कोलियरी की कोयला खदान में काम करने वाला एक सीधासादा मजदूर था अर्जुन महतो. पिछले से पिछले साल वह अपनी ननिहाल अनूपपुर गया था, तो वहां से पार्वती को ब्याह लाया. कच्चे महुए जैसा रंग और उस पर तीखे नयननक्श, खिलखिला कर हंसती तो उस के मोतियों जैसे दांत देखने वाले को बरबस मोहित कर लेते. वह कितनी खूबसूरत थी, उसे कह कर बताना बड़ा मुश्किल काम था. कोलियरी में जहां चारों ओर कोयले की कालिख ही कालिख बिखरी हो, वहां पार्वती की खूबसूरती उस के लिए एक मुसीबत ही तो थी. लोगों ने तरहतरह की बातें बनाईं.
एक ने कहा, ‘‘अर्जुन के दिन बहुरे हैं, जो इतनी सुंदर बहुरिया पा गया, वरना कौन पूछता उस कंगाल को?’’
एक छोटे दिल वाले ने जलभुन कर यह भी कह दिया, ‘‘ऐसा ही होता है यार, अंधे के हाथ ही बटेर लगती है.’’
उधर अर्जुन इन सब बातों से बेखबर, अपनी पार्वती में मगन था. लाड़ में वह उसे ‘परबतिया’ कह कर पुकारता था. उस की प्यारी परबतिया उस की गृहस्थी जमाने लगी थी.
अर्जुन को भी कोयला खदान की लोडर (गाड़ी में कोयला लादने वाला) की नौकरी में मकसद और जोश दोनों नजर आने लगे थे. कोलियरी के नेताओं के भाषणों में वह अमूमन एक ही घिसीपिटी बात सुनता था कि खदान से ज्यादा से ज्यादा कोयला निकालना है और सरकार के हाथ मजबूत करने हैं, पर अर्जुन भी इन भाषणों को और मजदूरों की तरह पान खा कर थूक देता था.
अर्जुन की सरकार तो उस की परबतिया थी. गोरीचिट्टी और गोलमटोल. धरती के पेट में छिपी कोयला खदान की उस काली दुनिया में जब अर्जुन अपने कंधों पर कोयले से भरी टोकरी लादे टब (एक टन कोयले की गाड़ी) को भर रहा होता, तब भी उस के दिल और दिमाग में सिर्फ उस की परबतिया होती, उस के छोटे से घर में खाना बना कर उस का इंतजार करती हुई. मेहनत करने से अर्जुन का शरीर लोहा हो गया था. पहली बार जब उस ने पार्वती को अपनी मजबूत बांहों में जकड़ा था तो वह मीठेमीठे दर्द से चिहुक उठी थी.
अर्जुन को लगा था कि परबतिया तो कोयले से भरी उस टोकरी से बहुत हलकी है. कहां वह कालाकाला कोयला और कहां हलदी की तरह गोरी फूलों की यह चटकती कली. अर्जुन की बांहों की मजबूती पा कर वह कली खिलने लगी थी. कभीकभी अर्जुन पार्वती को छेड़ता, ‘‘कम खाया कर परबतिया, बहुत मोटी होती जा रही है.’’
पार्वती अर्जुन के चौड़े सीने से सट जाती और अपनी महीन आवाज में फुसफुसाती, ‘‘इतना प्यार क्यों करता है रे मुझ से? तेरा लाड़प्यार ही तो मुझे दूना किए दे रहा है.’’
अर्जुन निहाल हो जाता. उस जैसा एक आम मजदूर इस से बड़ी और किस खुशी की कल्पना कर सकता था. वह सिर्फ नाम का ही तो अर्जुन था, जिस के पास कोयला खदान की खतरनाक नौकरी के सिवा कुछ भी नहीं था. समय बीतता गया. इस बीच कोयला खदान से जुड़े नियमकानूनों में भारी बदलाव आए. कोयला खानों का ‘राष्ट्रीयकरण’ हो गया.
अर्जुन जैसे लोगों को इस ‘राष्ट्रीयकरण’ का अर्थ तो समझ में नहीं आया शुरू में, किंतु थोड़े ही दिन बाद इस का मतलब साफ हो गया. ‘राष्ट्रीयकरण’ के बाद सभी मजदूर सरकारी मुलाजिम हो गए. और इस तरह मजदूर और कामगार कामचोर और उद्दंड भी हो गए, क्योंकि उन का कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता था. अर्जुन जैसे गिनती के मजदूरों पर ही पूरी ईमानदारी और खदान से ज्यादा से ज्यादा कोयला निकालने का जिम्मा आ पड़ा था.
मेहनत ऐसे मजदूरों के खून में थी, क्योंकि कोयला खानों से इन का रिश्ता उतना ही पुराना और मजबूत था, जितना एक खेतिहर का अपनी जमीन और माटी से होता है. धीरेधीरे यहां की कोलियरी में कई मजदूर नेता भी उभरने लगे. पर देवेंद्रजी ने, जिन का इतिहास भी यहां की कोयला खदान जितना ही पुराना है, अपने आगे किसी नए नेता को उभरने नहीं दिया. वे हमेशा से मजदूर के भरोसेमंद आदमी रहे थे और उन की चौपाल हमेशा हरीभरी रहती थी. किसी मजदूर को घर चाहिए, तो किसी को बिजली. कहीं महल्ले में पानी का इंतजाम करवाना है, तो कहीं मजदूरों के लिए कैंटीन का. कोई रिटायर हो गया है, तो उस का दफ्तर से हिसाबकिताब करवाना है, भविष्य निधि वगैरह के पैसे दिलवाने हैं.
कोई भी काम हो, कैसी भी समस्या हो, देवेंद्रजी बड़ी आसानी से सुलझा देते थे. उन्हें मैनेजरों का पूरा भरोसा हासिल था, इसलिए विरोधी नेता भी उन्हें डिगा नहीं पाते थे. अचानक इस कोलियरी में एक अजीब घटना हो गई. फैलने को या तो आग फैलती है या अफवाह. पर यह अफवाह नहीं थी, इसीलिए यहां के सभी लोग हैरान थे.
किसी ने कहा, ‘‘भाई, सुना तुम ने… बड़ा गजब हो गया.’’
दूसरे ने पूछा, ‘‘क्या पहाड़ टूट गया एक ही रात में? कल तक तो सबकुछ ठीकठाक था.’’
तीसरे ने कहा, ‘‘वाह भाई, कुछ दीनदुनिया की खबर भी रखा करो यार, खातेकमाते तो सभी हैं.’’
दूसरे ने फिर पूछा, ‘‘पर, हुआ क्या है, कुछ बताओगे भी?’’
‘‘अरे वह परबतिया थी न, दिनदहाड़े जा कर गया प्रसाद के घर बैठ गई,’’ बताने वाले की आवाज में ऐसा जोश था, मानो वह इस घटना के घटने का सालों से इंतजार कर रहा हो.
‘‘कौन परबतिया और कौन गया प्रसाद? यार, साफसाफ बताओ न,’’ पूछने वाले के चेहरे का रंग अजीब हो गया था.
‘‘गजब करते हो यार, धिक्कार है तुम्हारी जिंदगी को. अरे, परबतिया को नहीं जानते?’’ बताने वाले के चेहरे पर धिक्कार के भाव थे,
‘‘क्या उस जैसी 2-4 औरतें हैं यहां? अरे वही अर्जुन महतो की घरवाली. हां, वही पार्वती. कल वह अर्जुन का घर छोड़ गया प्रसाद के घर बैठ गई.’’
‘‘अच्छा, वह परबतिया,’’ उस घटना से अनजान आदमी ने चौंकते हुए कहा, ‘‘अरे भई, ‘तिरिया चरित्तर’ को कौन समझ सकता है. भाई…बड़ी सतीसावित्री बनती थी.’’
जितने मुंह उतनी बातें. चारों तरफ कानाफूसी. लोग चटकारे लेले कर उस घटना की चर्चा कर रहे थे. बहुत दिनों से यहां कुछ हुआ नहीं था, इसलिए यहां के पान के ठेलों पर महफिलें सूनीसूनी रहने लगी थीं. पुरानी बातों को ले कर आखिर लोग कब तक जुगाली करते…
इस नई घटना से सभी का जोश फिर लौट आया था. कुछ लोग इस घटना से दहशत और सन्नाटे की चपेट में भी आ गए थे. जब पार्वती जैसी बेदाग औरत ऐसा कर सकती है तो उन की अपनी बीवियों का क्या भरोसा? हर शक्की पति घबराया हुआ था. कहीं उन की बीवियां भी ऐसा कर बैठें तो…?
इस घटना के बाद देवेंद्र की चौपाल फिर सजी थी ठीक किसी मदारी के तमाशे जैसी. कभी कोई भला आदमी गलती से यहां मर जाता तो अरथी के साथ चलने के लिए लोग ढूंढ़े नहीं मिलते थे. कहते, ‘‘अरे, कोई मर गया तो मर गया. एक न एक दिन तो सभी को मरना ही है.’’
भीड़ में आए ज्यादा लोगों को हमदर्दी अर्जुन महतो के साथ थी. बेचारा, बेसहारा अर्जुन. कितनी धोखेबाज होती हैं ये औरतें भी. और यदि खूबसूरत हुई तो मुसीबतें ही मुसीबतें. मनचले कुत्तों की तरह सूंघते फिरते हैं. देवेंद्र की चौपाल में भीड़ बढ़ी, तो पास ही मूंगफली बेचने वाली बुढि़या खुश हो गई थी. केवल वही थी वहां, जिसे सिर्फ अपनी मूंगफलियों की बिक्री की चिंता थी.
उसे न परबतिया से मतलब था, न गया प्रसाद से. घर के बाहर भीड़ का शोरगुल हुआ, तो देवेंद्र घर से बाहर निकल आए. सभी ने उन को प्रणाम किया. वह वहीं नीम के पेड़ के नीचे कुरसी लगवा कर बैठ गए. देवेंद्रजी ने गहराई से भीड़ का जायजा लिया और परेशानी भरी आवाज में बोले, ‘‘फिर कौन सा बवाल हो गया भाइयो? क्या हमें अब एक दिन का चैन भी नहीं मिलेगा…”