 5 साल का हो गया था और स्कूल जाने लगा था. मांबाप बेटे के उज्ज्वल भविष्य को ले कर सपना बुनने लगे थे.

इसी बीच एक हादसे ने कनीजा बी को अंदर तक तोड़ कर रख दिया.

वह मकर संक्रांति का दिन था. रशीद अपने चंद हिंदू दोस्तों के विशेष आग्रह पर उन के साथ नदी पर स्नान करने चला गया. लेकिन रशीद तैरतेतैरते एक भंवर की चपेट में आ कर अपनी जान गंवा बैठा.

रशीद की असमय मौत से कनीजा बी पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा, लेकिन उन्होंने साहस का दामन नहीं छोड़ा.

उन्होंने अपने मन में एक गांठ बांध ली, ‘अब मुझे अकेले ही जिंदगी का यह रेगिस्तानी सफर तय करना है. अब और किसी पुरुष के संग की कामना न करते हुए मुझे अकेले ही वक्त के थपेड़ों से जूझना है.

‘पहला ही शौहर जिंदगी की नाव पार नहीं लगा सका तो दूसरा क्या पार लगा देगा. नहीं, मैं दूसरे खाविंद के बारे में सोच भी नहीं सकती.

‘फिर रशीद की एक निशानी गनी के रूप में है. इस का क्या होगा? इसे कौन गले लगाएगा? यह यतीम बच्चे की तरह दरदर भटकता फिरेगा. इस का भविष्य अंधकारमय हो जाएगा. मेरे अलावा इस का भार उठाने वाला भी तो कोई नहीं.

‘इस के नानानानी, मामामामी कोई भी तो दिल खोल कर नहीं कहता कि गनी का बोझ हम उठाएंगे. सब सुख के साथी?हैं.

‘मैं गनी को लावारिस नहीं बनने दूंगी. मैं भी तो इस की कुछ लगती हूं. मैं सौतेली ही सही, मगर इस की मां हूं. जब यह मुझे प्यार से अम्मी कह कर पुकारता है तब मेरे दिल में ममता कैसे उमड़ आती है.

‘नहींनहीं, गनी को मेरी सख्त जरूरत है. मैं गनी को अपने से जुदा नहीं कर सकती. मेरी तो कोई संतान है ही नहीं. मैं इसे ही देख कर जी लूंगी.

‘मैं गनी को पढ़ालिखा कर एक नेक इनसान बनाऊंगी. इस की जिंदगी को संवारूंगी. यही अब जिंदगी का मकसद है.’

और कनीजा बी ने गनी की खातिर अपना सुखचैन लुटा दिया, अपना सर्वस्व त्याग दिया. फिर उसे एक काबिल और नेक इनसान बना कर ही दम लिया.

गनी पढ़लिख कर इंजीनियर बन गया.

उस दिन कनीजा बी कितनी खुश थीं जब गनी ने अपनी पहली तनख्वाह ला कर उन के हाथ पर रख दी. उन्हें लगा कि उन का सपना साकार हो गया, उन की कुरबानी रंग लाई. अब उन्हें मौत भी आ जाए तो कोई गम नहीं.

फिर गनी की शादी हो गई. वह नदीम जैसे एक प्यारे से बेटे का पिता भी बन गया और कनीजा बी दादी बन गईं.

कनीजा बी नदीम के साथ स्वयं भी खेलने लगतीं. वह बच्चे के साथ बच्चा बन जातीं. उन्हें नदीम के साथ खेलने में बड़ा आनंद आता. नदीम भी मां से ज्यादा दादी को चाहने लगा था.

उस दिन ईद थी. कनीजा बी का घर खुशियों से गूंज रहा था. ईद मिलने आने वालों का तांता लगा हुआ था.

गनी ने अपने दोस्तों तथा दफ्तर के सहकर्मियों के लिए ईद की खुशी में खाने की दावत का विशेष आयोजन किया था.

उस दिन कनीजा बी बहुत खुश थीं. घर में चहलपहल देख कर उन्हें ऐसा लग रहा था मानो दुनिया की सारी खुशियां उन्हीं के घर में सिमट आई हों.

गनी की ससुराल पास ही के शहर में थी. ईद के दूसरे दिन वह ससुराल वालों के विशेष आग्रह पर अपनी बीवी और बेटे के साथ स्कूटर पर बैठ कर ईद की खुशियां मनाने ससुराल की ओर चल पड़ा था.

गनी तेजी से रास्ता तय करता हुआ बढ़ा जा रहा था कि एक ट्रक वाले ने गाय को बचाने की कोशिश में स्टीयरिंग पर अपना संतुलन खो दिया. परिणामस्वरूप उस ने गनी के?स्कूटर को चपेट में ले लिया. पतिपत्नी दोनों गंभीर रूप से घायल हो गए और डाक्टरों के अथक प्रयास के बावजूद बचाए न जा सके.

लेकिन उस जबरदस्त दुर्घटना में नन्हे नदीम का बाल भी बांका नहीं हुआ था. वह टक्कर लगते ही मां की गोद से उछल कर सीधा सड़क के किनारे की घनी घास पर जा गिरा था और इस तरह साफ बच गया था.

वक्त के थपेड़ों ने कनीजा बी को अंदर ही अंदर तोड़ दिया था. मुश्किल यह थी कि वह अपनी व्यथा किसी से कह नहीं पातीं. उन्हें मालूम था कि लोगों की झूठी हमदर्दी से दिल का बोझ हलका होने वाला नहीं.

उन्हें लगता कि उन की शादी महज एक छलावा थी. गृहस्थ जीवन का कोई भी तो सुख नहीं मिला था उन्हें. शायद वह दुख झेलने के लिए ही इस दुनिया में आई थीं.

रशीद तो उन का पति था, लेकिन हलीमा बी तो उन की अपनी नहीं थी. वह तो एक धोखेबाज सौतन थी, जिस ने छलकपट से उन्हें रशीद के गले मढ़ दिया था.

गनी कौन उन का अपना खून था. फिर भी उन्होंने उसे अपने सगे बेटे की तरह पालापोसा, बड़ा किया, पढ़ाया- लिखाया, किसी काबिल बनाया.

कनीजा बी गनी के बेटे का भी भार उठा ही रही थीं. नदीम का दर्द उन का दर्द था. नदीम की खुशी उन की खुशी थी. वह नदीम की खातिर क्या कुछ नहीं कर रही थीं. कनीजा बी नदीम को डांटतीमारती थीं तो उस के भले के लिए, ताकि वह अपने बाप की तरह एक काबिल इनसान बन जाए.

‘लेकिन ये दुनिया वाले जले पर नमक छिड़कते हैं और मासूम नदीम के दिलोदिमाग में यह बात ठूंसठूंस कर भरते हैं कि मैं उस की सगी दादी नहीं हूं. मैं ने तो नदीम को कभी गैर नहीं समझा. नहीं, नहीं, मैं दुनिया वालों की खातिर नदीम का भविष्य कभी दांव पर नहीं लगाऊंगी.’ कनीजा बी ने यादों के आंसू पोंछते हुए सोचा, ‘दुनिया वाले मुझे सौतेली दादी समझते हैं तो समझें. आखिर, मैं उस की सौतेली दादी ही तो हूं, लेकिन मैं नदीम को काबिल इनसान बना कर ही दम लूंगी. जब नदीम समझदार हो जाएगा तो वह जरूर मेरी नेकदिली को समझने लगेगा.

‘गनी को भी लोगों ने मेरे खिलाफ कम नहीं भड़काया था, लेकिन गनी को मेरे व्यवहार से जरा भी शंका नहीं हुई थी कि मैं उस की बुराई पर अमादा हूं.

अब नदीम का रोना भी बंद हो चुका था. उस का गुस्सा भी ठंडा पड़ गया था. उस ने चोर नजरों से दादी की ओर देखा. दादी की लाललाल आंखों और आंखों में भरे हुए आंसू देख कर उस से चुप न रहा गया. वह बोल उठा, ‘‘दादीजान, पड़ोस वाली चचीजान अच्छी नहीं हैं. वह झूठ बोलती हैं. आप मेरी सौतेली नहीं, सगी दादीजान हैं. नहीं तो आप मेरे लिए यों आंसू न बहातीं.

‘‘दादीजान, मैं जानता हूं कि आप को जोरों की भूख लगी है, अच्छा, पहले आप खाना तो खा लीजिए. मैं भी आप का साथ देता हूं.’’

नदीम की भोली बातों से कनीजा बी मुसकरा दीं और बोलीं, ‘‘बड़ा शरीफ बन रहा है रे तू. ऐसे क्यों नहीं कहता. भूख मुझे नहीं, तुझे लगी है.’’

‘‘अच्छा बाबा, भूख मुझे ही लगी है. अब जरा जल्दी करो न.’’

‘‘ठीक है, लेकिन पहले तुझे यह वादा करना होगा कि फिर कभी तू अपने मुंह से अपने अम्मीअब्बू के पास जाने की बात नहीं करेगा.’’

‘‘लो, कान पकड़े. मैं वादा करता हूं कि अम्मीअब्बू के पास जाने की बात कभी नहीं करूंगा. अब तो खुश हो न?’’

कनीजा बी के दिल में बह रही प्यार की सरिता में बाढ़ सी आ गई. उन्होंने नदीम को खींच कर झट अपने सीने से लगा लिया.

अब वह महसूस कर रही थीं, ‘दुनिया वाले मेरा दर्द समझें न समझें, लेकिन नदीम मेरा दर्द समझने लगा है.’ द्य

दोराहा – भाग 1 : क्या हुआ था उस रात

इंदिरा नगर की झुग्गीझोंपड़ी कालोनी वाले बस स्टौप के बिलकुल पीछे बने 2 कमरों में एक छोटी सी पुलिस चौकी बनी हुई थी. कालोनी की तंग और भीड़भाड़ वाली सड़क पर बने मकानों के निचले हिस्सों में दुकानें थीं और ऊपर वाले कमरों में लोग रहा करते थे.

बारिश होने के चलते गरमी की उस दोपहर में कई दिन बाद राहत महसूस की जा रही थी. बरसात के बाद बंद कमरों में उमस बढ़ गई थी. उस से बचने के लिए कालोनी के ज्यादातर लोग घर के बाहर चारपाइयां डाले

बैठे थे.

उन्हीं की तरह 3 पुलिस के जवान भी पुलिस चौकी के बाहर बेंत की बुनी कुरसियों पर बैठे ठंडे मौसम का मजा लेते हुए आपस में बातचीत कर रहे थे.

तभी सामने से आ कर काली पैंट और पीली धारीदार कमीज पहने एक दुबलेपतले लड़के ने धीरे से उन से कुछ कहा, जिसे सुनते ही वे तीनों कमर

की पेटी कसते हुए चौकी से तकरीबन 60-70 मीटर दूर 8 नंबर की संकरी सी गली की तरफ मुड़ गए.

उन के साथ ही आसपास के लोग उस गली की तरफ लपके. पुलिस को देखते ही लोगों के मन में किसी अनहोनी घटना का खयाल उमड़ने लगा. पुलिस यानी कोई कांड. लेकिन क्या, कहां और कैसे? वगैरह सवालों का जवाब उन्हें नहीं मिल पाया.

इसी दौरान उस झुग्गीझोंपड़ी कालोनी के बिलकुल साथ बसी मंझोले तबके के लोगों की कालोनी की तरफ से 2 नौजवान आए. वे डीलडौल और कीमती कपड़ों से किसी रईस परिवार के लग रहे थे. वहां की हलचल देख

कर कुछ जानने की इच्छा से वे चौकी के बाहर बैठे उस काली पैंट और

पीली धारीदार कमीज वाले लड़के की तरफ बढ़े.

वह लड़का उस समय उन बेंत की कुरसियों में कोने वाली कुरसी पर इस तरह बैठा हुआ था, मानो पुलिस चौकी की निगरानी और रखवाली उसी की जिम्मेदारी हो.

‘‘अरे, वह मंगलू…’’ एक भद्दी सी गाली के साथ धीरे से फुसफुसाते हुए उस ने उन्हें कुछ बताया.

‘‘ओह…’’ लापरवाही से सिर झटकाते हुए वे दोनों नौजवान यों आगे बढ़ गए, मानो मंगलू से जुड़ी बातें तो इंद्रानगर की रोजमर्रा वाली जिंदगी का एक हिस्सा थीं.

इधर कुछ देर बाद वहां दूरदूर से भाग कर आते लोगों की बेकाबू भीड़ की वजह से सड़क पर गाडि़यों का आनाजाना रुक गया.

तकरीबन 10-12 मिनट बाद 8 नंबर गली से 20-21 साल का एक नौजवान सिर से बहते खून और हाथों में हथकड़ी पहने 2 सिपाहियों के बीच आता दिखाई दिया. भीड़ को तितरबितर करने की कोशिश में एक सिपाही अपना डंडा बड़ी मुस्तैदी से घुमा रहा था. लेकिन तमाशबीन लोग उस की परवाह किए बिना मंगलू तक पहुंचने के लिए यों झपट रहे थे, मानो उसी से पूछना चाहते हों कि आज फिर उस ने कौन सा बड़ा हाथ मारा है.

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