बौहरे ने जब ठाकुर लाल सिंह को कार्ज का कुल खर्च 4 लाख रुपए बताया (इस कर्ज में पंडित, पुरबिया और बौहरे ने अपने मेहनताने के कम से कम 20-20 हजार रुपए जरूर बना लिए थे) तो ठाकुर के पैरों के नीचे से जमीन ही खिसक गई और वे हक्केबक्के रह गए.
ठाकुर लाल सिंह की सारी रात करवटें लेले कर बीती. कर्ज की रकम एक भयानक चिंता की तरह उन के सामने रातभर मंडराती रही. उन्हें बारबार यही खयाल आते रहे कि इतनी भारी रकम कैसे अदा हो सकेगी?
घर में नकदी का नामोनिशान नहीं है. इधर केवल खेती का आसरा है, पर वह भी तो अच्छी बारिश और नौकरों के ऊपर है. नौकर तो आज तक कभी भी खेती की उपज आधी से ज्यादा हाथ नहीं लगने देते.
बौहरे ने 4 लाख रुपए 2 रुपए सैकड़ा प्रति माह के सूद पर ठाकुर के नाम अपने बहीखाते में लिखा (वह तो बौहरे ने 50 पैसे सैकड़ा ठाकुर प्यारेलाल के कार्ज के नाम पर लिहाज कर के छोड़ दिया, वरना उन के सूद की दर ढाई रुपया सैकड़ा थी) और साथ ही लगे हाथ ठाकुर लाल सिंह से पक्का रुक्का भी लिखवा लिया. जमीन का पट्टा भी लिखा लिया गया.
पहले हमेशा बौहरे ठाकुर लाल सिंह को देखते ही ‘कुंवर साहब’ कह कर रामराम करते, मगर समय का फेर कि आज सुबह ठाकुर को बौहरे के घर पर जा कर बड़े अदब के साथ रामराम करनी पड़ी. बाद में दोनों बैठक में बैठे घंटों बतियाते रहे.
ठाकुर लाल सिंह ने बौहरे से एक बात 2-3 बार दोहराई, ‘‘यह मेरी इज्जत का सवाल है. इस कर्ज की किसी को भी भनक तक न पड़े.’’
जब बौहरे ने ठाकुर लाल सिंह के सिर पर हाथ रखा और गंगा मैया की कसम खाई, तब कहीं जा कर ठाकुर की सांस में सांस आई.
अब ठाकुर लाल सिंह ने यह निश्चय किया कि इस तरह जिंदगी काटी जाए कि बाहरी कवर भी बना रहे और धीरेधीरे यह कर्ज भी अदा होता रहे.
पर इनसान की सोची हुई बातें कम ही पूरी होती हैं. ठाकुर लाल सिंह की घरगृहस्थी में हर साल या दूसरे साल कोई न कोई जरूरी खर्च आ ही टपकता. एक साल पूरा होते ही बाबा की बरसी भी करनी पड़ी. हाथ खींचने पर भी बाबा के भारी कार्ज का ध्यान कर के उस में 25,000 रुपए उठ गए. फिर 2 साल बाद ठाकुर को अपनी एकमात्र बहन चंद्रकला का ब्याह करना पड़ा, जिस में चारों ओर से बड़ी भारी कटौती करतेकराते भी 2-3 लाख रुपए लग ही गए.
5वें साल में जा कर उन्हें अपने पिता की लकवा की बीमारी में तकरीबन 2 लाख रुपए फूंकने पड़े. फिर भी लकवा ने उन का पिंड नहीं छोड़ा और 6 महीने तक चारपाई पर पड़े रहने के बाद उन का देहांत हो गया. पिता के कार्ज में भी 40-50 हजार रुपए उड़ गए.
तब तक ठाकुर लाल सिंह की अपनी गृहस्थी भी खूब फलफूल गई. उन के 2 बच्चे, एक लड़का और एक लड़की हो गए. बच्चों को पढ़ानालिखाना जरूरी हो गया, इसलिए अब ठाकुर पर बच्चों की पढ़ाईलिखाई का भी हर महीने काफी भार आ गया. इंगलिश मीडियम स्कूलों में भेजना जरूरी हो गया. वैसे भी इतनी बड़ी गृहस्थी में कपड़ालत्ता, हारीबीमारी वगैरह के बीसियों खर्च आएदिन लगे ही रहते हैं.
इधर ठाकुर लाल सिंह का बड़ा लड़का ब्रजमोहन ब्याह लायक हो गया. उस का भी ब्याह करना पड़ा, जिस में ठाकुर को 2-3 लाख रुपए बहू के लिए जेवर, कपड़े और गांव वालों को दावत वगैरह देने में 4 लाख रुपए खर्च करने पड़े.
इस तरह ठाकुर लाल सिंह के बाबा के मरने से ले कर अब तक खेती की उपज घरगृहस्थी के खर्चों में ही लगती रही और एक पाई की भी बचत नहीं हो सकी. लिहाजा, लाचार हो कर ठाकुर को बाबा के नाम पर बन रहे मंदिर के भूमिपूजन के कर्ज का ब्याज अदा करने के लिए हर दूसरे साल 14-15 बीघे खेत चुपके से बेचने पड़ जाते.
इस तरह 20-22 साल में धीरेधीरे कर के उन के पूरे 150 बीघे के खेत बिक गए. फिर भी बेचारे ठाकुर लाल सिंह बाबा के कार्ज में ली गई रकम का ब्याज ही चुका सके.
मंदिर के बनने का काम भी आधाअधूरा था. उन पर दबाव पड़ रहा था कि मंदिर बनवाएं, जबकि चंदा देने को कोई तैयार नहीं था. विधायकजी ने कई बार पूछा था कि मंदिर पूरा हो जाए, तो वे आ कर उद्घाटन कर दें.
जब ठाकुर लाल सिंह के पास बिकतेबिकते केवल 75 बीघे खेत रह गए, तब जा कर उन की आंखें खुलीं और उन्हें यह बात साफ हो गईर् कि अगर इस कर्ज से एकसाथ पिंड नहीं छुड़ाया गया, तो इस का ब्याज इन बचेखुचे खेतों को भी बिकवा कर रहेगा. फिर उन के सामने गांव को छोड़ कर भाग जाने के अलावा और कोई चारा नहीं होगा.
लिहाजा, ठाकुर लाल सिंह ने बड़ी सम झदारी और हौसले से काम लिया और पिछले साल उन्होंने एकसाथ
30 बीघा खेत बेच कर (जमीन की कीमत एकसाथ दोगुनीतिगुनी हो जाने के चलते ठाकुर को इस खेत की बिक्री से 30 लाख रुपए हाथ लग गए) बाबा के मंदिर के भूमिपूजन के भंडारे के कर्ज से हमेशा के लिए छुटकारा पा लिया.
35-36 साल के ठाकुर लाल सिंह अब पूरे 60 साल के हो चले हैं. इस समय उन के यहां एक बूढ़ी भैंस और 2 पुराने ट्रैक्टर हैं. समय के साथ ठाकुर को भी बदलना पड़ा है. पिछले 7-8 साल से वे खुद ट्रैक्टर चलाने लगे हैं. अब नौकरों से काम कराने का न उन में दम है और न इतनी खेती ही.
इस समय उन की गिनती गांव के गिनेचुने लोगों में से न रह कर आम किसानों से भी गएगुजरे उन मजदूर किसानों में होती है, जो घरगृहस्थी के रोजमर्रा के खर्चों को उठाने के लिए हमेशा ही कर्जदार बने रहते हैं.
अपनी नासम झी और बेवकूफी पर आमतौर पर सभी को पछतावा होता है. ठाकुर लाल सिंह अपने बाबा प्यारेलाल के रुतबे के दिनों को जब याद करते हैं, तो उन की आंखों में आंसू डबडबा आते हैं और उन के मुंह से बारबार ये शब्द फूट पड़ते हैं, ‘‘मैं ने बड़ी बेवकूफी की. मु झे 20-22 साल तक मंदिर के लिए कर्ज की चक्की में पिसना पड़ा और आज उसी के चलते सारा ठाटबाट चौपट कर के फकीर बना बैठा हूं.
‘‘अगर मैं उस फालतू की वाहवाही के चक्कर में न पड़ता, तो आज मेरे पास गांव से ऊपर जमीनजायदाद होती.
‘‘बाबा के नाम पर मंदिर मु झे हमेशा के लिए ले बैठे हैं और उन्होंने मु झे किसी भी लायक नहीं छोड़ा है. अब मैं किस बूते पर इतनी बड़ी गृहस्थी के भार को ढो पाऊंगा?’’