नरेंद्र दामोदरदास मोदी और आवाम की खुशियां

अब जब आम चुनाव में तकरीबन एक वर्ष बचा रह गया है प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी की केंद्र की सरकार की अगर हम भारत के आम लोगों की खुशियों के तारतम्य में विवेचना करें तो पाते हैं कि आम आदमी का जीवन पहले से ज्यादा दुश्वार  हो गया है. उसके चेहरे की खुशियां विलुप्त होती जा रही हैं. नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद सर्वप्रथम संसद के चौबारे पर मस्तक झुका करके देश की संसद के प्रति आस्था व्यक्त की थी इसका मतलब यह था कि देश की आवाम की खुशियों के लिए वह सतत प्रयास करेंगे और इसलिए श्रद्धानवत हैं. मगर इन 9 वर्षों में देश की आवाम और खास तौर पर आम आदमी के चेहरे की खुशियां विलुप्त होती चली गई है. आग्रह है कि आप जहां कहीं भी रहते हों, आप चौराहे पर निकलिए लोगों से मिलिए लोगों को देखिए आपको इस बात की सच्चाई की तस्दीक हो जाएगी.

अगर हम आज संयुक्त राष्ट्र वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट का अवलोकन करें तो पाते हैं कि 2023 की रिपोर्ट में भारत देश दुनिया के देशों में 125 में नंबर पर है जो यह बताता है कि देश का आम आदमी खुशियों से कितना  महरूम है. अगर देश का आम आदमी खुश नहीं है तो इसका मतलब यह है कि देश की सरकार अपने दायित्व को नहीं निभा पा रही है. अरबों खरबों  की अर्जित टेक्स और विकास की बड़ी बड़ी बातें करने के बाद अगर आम आदमी को खुशियां नहीं है तो फिर देश की केंद्र सरकार पर प्रश्न चिन्ह लगना स्वाभाविक हो जाता है.

 खुशियां ढूंढता आम आदमी   

दरअसल,  संयुक्त राष्ट्र वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट 2023 में फिनलैंड ने लगातार छठी बार दुनिया का सबसे खुशहाल देश का दर्जा हासिल कर लिया किया है. यह रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र सतत विकास समाधान नेटवर्क ने  जारी की है. व‌र्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट 2023 में 137 देशों को आय, स्वास्थ्य और जीवन के प्रमुख निर्णय लेने की स्वतंत्रता की भावना सहित कई मानदंडों के आधार पर रैंक किया गया है. 137 देशों की लिस्ट में भारत को 125वें स्थान पर रखा गया है.

2022 में भारत की रैंक 136 लें नंबर पर थी. दूसरी तरफ भारत अभी भी अपने पड़ोसी देशों जैसे नेपाल, चीन, बांग्लादेश आदि से नीचे है दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ती तकलीफों और दिक्कतों के बीच भारत की स्थिति अच्छी नहीं कही जा सकती देश को आजादी दिलाने वाले वीर शहीदों ने शायद यह कभी कल्पना भी नहीं की होगी कि आजादी के बाद भी देश का आम आदमी एक स्वतंत्र मनुष्य के रूप में एक अच्छे जीवन से महरूम रहेगा. आम आदमी के लिए मुश्किलें बढ़ती चली जा रही हैं सत्ता में बैठे हुए लोग की सुविधाएं बढ़ती चली जा रही हैं यह जबले कहां जा रहा है छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से प्रकाशित अखबारों में सुर्खियां है कि विधानसभा में विधेयक पारित कर के पूर्व विधायकों की पेंशन को 35000 से बढ़ाकर के 58000 रूपए  लगभग कर दिया गया है. देश की चाहे कोई भी विधायिका और संसद हो आम लोगों के खुशियों को बढ़ाने का काम नहीं बल्कि बड़े लोगों की सुविधाओं के लिए अब काम करने लगी है यही कारण है कि आम आदमी का जीवन मुश्किल तो मुश्किल चुनौतियों से घिरा हुआ है जिसका अक्स वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट में भी दिखाई दे रहा है.

 हजारों करोड़ों रुपए का घोटाला

छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता बीके शुक्ला के मुताबिक देश में आज आम आदमी आर्थिक स्थिति दयनीय हो चली है, देश के बड़े आदमी , उद्योगपति जिस तरह सत्ता के संरक्षण में हजारों करोड़ों रुपए का घोटाला कर रहे हैं उसका भुगतान ही आम आदमी कर रहा है.

दरअसल, वर्ल्ड हैप्पीनेस इंडेक्स को तैयार करने में संयुक्त राष्ट छह प्रमुख कारकों का उपयोग करता है. इसमें  स्वस्थ जीवन की अनुमानित उम्र, सामाजिक सहयोग, स्वतंत्रता, विश्वास और उदारता शामिल हैं. रिपोर्ट में कहा गया है कि हैप्पीनेस इंडेक्स तैयार करने में औसत जीवन मूल्यांकन के लिए की फैक्टर माना गया है. इसमें फोविड-19 के तीन वर्ष (2020-2022) का औसत भी शामिल है. इस साल रिपोर्ट तैयार करने में इस बात का खास ध्यान रखा गया है कि कोविड- 19 ने जन कल्याण को कैसे प्रभावित किया है. लोगों के बीच परोपकार बड़ा है या घटा है लोगों के बीच विश्वास, परोपकार और सामाजिक संबंधों को भी प्रमुख पैमानों के तौर पर इस्तेमाल किया गया है.

उल्लेखनीय है कि एक साल ज्यादा समय से जंग लड़ रहा यूक्रेन और गंभीर आर्थिक संकट में फंसा पाकिस्तान रिपोर्ट के मुताबिक भारत से ज्यादा खुशहाल हैं. गैलप लुंड पोल जैसे स्रोतों के आंकड़ों के आधार पर बनी रिपोर्ट में नॉर्डिक देशों को शीर्ष स्थानों में सूचीबद्ध किया गया है. रिपोर्ट में फिनलैंड को लगातार छठी बार दुनिया का सबसे खुशहाल देश माना गया है. कुल मिलाकर के देश की आवाम को और सरकारों को मिलजुल कर के सकारात्मक दिशा में काम करना चाहिए.

भारतीय जनता पार्टी के बड़े-बड़े काम

भारतीय जनता पार्टी की सरकार लगातार बड़े एयरपोर्टों, सुंदर रेलवेस्टेशनों, चौड़ी आधुनिक कई लेन वाली सड़कों, मैट्रो के स्टेशनों, वंदे भारत ट्रेनों का गुणगान करती रहती है. देश की मिडिल क्लास इस पहुंच पर जम कर तालियां बजा रही हैं क्योंकि इन में से ज्यादातर किसी न किसी तीर्थस्थान को ही ले कर जाने के लिए बन रही हैं. इन सब के पीछे आम मजदूर, किसान, फैक्टरी को कोई सुविधा देना नहीं है.

मिडिल क्लास के पास जो थोड़ाबहुत पैसा आया है, उसे मंदिरों के मारफत मंदिर दुकानदारों के  हवाले करवाना है. जोकुछ नया बन रहा है, जिस का ढोल रातदिन बजाया जा रहा है वह ‘रामचरितमानस’ के आदेशों की तरह शूद्रों, गंवारों व औरत को पीटना है और पशुओं को इन रास्तों पर खाने में परोसना है. न ट्रेनों में, न बड़े ग्रीनफील्ड चौड़े नए रास्तों पर, न हवाईअड्डों पर सस्ती कारें दिखेंगी, न खचाखच भरी सवारियां. इन सब एयरकंडीशंड जगहों पर देश का वह वर्ग है जो भरपूर पैसे का आनंद उठा रहा है. देश की 140 करोड़ में से 120 करोड़ जनता आज भी बेसिक सुविधाओं के लिए तरस रही है.

आज भी दिल्ली जैसे शहर की डेढ़-2 करोड़ वाली जनसंख्या में से 30 फीसदी के पास सीवर का कनैक्शन नहीं है. लोग उन बस्तियों में भी सीवर कनैक्शन नहीं करा पाते जहां गली में सीवर आया हुआ है, क्योंकि उस के लिए भी 5,000 से 10,000 रुपए तक का खर्च है. देश के गांवों, कसबों और छोटे शहरों का क्या हाल होगा, अंदाजा लगाया जा सकता है. सीवर या पानी का कनैक्शन न होने से मजदूर किसान यानी शूद्र और औरतें जो उन घरों को चलाते हैं, तरसते हैं. यह ताड़ना ही है.

‘रामचरितमानस’ के आदेश का अक्षरश: पालन किया जा रहा है. ऐसा नहीं है कि सीवर या पानी कनैक्शन के लिए कोई विशेष साइंस चाहिए या मोटी रकम चाहिए. यह तो ग्रीनफील्ड सीधी 8 लेन की सड़कों पर जरूरत होती है, वंदे भारत ट्रेनों में जरूरत होती है, नए हवाईअड्डों पर जरूरत होती है. पर वहां आम औरत–चाहे सवर्ण घरों की ही क्यों न हो–या आम मजदूर और किसान नहीं जाते. सीवरपानी कनैक्शन तो उन बहुत सी छोटी सी सुविधाओं में से हैं जो शहरियों और फैलते गांवों के लिए अब जरूरी हैं.

देश के विकास के लिए सड़कों के जाल, तेज ट्रेनों, हवाईअड्डों की जरूरत है पर उस के साथ यह भी जरूरी है कि देश में गौतम अडानी जैसे पैदा न हों जो दुनिया के दूसरेतीसरे नंबर के हों जबकि देश में जितने गरीबी रेखा के नीचे हैं, वे दुनिया में नंबर 1 हों. देश से भूख, बीमारी और गंदगी दूर हो पहले, फिर गौतम अडानी बनें तो कोई हर्ज नहीं होगा. गरीबी, बीमारी, गंदगी दूर हो और आम साफ पानी पा सकें और साफ ?ाग्गी?ोंपड़ी में रह सकें.

यह सरकारों की पहली जिम्मेदारी है. शूद्र दलित नीची जाति के हैं. पिछले जन्मों के कर्मों का फल भोग रहे हैं, पहले पाप किए हैं इसलिए सवर्णों की औरतें भी पापयोनि में पैदा हुई हैं. इन का ढोल पीटा जाना जब बंद होगा तब सड़कों, हवाईअड्डों और ट्रेनों का ढोल पीटा जाए. देश का गरीब खुशहाल होगा तो अमीरों की सुविधाएं अपनेआप और बढ़ेंगी. पढ़ीलिखी, चुस्त लेबर फोर्स ही अमीरों की जिंदगी को खुशहाल करेगी.

गलत हैं मोहन भागवत : देश बांटने की साजिश

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने पिछले दिनों एक सभा में कहा था कि जाति भगवान ने नहीं बनाई है, बल्कि पंडितों ने बनाई है. भगवान ने हमेशा बोला है कि मेरे लिए सभी एक हैं. उन में कोई जाति या वर्ण नहीं है, लेकिन पंडितों ने श्रेणी बनाई जो कि गलत था.

आगे उन्होंने कहा कि देश में विवेक, चेतना सभी एक हैं. उस में कोई अंतर नहीं है, बस मत अलगअलग हैं… हमारे समाज में बंटवारे का ही फायदा दूसरों ने उठाया है. इसी से हमारे देश पर आक्रमण हुए और बाहर से आए लोगों ने फायदा उठाया.

उन्होंने सवाल करते हुए कहा कि हिंदू समाज देश में नष्ट होने का भय दिख रहा है क्या? यह बात कोई ब्राह्मण नहीं बता सकता. आप को समझना होगा. हमारी आजीविका का मतलब समाज के प्रति भी जिम्मेदारी होती है. जब हर काम समाज के लिए है तो कोई ऊंचा, कोई नीचा या कोई अलग कैसे हो गया?

मोहन भागवत को यह दिव्य ज्ञान अचानक क्यों हुआ? वे किस बूते पर कहते हैं कि जातियां भगवान ने नहीं बनाई हैं, जबकि अधिकांश ग्रंथ भरे हुए हैं जिन में यही कहा गया है कि जातियां भगवान ने बनाई हैं? हां, ये ग्रंथ पंडितों के लिखे गए हैं पर भगवान भी तो पंडितों ने गढ़े हैं.

‘ऋग्वेद’ के ‘पुरुष सूक्त’ में लिखा हुआ है कि जाति की उत्पत्ति ब्राह्मण के विभिन्न अंगों से हुई. क्या मोहन भागवत इस ‘ऋग्वेद’ को हिंदुओं को भगवान द्वारा स्वयं दिया गया ज्ञान नहीं मानते? आज मोहन भागवत अपनी जान बचाने के लिए और शूद्रों व दलितों को खुश करने के लिए अपौराणिक बातें कहने लगे हैं.

‘गीता’ के श्लोक 4/13 में कृष्ण ‘भगवान’ कहते हैं:

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश,

तस्य कर्तारमंपि मां विद्धयकर्तार मव्ययम्.

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन

4 वर्णों का समूह और कर्म मेरे द्वारा रचे गए हैं.

मोहन भागवत आज चाहते हैं कि ‘गीता’ की मान्यता भी रहे, ‘रामायण’, ‘महाभारत’ और सैकड़ों दूसरे ग्रंथ भी रहें और वे पहले की तरह पिछड़ी, निचली व अछूत जातियों पर राज करने की तरकीब इन ग्रंथों के आधार पर तय करते रहें.

यह इसलिए हुआ कि विपक्षी दल संघ की मेहनत और चाल को समझ कर उस के कमजोर हिस्सों पर चोट करने लगे हैं, जिन में तुलसीदास की ‘रामचरितमानस’ में बिखरा ब्राह्मणवादी व्यवस्था का प्रचार है.

इसी के बलबूते पर मुगल राज में शूद्र यानी आज के ओबीसी और अस्पृश्य यानी आज के एससी मुगलों से मिल गए थे और ब्राह्मणों के हुक्म पर सेवा करने को मजबूर हुए थे.

मुगल राजाओं ने हिंदू धर्मग्रंथों को आदर का स्थान दिया था और उन के फारसी में अनुवाद बाबर के जमाने से होने लगे थे जो औरंगजेब तक चले. इस में संस्कृत का हिंदवी अनुवाद ब्राह्मण करते थे और फिर ईरानी फारसी में. मुगल, जो उज्बेकिस्तान के आसपास के इलाके के थे, फारसी या संस्कृत दोनों ही नहीं जानते थे.

मुगल राजाओं के खिलाफ कभी ब्राह्मणों ने देश की आम जनता को विद्रोह करने के लिए उकसाया नहीं. विनायक दामोदर सावरकर ने मुसलमानों के खिलाफ जो भी कहा वह अंगरेजों की राजनीति के मुताबिक ही था.

अंगरेजों ने भी मुगलों की तरह जातिवाद के खिलाफ कुछ नहीं किया और समाज को कंट्रोल करने की जिम्मेदारी ब्राह्मणों पर छोड़ दी. कांग्रेस के ज्यादातर नेता भी कट्टरवादी ब्राह्मण या उन के कट्टर भक्त कायस्थ और बनिए रहे हैं और आज भी यही चल रहा है. वे सरकार के विरोधी नहीं थे.

सीनियर एडवोकेट व मानवाधिकार कार्यकर्ता राजेश चौधरी ने कहा कि जब यह बात मोहन भागवत को पता थी, पर आज तक संघ का प्रमुख किसी एससी, एसटी और ओबीसी को नहीं बनने दिया गया. संघ प्रमुख शंकराचार्य की तरह सिर्फ एक ही वर्ण के बनाए जाते हैं. लोगों के जेहन में ये खास फैक्टर हैं, जिस का जवाब संघ से जुड़े लोग नहीं दे पा रहे हैं.

भारतीय जनता पार्टी ने बंगारू लक्ष्मण को मजबूरी में अध्यक्ष बनाया था और फिर संघ के आदेश पर साजिश रच कर उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया था. संघ के इशारे पर चलने वाले राजनीतिक दल भाजपा ने आज तक कितने एससी, एसटी और ओबीसी को भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया?

दरअसल, मोहन भागवत इस बयान को दे कर भारत के एससी, एसटी और ओबीसी को हिंदू राष्ट्र के नाम पर भाजपा के पाले में सुरक्षित रखना चाहते हैं. एससी, एसटी और ओबीसी, जो एक बड़ी आबादी है, के बारे में धार्मिक ग्रंथों में लिखी भद्दी और बेइज्जत करने वाली टिप्पणी के चलते जो एकजुटता हो रही है, उसे मोहन भागवत जल्दी रोक देना चाहते हैं.

मोहन भागवत अपने इस कथन से ओबीसी जनगणना की मांग को खत्म भी करना चाहते हैं. वे हिंदू धार्मिक ग्रंथों को भी पोल खुलने से बचाना चाहते हैं.

मोहन भागवत अच्छी तरह जानते हैं कि हिंदू धार्मिक ग्रंथों में एससी, एसटी, ओबीसी के खिलाफ जो अमर्यादित और अमानवीय बातें लिखी हुई हैं. यही ग्रंथ पंडितों की दानदक्षिणा से आमदनी का इंतजाम करते हैं, क्योंकि इन ग्रंथों में ही दानदक्षिणा से पिछले जन्म से जुड़ी जाति व्यवस्था का बखान किया गया है.

डर है कि यह मुद्दा अगर लंबे समय तक चला तो उस के चलते देश में बहुजन समाज के लोग बहुत तेजी से एकजुट हो जाएंगे.

मोहन भागवत का सब से बड़ा डर यह है कि कहीं ऐसा न हो कि भारत का यह एससी, एसटी, ओबीसी वर्ग फिर से अपने मूल धर्म बौद्ध को स्वीकार कर ले और फिर 10 फीसदी वाला वे पौराणिक हिंदू धर्म की पोल खोल कर भारत में बड़ी पार्टियों के वजूद में पलीता न लगा दे. याद रहे कि श्रीलंका में सिंहली बौद्ध और तमिल हिंदुओं का विवाद गृहयुद्ध की शक्ल ले चुका है.

अगर अगर मोहन भागवत यह जान चुके हैं कि जाति ईश्वर ने नहीं बनाई, ब्राह्मणों या पंडितों ने बनाई है तो फिर वे ब्राह्मण होने के नाते एससी, एसटी, ओबीसी पर आज तक हो रहे जुल्मों को गलती मानने का काम क्यों नहीं शुरू करते?

भाजपा सरकार का रिमोट कंट्रोल संघ के पास है, तो उसे आदेश दे कर देश की हर नौकरी, ताकतवर जगह बराबरी का सिस्टम लाने की कोशिश क्यों नहीं कराते? राज्य और केंद्र में खाली पड़े पदों को संवैधानिक प्रतिनिधित्व के आधार पर क्यों नहीं भरे जाते हैं? संविधान में मिले मूल मौलिक अधिकारों को एससी, एसटी, ओबीसी को क्यों नहीं लेने देते?

वैसे तो मंदिर ही जातिवाद को बढ़ावा देने का काम करते हैं और हर जाति को अपना मंदिर दे दिया गया है. दलितों के लिए आमतौर पर तीसरे दर्जे के देवीदेवताओं को रिजर्व कर दिया गया है. फिर भी मंदिरों में हर जाति के पुरोहित, पंडे क्यों नहीं होते?

हिंदू धार्मिक गं्रथों में लिखी गई अपमानजनक भाषा से इस वर्ग के लोगों के अंदर स्वाभिमान जगा है और तेजी से लोग जागरूक हो रहे हैं. इसी वजह से संघ प्रमुख मोहन भागवत बुरी तरह घबराए हुए हैं, क्योंकि वे बेहतर तरीके से जानते हैं कि अगर ऐसे ही यह वर्ग तेजी से एकजुट होता रहा तो देश के किसी भी राज्य में किसी भी कट्टरवादी पार्टी की सरकार नहीं बन पाएगी, बल्कि वह हमेशाहमेशा के लिए खत्म हो जाएगी.

 

किसान आंदोलन में खालिस्तान शामिल

पंजाब में शुरू हो चुके खालिस्तान आंदोलन और अमृतपाल ङ्क्षसह की अगुवाई में वारिस पंजाब दे के पनपने के लिए सीधेसीधे भारतीय जनता पार्टी की केंद्र सरकार को जिम्मेदार ठहराना होगा. यह मामला कोई नया नहीं है क्योंकि भाजपा के पिट्टुओं ने 2 साल पहले चले किसान आंदोलन में खालिस्थानियों की बात उसी\ तरह खुल कर कही थी जैसे के देश की सरकार के खिलाफ बोलने वाले हर जने को पाकिस्तानी, अरबन नक्सल, देशद्रोही कह देते हैं.

सिखों में बेचैनी होने लगी थी यह इस से साफ है कि जब भाजपा के नरेंद्र मोदी को पूरे देश में गूंज ही रहा हो, पंजाब में पहले कांग्रेस की सरकार थी और फिर आम आदमी पार्टी की. भाजपा से अकाली दल का पूरी तरह नाता तोडऩा कोई सिर्फ राजनीतिक दावपेंच नहीं था, यह सिखों का बिफरना है.

जब भी ङ्क्षहदू, भारत माता, वंदेमातरम की बात की जाती है और पूरे देश की जनता को कहा जाता है कि इसे ही अपना मूलमंत्र माने मुसलिम ही नहीं, सिख, ईसाई, जैन, बौध और दूसरे छोटेछोटे संप्रदायों के लो कसमसाने लगते है. ङ्क्षहदू राष्ट्र की सोच इस कदर भाजपा के मंत्रियों की सोच में घुस गई है कि वे उस के बाहर सोच ही नहीं पा रहे और भूल रहे है कि यहां हर तरह के लोग सदियों से बसे हैं और नारों से न उन का रंगढंग बदला जा सकता है, न सोच.

आज का युग वैसे साइंस का है टैक्नोलोजी का है. उस में धर्म की कहीं कोई जगह ही नहीं है, गुंजाइश ही नहीं है, जरूरत ही नहीं है. अफगानिस्तान और पाकिस्तान का हाल हम देख रहे है जहां धर्म जनता पर हावी हो गया और लोगों के भूखे मरने की नौबत आ गई है.

अमृतपाल ङ्क्षसह जैसे लोग ऐसे मौकों की तलाश में रहते हैं कि कौर्य, धर्म, जाति के नाम पर अपना उल्लू सीधा कर सकें. किसान आंदोलन जो शुरू में फरम किसानों के नेताओं की अगुवाई में चला और राकेश टिकैत बाद में उभरे, सिखा गया कि देश की सरकार को सीधा करा जा सकता है. जरूरत है मुद्दे की जिस के सरकार बेबात में मौके देती रहती है.

आजकल मंदिर, मसजिद, गुरूद्वारों में कमाई करने की होड़ मची हुई है और चूंकि भक्ति का माहौल सरकारी पार्टी ही बात रही है, जिम्मेदारी उसी पर आती है. आजकल चारों और अगर कुछ बड़ा बन रहा है तो वह धर्म से जुड़ा है. अयोध्या तक में एक बड़ी सुंदर आकर्षक मसजिद की प्लाङ्क्षनग चल है रही है और पक्का है कि गरीबी में रह रहे मुसलमान भी पेट काट कर उस के लिए पैसा जमा कर लेंगे. जब ङ्क्षहदू और मुसलमानों की बात रोज होगी तो सिखों की क्यों नहीं होगी.

अमृतपाल ङ्क्षसह ने इसी का फायदा उठाया है और अजचलों में उस के साथियों ने एक कट्टरपंथी को पुलिस से फुड़वा कर साबित कर दिया कि उन की भीड़ जुटाने की वक्त है. अमृतपाल ङ्क्षसह गिरफ्तार होता है या वह कहीं विदेश में पहुंच जाता है अभी नहीं कह सकते. वह केंद्र सरकार के लोहे के बच निकलने की सोच भी सकता था, यही यह दिखाने के लिए बाफी है धर्म के नाम पर सुलगाई आग कब काबू से बाहर हो जाए और किस के घर जला दे कहां नहीं जा सकता. उम्मीद की जानी चाहिए कि अमृतपाल ङ्क्षसह के पंजाब का अमन खराब करने की इजाजत नहीं मिलेगी और सरकार इस मसले को जिद और पुलिस के

किसानों के देश में दम तोड़ता अन्नदाता: खतरों से भरी है खेती

‘अमेजन प्राइम’ पर ‘क्लार्कसंस फार्म’ नाम से 2 सीजन की एक इंगलिश डोक्यूमैंट्री टाइप सीरीज है, जिस में बताया गया है कि दूसरे क्षेत्रों के मुकाबले खेतीबारी के क्षेत्र में 20 गुना ज्यादा मौतें होती हैं. अकेला किसान अपने खेत में ट्रैक्टर के सहारे कोई बड़ी मशीन चला रहा होता है, जरा सा झटका लगने पर वह गिर जाता है और मशीन के नुकीले लोहे के दांतों में पिस कर खुद ही खेत में खाद बन जाता है.

दरअसल, यह सीरीज एक अमीर आदमी जेरमी क्लार्कसन पर बनी है, जो 59 साल की उम्र में अपनी 1,000 एकड़ जमीन पर खुद खेती करता है और खेतीबारी से जुड़े नियमकानून में बंध कर सीखता है कि खेती करना कोई खालाजी का घर नहीं है, जो मुंह उठाया और चल दिए.

जेरमी क्लार्कसन एक बेहद अमीर किसान है. उस के पास खेतीबारी से जुड़ा हर नया और नायाब उपकरण है. वह ‘लैंबोर्गिनी’ कंपनी का भीमकाय ट्रैक्टर चलाता है, जिस में 8,000 तो बटन लगे हुए हैं. इस के बावजूद अगर वह अपने मुंह से किसान तबके की मौत से जुड़ी हकीकत सब के सामने रखता है, तो समझ लीजिए कि खेतीबारी करने वाले उन किसानों की क्या हालत होती होगी, जो छोटी जोत के हैं और उन की मौत के शायद आंकड़े भी न बनते हों.

जहां तक खेतीबारी में होने वाले खतरों की बात है, तो किसानों को खेत में कुदरत की मार के साथसाथ कई सारे खतरनाक जीवजंतुओं का भी सामना करना पड़ता है. खेत में काम करते समय बिच्छू, सांप, मधुमक्खी के अलावा दूसरे तमाम जहरीले जीवजंतुओं के काटने का बहुत बड़ा खतरा रहता है. किसानों को बहुत भारी और बड़ी मशीनों के साथ काम करना पड़ता है, उन से भी चोट लगने और मौत होने का डर बना रहता है.

भारत जैसे देश में तो किसान और ज्यादा मुसीबत में दिखता है. राजस्थान की रेतीली जमीन का ही उदाहरण ले लें. वहां पानी की कमी है और गरमी इतनी कि खेत में किसान के पसीने के साथसाथ उस का लहू भी चूस ले. इन उलट हालात में अगर फसल लहलहाने भी लगे तो भरोसा नहीं कि वह टिड्डी दलों का ग्रास नहीं बन जाएगी. फिर किसान के घर में भुखमरी का जो तांडव मचता है, वह किसी से छिपा नहीं है.

भारत में किसान आबादी ज्यादा पढ़ीलिखी भी नहीं है, लिहाजा वह खेतीकिसानी में इस्तेमाल होने वाले कैमिकलों की मात्रा के बारे में या तो जानती नहीं है या फिर उन्हें अनदेखा कर देती है, तो उस की जान का खतरा बढ़ता ही चला जाता है. थोड़ा पीछे साल 2017 में चलते हैं. महाराष्ट्र के विदर्भ इलाके में 4 महीने

के भीतर तकरीबन 35 किसानों की कीटनाशकों के जहर से मौत हो गई थी. उन में से ज्यादातर कपास और सोयाबीन के खेतों में काम कर रहे थे. उन्होंने खेतों में कीटनाशकों के छिड़काव के दौरान अनजाने में कीटनाशक निगल लिया था. देशभर के किसानों से जुड़े संगठन ‘द अलायंस फौर सस्टेनेबल ऐंड होलिस्टिक एग्रीकल्चर (आशा)’ ने इस सिलसिले में एक जांच

रिपोर्ट जारी की थी और मौतों के लिए मोनोक्रोटोफोस,  इमिडैक्लोप्रिड, प्रोफैनोफोस, फिपरोनिल, औक्सीडैमेटोनमिथाइल, ऐसफिट और साइपरमेथरिन कीटनाशकों और इन के अलगअलग मिश्रणों को जिम्मेदार पाया था. प्रदेश सरकार ने कार्यवाही करते हुए यवतमाल, अकोला, अमरावती और पड़ोसी जिले बुलढाना और वाशिम में 5 कीटनाशकों ऐसफिट के मिश्रण, मोनोक्रोटोफोस, डायफैंथरीन, प्रोफैनोफोस और साइपरमेथरिन व फिपरोनिल और इमीडैक्लोरिड पर 60 दिनों के लिए बैन लगा दिया था.

कितने हैरत की बात है कि भारत में हर साल तकरीबन 10,000 कीटनाशक विषाक्तता के मामले सामने आते हैं. साल 2005 में सीएसई ने पंजाब के किसानों पर एक स्टडी की थी, जिस में किसानों के खून में अलगअलग कीटनाशकों के अंश पाए गए थे. सब से बड़ी समस्या यह है कि किसानों को कीटनाशकों के वैज्ञानिक मैनेजमैंट के लिए कोई जानकारी नहीं देता है. कीटनाशक बनाने वाले और सरकार इस के लिए कोई ठोस समाधान नहीं पेश करते हैं. किसान अपनी फसल को किसी भी तरह से बचाना चाहते हैं और खेत के मजदूर कीटनाशक छिड़काव के मौसम में ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाना चाहते हैं. कम जगह में अच्छी उपज पाने और पैसा व समय बचाने के लिए ज्यादातर किसान कीटनाशकों के मिश्रण का अंधाधुंध इस्तेमाल करते हैं.

इस के अलावा भारत में कई फसलों पर ऐसे कीटनाशक भी इस्तेमाल किए जाते हैं, जो प्रमाणित नहीं हैं. यह समस्या काफी समय से बनी हुई है और किसानों के लिए जानलेवा साबित होती है. चलो, कैमिकल का गलत इस्तेमाल किसानों की लापरवाही या नासमझी की वजह से उन्हें मौत के मुंह में ले जाता है, पर अगर कोई किसान मौसम की मार से अपनी जिंदगी गंवा बैठे, तो इस की कौन जिम्मेदारी लेगा?

दिसंबर, 2022 की कड़कड़ाती ठंड में उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले की ग्राम पंचायत देवाराकलां के गांव लालताखेड़ा मजरे का रहने वाला 52 साल का नन्हा लोधी रात को अपने खेत में फसल की रखवाली करने गया था, जहां अचानक उस की मौत हो गई.

नन्हा लोधी के परिवार वालों ने सर्दी लगने से मौत की वजह बताते हुए पुलिस और राजस्व विभाग के अफसरों को सूचना दी, जिस के बाद जिम्मेदार अफसर सर्दी से मौत होने के मामले को दबाने और मौत की वजह टीबी को बताने में जुट गए थे.

मौडर्न मशीनें भी किसानों पर कम कहर नहीं बरपाती हैं. हरियाणा में पानीपत जिले के खंड मतलौडा के गांव वेसर में खेत जोतते समय एक किसान रोटावेटर मशीन के नीचे आ गया, जिस से उस की मौत हो गई.

यह हादसा अक्तूबर, 2022 का है. गांव वालों ने बताया कि 40 साल का राजेश ट्रैक्टर और रोटावेटर से खेत जोत रहा था. इसी दौरान ट्रैक्टर के पीछे बंधे रोटावेटर से कुछ आवाज आने लगी. राजेश रोटावेटर चैक करने के लिए नीचे उतरा और रोटावेटर के पास बैठ कर आवाज चैक करने लगा.

इसी दौरान राजेश के शरीर का कोई कपड़ा रोटावेटर में फंस गया और देखतेदेखते रोटावेटर ने राजेश को अंदर खींच लिया, जिस से उस की मौत हो गई.

हादसे चाहे कुदरती हों या फिर इनसानी लापरवाही के चलते किसी किसान की जान जाए, उस के परिवार पर मुसीबतें बादल फटने जैसी बड़ी और खतरनाक होती हैं. पर अगर किसान खुदकुशी करने लगें तो फिर किस का माथा फोड़ा जाए? इस खुदकुशी की जड़ में कुदरती आपदाएं, बढ़ती कृषि लागत, पढ़ाईलिखाई की कमी, परंपराएं और संस्कृति होती है.

यह जो परंपरा और संस्कृति का बाजा है न, यह गरीब किसानों का सब से ज्यादा बैंड बजाता है. उसे खेतों से दूर करने के लिए पंडेपुजारियों द्वारा धर्मकर्म के दकियानूसी कामों में इस कदर उलझा दिया जाता है कि वह खेत का रास्ता ही भूल जाता है.

महिला किसान तो रीतिरिवाजों के जाल में इस तरह उलझा दी जाती हैं कि वे जो मेहनत खेत में कर सकती हैं उसे सिर पर पूजा का मटका ले कर मंदिर आनेजाने में ही बरबाद कर देती हैं.

फिर लदता है किसान पर कर्ज का बोझ. ऊपर से दूसरे क्षेत्रों में बढ़ती कमाई और भारत में कृषि सुधार बेहद धीमा होने के चलते वह खेत में दाने तो उगा लेता है, पर खुद दानेदाने को तरस जाता है. कोढ़ पर खाज यह कि खेतीबारी से जुड़े रोजगार के नए मौके नहीं बन पा रहे हैं और खेतीबारी से जुड़े जोखिमों में कमी नहीं आ पाई है.

बहरहाल, विदेश का 1,000 एकड़ जमीन का मालिक अमीर किसान जेरमी क्लार्कसन हो या भारत का 2 बीघे वाला कोई फटेहाल होरी, खेत में दोनों बराबर पसीना बहाते हैं. वे कुदरत के कहर से डरते हैं और उन की नजर अपने मुनाफे पर ही रहती है. थक कर दोनों खेत में ही जमीन पर बैठ कर अपना पेट भरते हैं, पर दोनों में फर्क उन सुविधाओं का है, जो क्लार्कसन के पास तो हैं, पर होरी ने उन्हें कभी देखा तक नहीं है. अगर यह फर्क मिट जाए, तो गरीब से गरीब किसान भी असली अन्नदाता कहलाने का हकदार हो जाएगा.

 जाति के जंजाल में किसान

भारत में किसान तबका जाति के जंजाल में इस तरह उलझा हुआ है या उलझाया गया है कि छोटी जाति वाले अपने खेत के सपने ही देख पाते हैं वरना तो वे दूसरे के खेतों में मजदूर बन कर ही जिंदगी गुजार देते हैं.

साल 2015-16 में की गई कृषि जनगणना की जारी रिपोर्ट के मुताबिक, दलित (अनुसूचित जाति) इस बड़ी जमीन के सिर्फ 9 फीसदी से भी कम पर खेती का काम करते हैं. साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, गांवदेहात के इलाकों में उन की आबादी का हिस्सा 18.5 फीसदी है. ज्यादातर दलित असल में भूमिहीन हैं.

अनुसूचित जनजाति के किसान भूमि के तकरीबन 11 फीसदी हिस्से पर खेती से जुड़ा काम करते हैं, जो गांवदेहात के इलाकों में उन की आबादी की हिस्सेदारी के बराबर है. लेकिन इन में से ज्यादातर भूमि मुश्किल भरे दूरदराज वाले इलाके में है. इस भूमि के लिए सिंचाई का कोई इंतजाम नहीं है और वहां सड़कें भी नहीं पहुंची हैं.

तकरीबन 80 फीसदी कृषि भूमि का संतुलन ‘अन्य’ जातियों द्वारा संचालित होता है जो तथाकथित ऊंची जातियों या ‘अन्य पिछड़े वर्ग’ से हैं.

हरियाणा, पंजाब और बिहार जैसे राज्यों में दलितों के बीच भूमिहीनता विशेष रूप से गंभरी है, जहां 85 फीसदी से ज्यादा दलित परिवारों के पास उस भूखंड के अलावा कोई जमीन नहीं है, जिस पर वे रहते हैं. तमिलनाडु, गुजरात, केरल, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और ओडिशा में 60 फीसदी से ज्यादा दलित परिवार भूमिहीन हैं.

सितंबर, 1954 में अनुसूचित जाति और जनजाति आयोग की साल 1953 की रिपोर्ट पर चर्चा करते हुए डाक्टर भीमराव अंबेडकर ने सदन का ध्यान जमीन के सवाल पर खींचा था. सवाल सरकार द्वारा दलितों को जमीन देने का था.

तब डाक्टर भीमराव अंबेडकर ने 3 सवाल किए थे. पहला, क्या दलितों को देने के लिए जमीन मुहैया है? दूसरा, क्या सरकार दलितों को जमीन देने के लिए भूस्वामियों से जमीन लेने की ताकत रखती है? तीसरा, अगर कोई दलितों को जमीन बेचना चाहता है, तो क्या सरकार उसे खरीदने के लिए पैसा देगी? उन्होंने कहा था कि यही 3 तरीके हैं, जिन से दलितों को जमीन मिल सकती है.

डाक्टर भीमराव अंबेडकर ने यह भी कहा था कि या तो सरकार यह कानून बनाए कि कोई भी भूस्वामी एक निश्चित सीमा से ज्यादा जमीन अपने पास नहीं रख सकता और सीमा तय हो जाने के बाद, जितनी फालतू जमीन बचती है, उसे वह दलितों को मुहैया कराए. अगर सरकार यह नहीं कर सकती, तो वह दलितों को पैसा दे, ताकि अगर कोई जमीन बेचता है, तो वे उसे खरीद सकें.

डाक्टर भीमराव अंबेडकर के 3 सवाल आज भी मुंह बाए खड़े हैं, पर उन का तोड़ कोई नहीं निकाल पाया है. जब से भारतीय जनता पार्टी की सरकार इस देश पर काबिज हुई है, तब से तो यहां ‘रामचरितमानस’ की चौपाइयों को ही संविधान बना देने की होड़ मचने लगी है. दलितों को खेती के लिए जमीन नहीं, बल्कि ‘भगवान’ दिए जा रहे हैं, जो उन्हें अन्न का एक दाना नहीं दे पा रहे हैं.

 

पाकिस्तान : तोशाखाना ने तोड़ी इमरान खान की हनक

हाल ही में पाकिस्तान में इमरान खान पर सरकारी शिकंजे के साथसाथ 2 और खबरें भी सुर्खियों में बनी हुई थीं. पहली खबर यह थी कि भुखमरी झेल रहे इस देश में एक ऐसा एटीएम है, जो गिनीज वर्ल्ड रिकौर्ड में इसलिए दर्ज है, क्योंकि वह दुनिया में सब से ऊंचाई पर बना हुआ है. कुछ लोग इस एटीएम को ‘सैल्फी एटीएम’ भी कहते हैं. वजह, जो लोग इस एटीएम से पैसे निकालने जाते हैं, वे उस के साथ एक सैल्फी ले कर सोशल मीडिया पर जरूर पोस्ट करते हैं.

दरअसल, चीन और पाकिस्तान के बीच एक जगह है, जिसे खंजराब दर्रे की सीमा कहा जाता है. यह जगह बर्फीली पहाड़ियों से घिरी हुई है. यह एटीएम इसी जगह पर 4,693 मीटर की ऊंचाई पर बना है.

दूसरी खबर यह थी कि 17-18 मार्च, 2023 की रात को जम्मूकश्मीर के सांबा जिले में इंटरनैशनल बौर्डर से सटे रामगढ़ सैक्टर में एक तेंदुआ पाकिस्तान से भारत की सरहद में घुस आया था. इस की जानकारी मिलते ही सुरक्षा गार्डों ने रामगढ़ के सांबा में अलर्ट जारी कर दिया था. साथ ही, जंगल महकमे की टीमों को तेंदुए की तलाश में लगा दिया गया था.

इस तेंदुए वाली खबर के बाद सोशल मीडिया पर भारतीय लोगों ने मजे लेने शुरू कर दिए थे. पाकिस्तान की चरमराती अर्थव्यवस्था की तुलना करते हुए एक यूजर ने कहा था, ‘यहां तक ​​कि पाक में जानवरों को भी खाद्य संकट का सामना करना पड़ रहा है’, तो दूसरे यूजर ने कहा था, ‘अब जानवर भी पाकिस्तान को पसंद नहीं करते.’

एटीएम और तेंदुए की खबरों के बीच अब उस खबर को खंगालते हैं, जिस ने पाकिस्तान में ऐसे हालात पैदा कर दिए हैं, जिस से वहां पैसे और भोजन के संकट पर पूरी दुनिया में बात हो रही है.

यह मामला पाकिस्तान के प्रधानमंत्री रह चुके इमरान खान और उन की पार्टी पाकिस्तान तहरीक ए इंसाफ और वर्तमान सरकार के टकराव से जुड़ा है. हुआ यों कि हाल ही में पाकिस्तान पुलिस ने इमरान खान के तकरीबन एक दर्जन नेताओं पर तोड़फोड़, सिक्योरिटी वालों पर हमला करने को ले कर कड़ा ऐक्शन लिया था.

पुलिस ने पद से हटाए गए प्रधानमंत्री इमरान खान के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले में सुनवाई के दौरान अदालत परिसर के बाहर हंगामा करने में शामिल होने के आरोप में आतंकवाद निरोधक कानून की विभिन्न धाराओं के तहत रविवार, 19 मार्च, 2023 को मामला दर्ज किया था.

दरअसल, इमरान खान तोशाखाना मामले की सुनवाई में पेश होने के लिए लाहौर से इसलामाबाद आए थे और उस दौरान इसलामाबाद न्यायिक परिसर के बाहर उन के समर्थकों और सिक्योरिटी वालों के बीच झड़प हुई थी.

पाकिस्तान तहरीक ए इंसाफ पार्टी के कार्यकर्ताओं और पुलिस के बीच शनिवार, 18 मार्च, 2023 को हुई झड़प के दौरान 25 सिक्योरटी वाले घायल हो गए थे, जिस के बाद अवर जिला व सत्र न्यायाधीश जफर इकबाल ने सुनवाई 30 मार्च, 2023 तक के लिए स्थगित कर दी थी.

इसी बीच पाकिस्तान तहरीक ए इंसाफ पार्टी ने केंद्र में सत्तारूढ़ गठबंधन पाकिस्तान डैमोक्रेटिक मूवमैंट को चुनाव की तारीखों पर बातचीत करने का प्रस्ताव दिया था, ताकि इस साल होने वाले चुनाव शांतिपूर्ण तरीके से निबट जाएं.

दरअसल, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने देश को आर्थिक और राजनीतिक चुनौतियों से निकालने के लिए सभी दलों के ‘राजनीतिक नेतृत्व’ को मिलने की दावत दी थी. इस के बाद इमरान खान ने ट्विटर पर संदेश दिया था कि वे ‘लोकतंत्र के लिए किसी से भी बात करने के लिए तैयार हैं.’

इमरान खान और पाकिस्तान की सरकार में छिड़ी यह जंग आगे क्या रूप लेगी और इस का वहां के सियासी माहौल पर क्या और कितना असर पड़ेगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा, पर जरा उस तोशाखाना मामले पर भी नजर डाल लेते हैं, जिस के चलते इमरान खान का राजनीतिक कैरियर ही खतरे में पड़ता दिख रहा है.

याद रहे कि इमरान खान की सरकार गिरने के बाद इसी तोशाखाना मामले में उन की संसद की सदस्यता चली गई थी. चुनाव आयोग ने इस को ले कर बाकायदा सुनवाई की थी, लेकिन इमरान खान की दलीलों से संतुष्ट नहीं होने पर पाकिस्तान तहरीक ए इंसाफ पार्टी के चेयरमैन की सदस्यता रद्द कर दी गई थी.

दरअसल, तोशाखाना पाकिस्तान कैबिनेट का एक महकमा है, जहां दूसरे देशों की सरकारों, राष्ट्रप्रमुखों और विदेशी मेहमानों द्वारा दिए गए बेशकीमती उपहारों को रखा जाता है. नियमों के तहत किसी दूसरे देशों के प्रमुखों या गणमान्य लोगों से मिले उपहारों को तोशाखाना में रखा जाना जरूरी है.

इमरान खान साल 2018 में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने थे. उन्हें अरब देशों की यात्राओं के दौरान वहां के शासकों से महंगे गिफ्ट मिले थे. उन्हें कई यूरोपीय देशों के राष्ट्रप्रमुखों से भी बेशकीमती गिफ्ट मिले थे, जिन्हें इमरान ने तोशाखाना में जमा करा दिया था, लेकिन इमरान खान ने बाद में तोशाखाना से इन्हें सस्ते दामों पर खरीदा और बड़े मुनाफे में बेच दिया. इस पूरी प्रक्रिया को उन की सरकार ने बाकायदा कानूनी इजाजत दी थी.

मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, इमरान खान ने 2.15 करोड़ रुपए में इन गिफ्टों को तोशाखाना से खरीदा था और इन्हें बेच कर 5.8 करोड़ रुपए का मुनाफा कमा लिया था. इन गिफ्टों में एक ग्राफ घड़ी, कफलिंक का एक जोड़ा, एक महंगा पैन, एक अंगूठी और 4 रोलैक्स घड़ियां भी थीं.

पाकिस्तानी मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, इमरान खान को सत्ता से हटाए जाने के कुछ महीनों बाद सत्तारूढ़ गठबंधन के कुछ सांसदों ने नैशनल असेंबली के अध्यक्ष राजा परवेज अशरफ ने सामने एक आरोपपत्र दायर किया था. इस में इमरान खान पर आरोप लगाए गए थे कि जो गिफ्ट उन्हें मिले, उस का ब्योरा तोशाखाना को नहीं सौंपा गया था. उन्हें बेच कर पैसे कमाए गए.

पाकिस्तान के स्पीकर ने इस मामले में जांच कराई, जिस के बाद इमरान खान को नोटिस मिला था. उन्होंने इस नोटिस का जवाब दिया था और कहा था कि प्रधानमंत्री रहते हुए मिले 4 गिफ्टों को उन्होंने बेच दिया था. बाद में वही गिफ्ट इमरान खान के गले की हड्डी बन गए और तोशाखाना ने उन का खाना खराब कर दिया.

‘राहुल गांधी माफी मांगो’ का अनोखा मजाक: सत्ता पक्ष का उतरा नकाब

राहुल गांधी को ले कर जिस तरह देश की संसद में सरकार में बैठे हुए ‘बड़े चेहरे’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से ले कर रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और दूसरों ने ‘माफी मांगो’ और ‘देशद्रोह का मामला’ कहने की गूंज लगाई है, वह बताती है कि भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी की सरकार राहुल गांधी से कितना डरी हुई है. राहुल गांधी के लिए ‘पप्पू’ शब्द का इस्तेमाल कर के उन्हें राजनीति में नकारा साबित करने की सोच वाले ये चेहरे आज राहुल गांधी के बयान के बाद बेबस और बेचारे दिखाई दे रहे हैं.

कहते हैं कि चोर की दाढ़ी में तिनका. ऐसे ही अगर राहुल गांधी की बातों में कोई सच नहीं है तो भाजपा के ये कद्दावर नेता इतना चिंतित क्यों हैं? जब देश राहुल गांधी को गंभीरता से नहीं लेता तो फिर इतने घबराने का काम ये बड़ेबड़े चेहरे क्यों कर रहे हैं? संसद में हुई कार्यवाही को देखने से साफ हो जाता है कि राहुल गांधी ने जो कहा है, उस से ये चेहरे डरे हुए हैं, क्योंकि सच सामने खड़े हो कर जवाब मांग रहा है और देश की जनता में यह संदेश जा रहा है कि राहुल गांधी की बातें कितनी सच्ची और गंभीर हैं.

जैसे, देश में इन दिनों सब से गंभीर मामला है गौतम अडानी का जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आशीर्वाद से दुनिया के दूसरे नंबर के पैसे वाले बन गए हैं, मगर पोल खुलते ही वे 40वें नंबर पर पहुंच गए. इस पर नरेंद्र मोदी कुछ बोलने को तैयार हैं और न ही सरकार कुछ ऐक्शन लेने को गंभीर दिखाई देती है. कुल जमा धीरेधीरे राहुल गांधी देश और दुनिया में अपने सच और साहस के चलते इज्जत की नजर से देखे जाने लगे हैं और दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी, जिन्हें देश ने बड़े विश्वास के साथ प्रधानमंत्री बनाया और सत्ता की चाबी दी, धीरेधीरे नीचे की ओर आ रहे हैं.

राहुल गांधी की लोकप्रियता

दरअसल, जैसा कि कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके राहुल गांधी की टिप्पणी को ले कर ‘संसद’ में जम कर हंगामा सत्ता  पक्ष द्वारा किया गया, यह अपनेआप में एक बड़ी ऐतिहासिक घटना है. यह सब राहुल गांधी की लोकप्रियता को दिखाता है. यह एक अनोखा नजारा था कि राज्यसभा के साथ लोकसभा में सत्तापक्ष के सांसदों ने लंदन में की गई राहुल गांधी की टिप्पणी को ले कर सदन के अंदर ‘माफी मांगो’ के नारे लगाए. वह सब देश और दुनिया में देखा गया गया और अब सरकार के चेहरे से नकाब उतरने लगे हैं.

दूसरी तरफ लोकसभा में विपक्षी सदस्यों ने अडाणी समूह मामले में संयुक्त संसदीय समिति गठन की मांग की और हंगामा करते हुए अध्यक्ष ओम बिरला के आसन के सामने आ गए. हंगामे की वजह से दोनों सदन एक बार स्थगित कर दिए गए और शून्यकाल हंगामे की भेंट चढ़ गया.

राहुल गांधी पर सब से बड़ा हमला रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह द्वारा किया गया. लोकसभा में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा, ‘लोकसभा सदस्य राहुल गांधी ने लंदन में भारत को बदनाम करने की कोशिश की है. उन्होंने (राहुल गांधी) कहा है कि भारत में लोकतंत्र पूरी तरह से तहसनहस हो गया है और विदेशी ताकतों को आ कर लोकतंत्र को बचाना चाहिए.’

राजनाथ सिंह ने आगे कहा, ‘उन्होंने (राहुल गांधी) भारत की गरिमा व प्रतिष्ठा पर गहरी चोट पहुंचाने की कोशिश की है. पूरे सदन को उन के (राहुल गांधी) इस व्यवहार की निंदा करनी चाहिए और आप की (अध्यक्ष) ओर से यह निर्देश दिया जाना चाहिए कि राहुल संसद के मंच पर क्षमायाचना करें.’

हंगामे के बीच ही संसदीय कार्यमंत्री प्रल्हाद जोशी ने भी राहुल गांधी पर विदेशी धरती पर भारत का अपमान करने का आरोप लगाया. दूसरी तरफ हंगामे के बाद लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष अधीर रंजन चौधरी ने अध्यक्ष ओम बिरला को एक चिट्ठी लिखी, जिस में अनुरोध किया गया कि सदन में राहुल गांधी को ले कर रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और प्रल्हाद जोशी ने जो टिप्प्णी की है, उसे सदन की कार्यवाही से हटा दिया जाना चाहिए.

भाजपा के बड़े नेताओं का राहुल गांधी के बयान से चिंतित होना यह दिखाता है कि राहुल की बातों में उन के चेहरे से नकाब उतारने का काम हुआ है और दुनियाभर में भारत में जो हो रहा है, वह चर्चा का विषय है, जिस से ये चेहरे मुंह दिखाने के काबिल नहीं हैं. अच्छा है सत्ता पक्ष का एकएक शब्द आज लोकसभा और राज्यसभा के रिकौर्ड में अंकित हो गया है. यह एक तरह से लोकतंत्र के लिए एक काले दिन के रूप में जाना जाएगा, जब सत्ता पक्ष ही राहुल गांधी के लिए प्रलाप कर रहा था.

फेसबुक पोस्ट : राहुल गांधी ने ब्रिटेन में जो कहा है, उस से भारत में बैठे सत्ता पक्ष के दिग्गज हिल गए हैं और वे संसद में ‘गांधी माफी मांगो’ के नारे लगाने पर मजबूर हो गए हैं. यह भारत के लोकतंत्र के लिए ऐतिहासिक तौर पर ‘काला दिन’ कहा जाएगा. तो क्या अब भारतीय जनता पार्टी को अपनी सत्ता खोने का डर सताने लगा है?

रोजीरोटी जो न दे वह सरकार निकम्मी है!

गूगल पर बेरोजगारों के फोटो खंगालते हुए बहुत से फोटो दिखे जिन में बेरोजगार प्रदर्शन के समय तख्तियां लिए हुए थे. जिन पर लिखा था, ‘मोदी रोजी दो वरना गद्दी छोड़ो’, ‘शिक्षा मंत्री रोजी दो वरना त्यागपत्र दो’, ‘रोजीरोटी जो न दे वह सरकार निकम्मी है’.

ये नारे दिखने में अच्छे लगते हैं. बेरोजगारों का गुस्सा भी दिखाते हैं पर क्या किसी काम के हैं? रोजगार देना अब सरकारों का काम हो गया. अमेरिका के राष्ट्रपति हों या जापान के प्रधानमंत्री, हर समय बेरोजगारी के आंकड़ों पर उसी तरह नजर रखते हैं जैसे शेयर होल्डर अडाणी के शेयरों के दामों पर. पर न तो यह नजर रखना नौकरियां पैदा करता है और न ही शेयरों के दामों को ऊंचानीचा करता है.

रोजगार पैदा करने के लिए जनता खुद जिम्मेदार है. सरकार तो बस थोड़ा इशारा करती है. सरकार उस ट्रैफिक पुलिसमैन की तरह होती है जो ट्रैफिक को उस दिशा में भेजता है जहां सड़क खाली है. पर ट्रैफिक के घटनेबढ़ने में पुलिसमैन की कोई भी वैल्यू नहीं है. सरकारें भी नौकरियां नहीं दे सकतीं. हां, सरकारें टैक्स इस तरह लगा सकती हैं, नियमकानून बना सकती हैं कि रोजगार पैदा करने का माहौल बने.

हमारे देश में सरकारें इस काम को इस घटिया तरीके से करती हैं कि वे रोजगार देती हैं तो केवल टीचर्स को. हर ऐसे टीचर्स, जो रोजगार पैदा करने लायक स्टूडैंट बना सकें.

ट्रैफिक का उदाहरण लेते हुए कहा जा सकता है कि ट्रैफिक कांस्टेबल को वेतन और रिश्वत का काम दिया जाता है. खराब सड़कें बनाई जाती हैं जिन पर ट्रैफिक धीरेधीरे चले. सड़कों पर कब्जे होने दिए जाते हैं, ताकि सड़कें छोटी हो जाएं और दुकानघरों से वसूली हो सके.

ऐसे ही पढ़ाई में हो रहा है. टीचर्स अपौइंट करने, स्कूल बनवाने, बुक बनवाने, एग्जाम कराने में सरकार आगे पर नौकरी लायक पढ़ाने में कोई नहीं. सरकार जानबू?ा कर माहौल पैदा करती है कि बच्चे पढ़ें ही नहीं, खासतौर पर किसानों, मजदूरों, मेकैनिकों, सफाई करने वालों को तो पढ़ाते ही नहीं हैं. वे सिर्फ मोबाइलों पर फिल्में देखना जानते हैं. ट्रैफिक पुलिसमैन बनी सरकार अपनी जेब भर रही है.

मोदी सरकार अगर इस्तीफा दे देगी तो जो नई सरकार आएगी वह भी उसी ढांचे में ढली होगी, क्योंकि यहां पढ़ाने का मतलब होता है पौराणिक पढ़ाई जिस में पढ़ाने वाला गुरु होता है जो मंत्रों को रटवाता है और उस के बदले दानदक्षिणा, खाना, गाय, औरतें, घर पाना है और गरमियों में पंखों के नीचे और सर्दियों में धूप में सुस्ताना है. कोचिंग में वह सिर्फ पेपर लीक करवा कर पास कराने का ठेका लेता है.

जब असली काम की नौबत आती है, पढ़ालिखा सीरिया और तुर्की के मकानों की तरह भूकंप में ढह जाता है. अब जब भूकंप के लिए रेसेप तैयप एर्दोगन और बशर अल असद जिम्मेदार नहीं तो नरेंद्र मोदी क्यों? इसलिए चुप रहो, शोर न मचाओ.

पाकिस्तान को तबाह किया धर्म के दुकानदारों ने

पाकिस्तान अब लगभग ढहने लगा है और बड़ी बात है कि इस ढहने में भारत का कोई हाथ नहीं है. पाकिस्तान जो एक समय-अभी 20 साल पहले-भारत से थोड़ा ज्यादा अमीर था, आज कंगाल हो गया है. डौलर के मुकाबले उस का रुपया 250-300 के पास पहुंच गया है और उस के पास न तेल खरीदने के पैसे हैं, न बिजली बनाने लायक कोयला खरीदने के. भारत के दबाव ने नहीं, पाकिस्तान के धर्म के दुकानदारों ने उसे तहसनहस कर दिया है.

पाकिस्तानी अमीर उमराव इस का पैसा ले कर कब के निकल चुके हैं और दूसरे देशों में बस गए हैं जहां उन्हें इसी धर्म की कट्टरता के कारण शक से देखा जाता है. पाकिस्तान ने पश्चिमी देशों में फैली आतंकवादी घटनाओं को अपने यहां पनपने दिया था, यह दुनिया भूली नहीं है और उस का आज सब से करीबी दोस्त चीन भी अब पाकिस्तानी कट्टरता की वजह से नाराज सा चल रहा है.

कट्टरता को हरदम अपनी हथेलियों पर रखने की वजह से पाकिस्तानी जनता पर एक जुनून चढ़ा रहता है. वहां की पसमांदा जनता को लगातार धर्म की अफीम की गोलियां खिलाई जाती हैं, ताकि वे लोग भारत में फैली जाति व्यवस्था से डरे रहें. इसी जाति व्यवस्था की वजह से इन्होंने इसलाम अपनाया था और ईरान, तुर्की, अरब देशों, उज्बेकिस्तान, तजाकिस्तान से आए ऊंचे कद के लंबेगोरे, आज पंजाबी बोलने वालों के हवाले अपने को कर दिया था. पर इन्हें मिला क्या?

जहां ऊंची जगहों पर बैठे लोग ऐयाशी की जिंदगी जी रहे हैं, आम पसमांदा मुसलमान गंदीमैली गलियों में बसे हैं और इसलाम का ढोल बजा रहे हैं. उन्हें देश की तरक्की की नहीं, इसलाम के आज बेमतलब हो चुके तौरतरीकों को लकीर का फकीर बन कर पीटने की आदत बन चुकी है.

भारत को इस का बड़ा सबक सीखना चाहिए. हम ने 1947 में धर्म की जगह संविधान, बराबरी, उदारता, धर्म को पीछे रखने का फार्मूला अपनाया और एक बेहद गरीब देश से खासे ठीकठाक पर गरीब लेकिन कंगले देश की तरह बन गए. पिछले 30 सालों में यहां जो लहरें उठाई जा रही हैं, वे हमें पाकिस्तान की राह पर ले जा रही हैं. हमारे यहां रातदिन हिंदूमुसलिम होता रहता है. कभी यूनिफौर्म सिविल कोड की बात होती है, तो कभी नैशनल रजिस्टर औफ सिटीजन्स की, जिस का निशाना भारत के मुसलमान ही हैं.

मुसलमानों को हिंदू गुंडों को ताकत दे कर बस्तियों में बंद कर दिया गया. गुजरात में 2002 में नरेंद्र मोदी की अगुआई में नमूना दिखा दिया गया. आज भारत के मुसलमानों को न आजादी से व्यापार करने को मिल रहा है, न अपनी बात कहने का. हिंदू बस्तियों में उन्हें जगह नहीं मिलती. हिंदू कंपनियों में नौकरियां नहीं मिलतीं.

हिंदी के न्यूज चैनल लगातार मुसलिम अपराधियों पर घंटों बरबाद करते रहते हैं और हिंदू गुंडों के कारनामे डिजिटल कारपेटों के नीचे छिपा देते हैं. यह पाकिस्तान की तरह बनने की कोशिश है जिस में मंदिरमठ चलाने वाले शामिल हैं ही, उन्होंने आम हिंदू को भी कायल कर दिया है कि देश की मुसीबतों की वजह इसलाम है. पाकिस्तान ने यही काम कश्मीर का नाम ले कर किया था जिस का खमियाजा आज चौथी पीढ़ी बुरी तरह सह रही है.

हमारे यहां अभी तो दूसरी पीढ़ी ही हिंदू मूर्तियों को फैला रही है पर पाकिस्तान बनने में ज्यादा देर नहीं लगेगी. इस के निशान दिखने लगे हैं. हिमालय विशाल है पर उस में भी दरारें पड़ती हैं, यह जोशीमठ याद दिला रहा है. भारत को पाकिस्तान या श्रीलंका न बनने दो.

कट्टरपंथी हिंदू और मुसलमान

कट्टरपंथियों ने हिंदूमुसलिम के जो बीज बोए हैं अब देश में अलगअलग शक्ल ले कर अलगअलग तरह के बीजों को जमीन देने लगे हैं. खेत में खलपरवार उगती है है तो वह एक ही तरह की नहीं होती. इस में बीसियों जहरीले पौधे भी होते हैं और उस में हर तरह के खतरनाक जानवर भी पनपने लगते हैं. पजाब में वारिस पंजाब दे नाम से बने गृह की जिम्मेदारी सीधेसीधे उन बजरंगियों पर जाती है जिन्होंने देश भर में कानून, संविधान, सभ्यता, बोलने की आजादी को पुलिस के मोटे जूतों और बुलडोजरों से रौंब है. अब दोनों पंजाब में किस तरह नाकाम हुए यह दिख गया है.

अमृपाल ङ्क्षसह के साथी कि पंजाब के अजचला पुलिस स्टेशन पर पकड़ कर रखे गए को छुड़ा लाए यह एक खतरनाक इशारा है. खेतों को बांधने वाली बाड़ अब टूटने लगी हैं. पंजाब की आम आदमी सरकार को कमजोर कह कर केंद्र सरकार अपना पीछा नहीं छुटा सकती. यह उसी की देन है कि अब इस तरह की घटना सारे देश में सुॢखयां बनने लगी हैं. कहीं अंबेडक़र की बेइज्जती की जा रही है, कहीं रामचरित्रमानस में लिखी देश की बड़ी जनता की ङ्क्षनदा पर हमला होने लगा है, कहीं जाति जनगणना होने की बात हो रही है. कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा मानो जो हो रहा था उस की पहले से दी गई चेतावनी थी.

पंजाब जैसी घटनाएं पहले भी हुई है. बाबरी मसजिद को गिराने से पहले और फिरगिराने के बाद देश इस तरह के जलजलों से परेशान होने लगा था. बाद में 2004 में भारतीय जनता पार्टी की हार से कुछ बात संभली थी पर अब फिर बिगड़ चुकी है.पंजाब का झगड़ा कहने को पुलिस और धर्म से जुड़े गुट का हो पर इन की जड़ में ङ्क्षहदू सिख मतभेद है जो वैसे नहीं दिखते पर पंजाब की राजनीति में अहम हैं.

आम आदमी पार्टी के अनगढ़ हाथों में ऐसा राज्य आ गया है जो न सिर्फ पाकिस्तान के साथ बार्डर पर है, 1947 के बाद कभी पूरी तरह शांत नहीं रहा. क्या पंजाबी सूवे की मांग, कभी पंजाबी की मांग, कभी गुरुद्वारा कानून पर झगड़ा, कभी सेना में भॢतयों का सवाल, कभी अपने ही दलित गुरू रामरहीम से झगड़ा उसी की निशानी है. पंजाब में सिख अलगाववादी तो उन से भी ज्यादा मुखर रहे हैं जिन्हें अरबन

नक्सल, माओवादी, देशद्रोही जैसे वालों से पुकारा जाता है. जनता को 2-3 हिस्सों में बांट देने वाली यह नीति कुछ समय तक तो सर्दी में हाथ तापने वाली आग का काम करती है पर फिर पतंगे फैलने लगते हैं और बस्तियां जलने लगती हैं. अब हम उस कोने पर आने लगे हैं. अब क्या कुछ करा सकता है. शायद नहीं. यह वह कोविड वायरस है जिस की वैक्सीन बनाने की खोज भी नहीं हो रही है.

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