ऐतिहासिक कहानी – भाग 3 : हाड़ी रानी की अंतिम निशानी

विदाई मांगते समय पति का गला भर आया. यह हाड़ी रानी की तेज आंखों से छिपा न रह सका. यद्यपि चुंडावत सरदार ने उसे भरसक छिपाने की कोशिश की.

हताश मन व्यक्ति को विजय से दूर ले जाता है. उस वीरबाला को यह समझते देर न लगी कि पति रणभूमि में तो जा रहा है, पर मोहग्रस्त हो कर. पति विजयश्री प्राप्त करे, इस के लिए उस ने कर्तव्य की वेदी पर अपने मोह की बलि दे दी.

वह पति से बोली, ‘‘स्वामी जरा ठहरिए. मैं अभी आई.’’ वह दौड़ीदौड़ी अंदर गई. आरती का थाल सजाया. पति के मस्तक पर टीका लगाया और आरती उतारी. वह पति से बोली, ‘‘मैं धन्य हो गई, ऐसा वीर पति पा कर. हमारा आप का तो जन्मजन्मांतर का साथ है. राजपूत रमणियां इसी दिन के लिए तो पुत्र को जन्म देती हैं. आप जाएं स्वामी. मैं विजय माला लिए द्वार पर आप की प्रतीक्षा करूंगी.’’

उस ने अपने नेत्रों से उमड़ते हुए आंसुओं को पी लिया था. पति को दुर्बल नहीं करना चाहती थी. चलतेचलते पति उस से बोला, ‘‘प्रिय, मैं तुम को कोई सुख न दे सका, बस इस का ही दुख है. मुझे भूल तो नहीं जाओगी? यदि मैं न रहा तो…’’

राणा रतन सिंह का वाक्य पूरा भी न हो पाया था कि हाड़ी रानी ने उन के मुख पर हथेली रख दी, ‘‘न न स्वामी, ऐसी अशुभ बातें न बोलो. मैं वीर राजपूतानी हूं. फिर वीर की पत्नी भी हूं. अपना अंतिम धर्म अच्छी तरह जानती हूं, आप निश्चिंत हो कर प्रस्थान करें. देश के शत्रुओं के दांत खट्टे करें. यही मेरी प्रार्थना है.’’

चुंडावत सरदार रतन सिंह ने घोड़े को ऐड़ लगाई. रानी उसे एकटक निहारती रही, जब तक वह आंखों से ओझल न हो गया. उस के मन में दुर्बलता का जो तूफान छिपा था, जिसे अभी तक उस ने बरबस रोक रखा था, वह आंखों से बह निकला.

चुंडावत सरदार अपनी सेना के साथ हवा से बातें करता उड़ा जा रहा था. किंतु उस के मन में रहरह कर आ रहा था कि कहीं सचमुच मेरी पत्नी मुझे बिसार न दे? वह मन को समझाता पर उस का ध्यान उधर ही चला जाता. अंत में उस से रहा न गया.

उस ने आधे मार्ग से अपने विश्वस्त सैनिकों को हाड़ी रानी के पास भेजा. रानी को फिर से स्मरण कराया था कि मुझे भूलना मत, मैं जरूर लौटूंगा. संदेशवाहक को आश्वस्त कर रानी सलेहकंवर ने लौटाया.

दूसरे दिन एक और वाहक आया. फिर वही बात. तीसरे दिन फिर एक आया. इस बार वह रानी के पास चुंडावत सरदार का पत्र लाया था. पत्र में लिखा था, ‘‘प्रिय, मैं यहां शत्रुओं से लोहा ले रहा हूं. अंगद के समान पैर जमा कर उन को रोक दिया है. मजाल है कि वे जरा भी आगे बढ़ जाएं. यह तो तुम्हारे रक्षा कवच का प्रताप है. पर तुम्हारी बड़ी याद आ रही है. पत्र वाहक के साथ कोई अपनी प्रिय निशानी अवश्य भेज देना. उसे ही देख कर मैं मन को हलका कर लिया करूंगा.’’

हाड़ी रानी पत्र को पढ़ कर सोच में पड़ गईं. युद्ध के मैदान में मुकाबला कर रहे पति का मन यदि मेरी याद में ही रमा रहा. उन के नेत्रों के सामने यदि मेरा ही मुखड़ा घूमता रहा तो वह शत्रुओं से कैसे लड़ेंगे. विजयश्री का वरण कैसे करेंगे? उस के मन में एक विचार कौंधा.

वह सैनिक से बोली, ‘‘वीर! मैं तुम्हें अपनी अंतिम सेनाणी (निशानी) दे रही हूं. इसे ले जा कर उन्हें दे देना. थाल में सजा कर सुंदर वस्त्र से ढक कर अपने वीर सेनापति के पास पहुंचा देना. किंतु इसे कोई और न देखे. वे ही खोल कर देखें. साथ में मेरा यह पत्र भी दे देना.’’

हाड़ी रानी के पत्र में लिखा था, ‘प्रिय, मैं तुम्हें अपनी अंतिम निशानी भेज रही हूं. तुम्हारे मोह के सभी बंधनों को काट रही हूं. अब बेफिक्र हो कर अपने कर्तव्य का पालन करें. मैं तो चली… स्वर्ग में तुम्हारी राह देखूंगी.’

पलक झपकते ही हाड़ी रानी ने अपनी कमर से तलवार निकाल एक झटके में अपने सिर को उड़ा दिया. वह धरती पर लुढ़क पड़ा. सैनिक के नेत्रों से अश्रुधारा बह निकली. कर्तव्य कर्म कठोर होता है, सैनिक ने स्वर्ण थाल में हाड़ी रानी सलेहकंवर के कटे सिर को सजाया, सुहाग के चुनर से उस को ढका. भारी मन से युद्ध भूमि की ओर दौड़ पड़ा.

उस को देख कर चुंडावत सरदार स्तब्ध रह गया. उसे समझ में न आया कि उस के नेत्रों से अश्रुधारा क्यों बह रही है? धीरे से वह बोला, ‘‘क्यों यदुसिंह रानी की निशानी ले आए?’’

 

यदु ने कांपते हाथों से थाल उन की ओर बढ़ा दिया. चुंडावत सरदार फटी आंखों से पत्नी का सिर देखता रह गया. उस के मुख से केवल इतना निकला, ‘‘उफ, हाय रानी. तुम ने यह क्या कर डाला. संदेही पति को इतनी बड़ी सजा दे डाली. खैर, मैं भी तुम से मिलने आ रहा हूं.’’

चुंडावत सरदार रतनसिंह के मोह के सारे बंधन टूट चुके थे. वह पत्नी का कटा सिर गले में लटका कर शत्रु पर टूट पड़ा. इतना अप्रतिम शौर्य दिखाया था कि उस की मिसाल मिलना बड़ा कठिन है. जीवन की आखिरी सांस तक वह लड़ता रहा. औरंगजेब की सहायक सेना को उस ने आगे बढ़ने ही नहीं दिया. जब तक मुगल बादशाह मैदान छोड़ कर भाग नहीं गया था.

इस के बाद चुंडावत रावत रतनसिंह ने पत्नी वियोग में अपना सिर तलवार से स्वयं काट कर युद्धभूमि में वीरगति पाई. वह हाड़ी रानी से अटूट प्रेम करते थे, इस कारण वह रानी के वियोग में जी नहीं सकते थे.

महारानी वीरांगना हाड़ी रानी की मृत्यु का कारण सिर्फ अपनी मातृभूमि की रक्षा करने के लिए एक बलिदान था. हाड़ी रानी ने अपने पति को रणभूमि में हारते हुए बचाने और अपनी प्रजा की रक्षा करने के लिए मौत को गले लगा लिया था.

धन्य है ऐसी वीरांगना हाड़ी रानी सलेहकंवर और धन्य है वो धरा जहां उन्होंने जन्म लिया और कर्तव्य पालन के लिए बलिदान दिया. चुंडावत मांगी सैनाणी, सिर काट दे दियो क्षत्राणी. यह लोकोक्ति हाड़ी रानी पर सटीक बैठती है.

चिनम्मा- भाग 2 : कौन कर रहा था चिन्नू का इंतजार ?

अन्ना और चिनम्मा का वार्त्तालाप जारी था. इसी बीच किसी ने 100 रुपए का एक नया नोट अन्ना को पकड़ाते हुए चिनम्मा के पीछे खड़े हो कर कहा, ‘‘अन्ना, एक ठंडी पैप्सी देना, बहुत प्यास लग रही है,’’ आवाज कुछ पहचानी सी लगी. पलट कर चिन्नू ने देखा तो उस से 3 कक्षा आगे पढ़ने वाला उस के स्कूल का सब से शैतान बच्चा साई खड़ा है. वह एकटक उसे देख कर सोचने लगी, यह यहां कैसे? स्कूल में सब कहते थे कि इसे तो इस की शैतानी से परेशान हो कर इस की विधवा अम्मा ने 3 साल पहले ही कहीं भेज दिया था किसी रिश्तेदार के घर.

उसे लगातार अपनी तरफ देख कर साई ने हंसते हुए कहा, ‘‘चिनम्मा ही है न तू, क्या चंदा के माफिक चमकने लगी इन 3 सालों में, पहचान में ही नहीं आ रही तू तो.’’

एकदम से सकपका सी गई वह साई की इस बात को सुन कर. कहना तो वह भी चाहती थी, ‘तू भी तो बिलकुल पवन तेजा (तेलुगू फिल्मी हीरो) की माफिक स्मार्ट और सयाना बन गया है. पर पता नहीं क्यों बोलने में शर्म आई उसे. वह तेल ले, नजर ?ाका, घर भाग आई तेजी से.

अप्पा के आने का समय हो रहा था. ढिबरी जला कर जल्दीजल्दी सूखी मछली का शोरबा और चावल बनाया तथा थोड़ी लालमिर्च भी भून कर रख दी अलग से. अप्पा को भुनी मिर्च बहुत पसंद है. घर का सारा काम निबटा कर पढ़ने बैठ गई. पर पता नहीं क्यों सामने किताब खुली होने पर भी वह पढ़ नहीं पा रही थी आज.

इसी बीच, अप्पा के तेज खर्राटों की आवाज आनी शुरू हो गई. चिनम्मा ने करवट बदली. अम्मा भी बेसुध सो रही थी. खर्राटों की आवाज से उस का सोना मुश्किल हो रहा था. आज ढंग से पढ़ाई न कर पाने के कारण अपनेआप से खफा भी थी वह. चिनम्मा को तो बहुत सारी पढ़ाई करनी है, उसे वरलक्ष्मी मैडम की तरह टीचर बनना है जो उस के स्कूल में पढ़ाती हैं.

रोज साफसुथरी और सुंदरसुंदर साडि़यां पहन कर कंधे पर बड़ा सा बैग लटकाए जब मैडम स्कूल आती हैं तो उन्हें देखते ही बनता है. क्या ठाट हैं उन के? पढ़ाई के संबंध में अम्मा तो उसे कुछ ज्यादा नहीं कहती पर जब किताब खरीदने या स्कूल के मामूली खर्चे की भी बात आती तो अप्पा नाराज हो कर अम्मा से कहने लगता है, ‘देखो, लड़की बिगड़ न जाए ज्यादा पढ़ कर. ज्यादा पढ़ लेगी, तो हमारे मछुआरे समाज में कोई अच्छा लड़का शादी को भी तैयार नहीं होगा. फिर उसे पढ़ा कर फायदा भी क्या? कौन सा हम लोगों के बुढ़ापे का सहारा बनेगी, चली जाएगी दूसरे का घर भरने.’

काफी करवटें बदलने के बाद भी जब उसे नींद नहीं आई तो वह उठ कर ?ोंपड़ी की छोटी सी खिड़की से बाहर देखने लगी. रात के लगभग 10 बजे होंगे. पूरा गांव सो रहा था. बस, बीचबीच में कुत्तों के भूंकने की आवाज आ रही थी. चांद की दूधिया रोशनी से सारा समुद्र बहुत शांत और गंभीर लग रहा था. समुद्रतट पर रखी छोटीछोटी नावों को देख कर ऐसा महसूस हो रहा था मानो वे भी आराम कर रही हों.

मुंहअंधेरे (ढाई से 3 बजे के लगभग) गांव के अधिकांश मर्द अपना जाल समेटे, लालटेन लिए तीनचार समूह बना कर एकएक नाव में बैठ जाएंगे और निकल पड़ेंगे अथाह समुद्र में दूर तक मछलियां पकड़ने. दोचार मछुआरों के पास अपनी नावें हैं, नहीं तो ज्यादातर किराए की नावों का ही प्रयोग करते हैं. समुद्र में जाल डाल कर घंटों इंतजार करना पड़ता है उन्हें. कभी तो ढेर सारी मछलियां हाथ लग जाती हैं एकसाथ, पर कभीकभी खाली हाथ भी आना पड़ता है. वापस आतेआते 9-10 बज जाते हैं. औरतें खाना बना कर पति का इंतजार करती रहती हैं. जैसे ही नाव आनी शुरू हो जाती, शहर से आए थोक व्यापारी मोलभाव कर के सस्ते में मछलियां खरीद कर ले जाते हैं.

बची हुई पारा, सुरमई, पाम्फ्रेड, बांगडा, प्रौन आदि मिश्रित मछलियों को ले कर औरतें तुरंत निकल जाती हैं घरघर बेचने. मर्द खाना खा कर सो जाते हैं. जब तक मर्दों की नींद पूरी होती, तब तक औरतें मछलियां बेच कर मिले पैसों से घर का जरूरी सामान खरीद वापस आ जाती हैं. फिर शाम का खानापीना, शहर की लंबीलंबी बातें, फिल्मों की गपशप, हंसीमजाक और अकसर गालीगलौज भी.

मछुआरों में मुख्यतया हिंदू या ईसाई धर्मावलंबी हैं. पर उन सब का पहला धर्म यह है कि वे मछुआरे हैं. मछली पकड़ने भी रोज नहीं जाया जा सकता, मछुआरे समाज की मान्यता है कि ऐसा करने से समुद्र जल्दी ही खाली हो जाएगा और फिर देवता के कोप से उन्हें कोई बचा नहीं सकता. साल के लगभग 3 महीने जब मछलियों के ब्रीडिंग का समय होता है, मछुआरे समुद्र में मछली मारने नहीं जाते. यह उन का उसूल है. ऐसे समय छोटे मछुआरों के घरों की हालत और खराब हो जाती है. तब इन में से ज्यादातर मजदूरी करने विशाखापट्टनम या हैदराबाद जैसे शहरों में चले जाते हैं.

चिनम्मा का परिवार पहले हिंदू था. पर आर्थिक सहायता मिलने की आशा में अप्पा ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया है. और हर रविवार को चर्च जरूर जाता है. घर में चाहे कितनी भी आर्थिक तंगी हो, चिनम्मा का अप्पा तो गांव छोड़ कर कभी कहीं नहीं जाता कमाने. उसे कमाने से ज्यादा पीने से मतलब है. जिस दिन कमाई के पैसे नहीं हों, तो घर का कोई बरतन ही बेच कर अपना काम चला लेता है. अम्मा बेचारी करे भी तो क्या करे? लड़ती?ागड़ती और अपने समय को कोसती हुई अप्पा को गालियां देती रहती है. उस ने तो गृहस्थी चलाने और पेट भरने के लिए डौल्फिन पहाड़ी पर बसी नेवी कालोनी में नौकरानी का काम शुरू कर दिया है.

अप्पा के खांसने की आवाज से चिनम्मा का ध्यान भंग हुआ, वह वापस आ कर लेट गई. सोचतेसोचते पता नहीं कब नींद ने उसे अपनी आगोश में ले लिया. सुबह अम्मा की तेज आवाज से नींद खुली. साढ़े 6 बज गए. आज बिस्तर पर ही पड़ी रहेगी क्या चिन्नू? कौफी बना कर रख दी है, पी लेना. मैं काम पर जा रही हूं.

जीवन संघर्ष -भाग 2 : एक मां की दर्दभरी दास्तान

श्रेया इस बेमेल ब्याह से खुश नहीं थी, इसीलिए वह मेरे ब्याह में भी नहीं आई थी. केवल टैलीफोन पर बात होती थी.श्रेया ने कहा, ‘‘जो हुआ उसे मैं बदल नहीं सकती हूं. रिश्ते में तो आप मेरी चाची लगती हैं, मेरी मां जैसी, लेकिन हम दोस्त बन कर रहेंगी. दोस्त के साथ बहन की तरह,’’ इतना हौसला दे कर श्रेया चली गई.मेरे पति ने मुझे मोबाइल फोन दिलवा दिया था.

उन के मन में डर था कि मैं कहीं भाग न जाऊं. बुढ़ापे की शादी में आमतौर पर असंतुष्ट हो कर लड़कियां भाग जाती हैं. वे हमेशा मेरे टच में रहना चाहते थे. मेरी शादी को मुश्किल से 15 दिन हुए थे कि मुझे उलटी आई. अगले 15 दिन भी यही हालत रही. मेरी सासू मां ने अंदाजा लगा लिया कि उन के घर में पोता आने वाला है. पोती क्यों नहीं आ सकती? बस, इसी सवाल का जवाब नहीं मिलता है.

किसी ने मुझे डाक्टर के पास ले जाना जरूरी नहीं समझा. मैं इस हालत में भी मैं पूरे घर का काम करती रही, बिना किसी की हमदर्दी के. पति भी मेरे शरीर को नोचते और सो जाते. उन्हें अपनी संतुष्टि से मतलब था. केवल श्रेया सब से छिपा कर कभी चौकलेट, कभी कुल्फी, कभी कोल्ड ड्रिंक, तो कभी फल ला कर देती. वह कहती,

‘‘समय पर खाना खाया करो. जल्दी सोया करो. कुछ खाने का मन करे तो चाचाजी को बोल दिया करो. मैं दे जाया करूंगी.’’मैं रात को जल्दी सोने लगी.

पति रात को आते और सो जाते. 3 दिन तक यही चला रहा. तीसरे दिन वे उखड़ेउखड़े लगे. वजह मुझे पता नहीं चली. रात को पति ने कंधा पकड़ कर खड़ा किया. मैं हड़बड़ा कर उठ गई. उन्होंने कहा, ‘‘3 दिन से मैं तुम्हारा नाटक देख रहा हूं. तुम रोज जल्दी सो जाती हो. यह सब मुझे बरदाश्त नहीं है. हमारे यहां सभी रात के 10 बजे सोते हैं.’’मैं पति का यह रूप देख कर डर गई.

मैं रोते हुए बोली, ‘‘मुझे दिन में बहुत थकान महसूस होती है. सिरदर्द होता है. मैं सारे घर का काम कर के खुद खाना खा कर सोती हूं.’’पति ने कहा, ‘‘वह मैं कुछ नहीं जानता. कल से 10 बजे के बाद सोना.’’मैं समझ ही नहीं पाई कि यह कैसा पति है, जो अपनी पत्नी की तकलीफ को समझ ही नहीं पा रहा है. मेरे पास सहने के अलावा कोई चारा नहीं था.

मैं 10 बजे के बाद सोने लगी. मैं दिन में सो कर अपनी नींद पूरी कर लेती. इस हालत में मेरा अलगअलग चीजें खाने का दिल करता. कभी वे ला देते, कभी कहते कि पैसे नहीं हैं. इन चीजों में पैसे लगते हैं, फ्री में कुछ नहीं मिलता है.कभीकभार जब ननद अपनी ससुराल जाती तो पति मेरे लिए पानीपुरी, रसगुल्ले, मिर्ची बड़ा, फल वगैरह ला देते थे. पर ननद को पता चलता तो भी मुझे, कभी मेरे पति को डांटती रहती, ‘‘इतना सब खर्च करने की क्या जरूरत थी? खाएगी तो उलटी कर देगी.

पैसे बचाओगे तो काम आएंगे.’’मेरा मन गुस्से से भर जाता. मैं किचन में काम कर रही होती. मन होता कि हाथ की कड़छी ननद के सिर पर दे मारूं.धीरेधीरे मेरी डिलीवरी का समय नजदीक आने लगा. मुझे इस हालत में खाना खाने को नहीं मिलता था. एक दिन मुझे भयंकर दर्द हुआ. मेरे पति स्कूटर पर अस्पताल ले कर गए. इतना भी नहीं हुआ कि वे मुझे आटोरिकशा में ले जाते.डाक्टर को पता चला तो उन्होंने पति को जबरदस्त डांट लगाई,

‘‘इतनी तो समझ होनी चाहिए थी कि पत्नी को आराम से लाते हैं. बस, बच्चे पैदा करने आते हैं.’’मेरे पति कुछ बोल नहीं पाए थे. बोलते भी क्या? फिर धीरे से बोले, ‘‘मेरे घर में गाड़ी नहीं है.’’‘‘तो किराए की ले लेते. हालत देखी है इस की? कुछ हो जाता तो कौन जिम्मेदार होता?’’

डाक्टर ने फिर डांटा.डिलीवरी हुई. लड़का हुआ था. वह टुकुरटुकुर मेरी तरफ देख रहा था. यह देख कर मेरी छाती से दूध बह निकला. मैं करवट ले कर दूध पिलाने लगी.डिलीवरी के बाद मेरा बड़ा मन था कि अपने बच्चे को गुड़ या शहद चटाने की रस्म मैं करूं.

लेकिन मैं बेहोश थी. होश में आई तो ननद यह रस्म पूरी कर चुकी थी. मैं बहुत रोई. मेरे मन के भीतर की चाह सपना बन गई थी.मैं ने पति से कहा, ‘‘आप को इतना तो पता होना चाहिए था कि बच्चे को गुड़ या शहद चटाने की रस्म उस की मां करती है?’’पहली बार पति को मेरे भीतर के गुस्से का सामना करना पड़ा था. काफी देर तक वे बोल नहीं पाए थे, फिर कहा, ‘‘अब पूरी कर लो यह रस्म.

गुड़ भी है और शहद भी है.’’मैं डिलीवरी के बाद घर आई. मुश्किल से अभी 15 दिन हुए थे कि ननद घर में काम करने का गुस्सा छोटीछोटी बच्चियों पर निकालने लगी. एक वजह यह भी थी कि मेरे पहला ही बेटा हो गया था. इस में किसी का क्या कुसूर था?मेरी ननद मेरा सब से बड़ा सिरदर्द थी. उस की 3 लड़कियां थीं और लड़के की चाहत में लड़कियों की फौज इकट्ठी कर ली थी. उस की ससुराल में सासससुर थे, तो अकसर बीमार रहते थे. पति अच्छाखासा कमाता था.

जंजाल – भाग 2 : मां की आशिकी ले डूबी बेटी को

एक सुबह सोनम की मां महेश साहब के घर काम करने चली गई थी. बापू भी घर से दूर एक साइट पर मजदूरी करने चले गए थे. उस के बापू का 2-3 दिन बाद ही घर लौटना मुमकिन था.

मौका देख कर सोनम रवि के साथ घर से भाग गई. सोनम के पास एक बैग था, जिस में उस के कपड़े थे. रवि ने भी एक बैग में अपने कपड़े रख लिए थे.

बस तेजी से मुजफ्फरपुर की ओर भागी जा रही थी.

‘‘वहां पहुंचते ही हम मंदिर में जा कर शादी कर लेंगे. उस के बाद होटल में ठहरेंगे,’’ रवि ने कहा.

सोनम ने मुसकरा कर अपनी सहमति दे दी.

बस 2 घंटे बाद मुजफ्फरपुर पहुंच गई. रिकशे वाले ने उन्हें मंदिर तक पहुंचा दिया. सोनम ने नया सलवारसूट पहना था. उस की मांग रवि ने भर दी. मंदिर के पुजारी को रवि ने

501 रुपए की दक्षिणा दे दी. शादी का नाटक महज आधे घंटे में पूरा हो गया.

सोनम रवि की दुलहन बन गई थी. रवि और सोनम एक सस्ते से होटल में ठहरे थे. रात हो गई थी. आज रवि और सोनम की सुहागरात थी.

रवि के लिए सुहागरात तो एक बहाना था. सोनम का जिस्म पाने के लिए उस ने इतनी तरकीब लगाई थी. अब वह घड़ी आ गई थी. सोनम इसे सच्चा प्यार समझ रही थी.

सोनम पलंग पर बैठी थी. रवि ने उस के कपड़े उतार दिए. वह शरमा कर रवि की बांहों में सिमट गई. उस ने सोनम को बिछावन पर लिटा दिया और सैक्स करने लगा. हैवान ने उस की इज्जत पलभर में लूट ली थी.

इधर शाम को सुहागी घर लौटी. वह सोनम को घर में नहीं पा कर घबरा गई. शाम को स्कूल बंद हो जाता है, आखिर सोनम कहां है? उस ने तुरंत केशव

को फोन से सोनम के लापता होने की बात कही.

केशव ने घबरा कर शाम को घर जाने वाली बस पकड़ ली. वह 3-4 घंटे में घर पहुंच गया.

‘‘मैं तो सोनम को खोजखोज कर थक गई. उस का कहीं पता नहीं चला. कहां है मेरी बेटी…’’ सुहागी केशव से कह कर सुबकने लगी.

‘‘किसी बदमाश ने उस का अपहरण तो नहीं कर लिया? पुलिस को खबर करते हैं,’’ केशव ने शक जताया.

‘‘नहींनहीं. बेटी की बात है. पुलिस आएगी तो हमारी इज्जत चली जाएगी. कसबे के लोग हमारा जीना मुश्किल कर देंगे,’’ सुहागी ने कहा.

रातभर उस के मांबापू जाग कर सुबह होने का इंतजार करने लगे.

सुबह होते ही वे लोग सोनम को ढूंढ़ने निकल पड़े.

स्कूल के रास्ते में सुहागी ने एक दुकानदार से पूछा, ‘‘किसी लड़की को इधर से जाते देखा है?’’

दुकानदार ने कहा, ‘‘दोपहर में एक लड़की एक लड़के के साथ बैग ले कर कहीं जा रही थी. इस के बाद मुझे पता नहीं.’’

मांबापू को कुछ समझ में नहीं आ रहा था. वे लोग आसपास के ठिकानों पर ढूंढ़ते रहे, लेकिन सोनम नहीं मिली थी. मांबापू थकहार कर घर लौट आए थे.

होटल से निकलने के बाद रवि सोनम को ले कर किसी आंटी के पास पहुंचा. वह रैडलाइट एरिया था, जहां लड़कियों को सजाधजा कर ग्राहकों की खिदमत में पेश किया जाता था.

आंटी ग्राहकों से रुपए वसूलती थी. बदले में आमदनी का कुछ हिस्सा लड़कियों को मिलता था. आंटी एक अलग कमरे में बैठी थी. कमरे में आंटी के अलावा कोई नहीं था.

‘‘आंटी, यह सोनम है. मेरी नईनवेली दुलहन. कुछ दिन यहां रुक कर हम लोग चले जाएंगे,’’ रवि ने बड़ी सादगी से कहा.

आंटी ने प्यार से सोनम को देखा, ‘‘तेरी बड़ी खूबसूरत दुलहन है. अरे, जब तक चाहो यहां रहो, मैं भला क्यों मना करूंगी.’’

आंटी की तारीफ सुन कर सोनम मुसकरा दी. उसे आंटी बड़ी भली औरत लगी थी.

‘‘सोनम, यहां बैठो. अभी चायनाश्ता लाती हूं,’’ कह कर आंटी दूसरे कमरे में चली गई. आंटी के पीछेपीछे रवि भी चला गया. सोनम वहीं बैठी रही.

‘‘कैसी लगी सोनम? एकदम कमसिन है न?’’ रवि ने आंटी से पूछा.

अंधविश्वास से आत्मविश्वास तक- भाग 2 : क्या भरम से निकल पाया नरेन

अभी तक तो नरेन स्वयं जा कर स्वामीजी के निवास पर ही मिल आता था, पर उसे नहीं मालूम था कि इस बार नरेन इन को सीधे घर ही ले आएगा.

वह लेटी हुई मन ही मन स्वामीजी को जल्दी से जल्दी घर से भगाने की योजना बना रही थी कि तभी डोरबेल बज उठी. ‘लगता है बच्चे आ गए‘ उस ने चैन की सांस ली. उस से घर में सहज नहीं रहा
जा रहा था. उस ने उठ कर दरवाजा खोला. दोनों बच्चे शोर मचाते घर में घुस गए. थोड़ी देर के लिए वह सबकुछ भूल गई.

शाम को नरेन औफिस से लगभग 7 बजे घर आया. वह चाय बनाने किचन में चली गई, तभी नरेन भी किचन में आ गया और पूछने लगा, “स्वामीजी को चाय दे दी थी…?”

“किसी ने कहा ही नहीं चाय बनाने के लिए… फिर स्वामी लोग चाय भी पीते हैं क्या..?” वह व्यंग्य से बोली.

“पूछ तो लेती… ना कहते तो कुछ अनार, मौसमी वगैरह का जूस निकाल कर दे
देती…”

रवीना का दिल किया फट जाए, पर खुद पर काबू रख वह बोली, “मैं ऊपर जा कर कुछ नहीं पूछूंगी नरेन… नीचे आ कर कोई बता देगा तो ठीक है.”

नरेन बिना जवाब दिए भन्नाता हुआ ऊपर चला गया और 5 मिनट में नीचे आ गया, “कुछ फलाहार का प्रबंध कर दो.”

“फलाहार…? घर में तो सिर्फ एक सेब है और 2 ही संतरे हैं… वही ले जाओ…”

“तुम भी न रवीना… पता है, स्वामीजी घर में हैं… सुबह से ला नहीं सकती थी..?”

“तो क्या… तुम्हारे स्वामीजी को ताले में बंद कर के चली जाती… तुम्हारे स्वामीजी हैं,
तुम्हीं जानो… फल लाओ, जल लाओ… चाहते हो उन को खाना मिल जाए तो मुझे मत भड़काओ…”

नरेन प्लेट में छुरी व सेब, संतरा रख उसे घूरता हुआ चला गया.

“अपनी चाय तो लेते जाओ…” रवीना पीछे से आवाज देती रह गई. उस ने बेटे के हाथ चाय ऊपर भेज दी और रात के खाने की तैयारी में जुट गई. थोड़ी देर में नरेन नीचे उतरा.

“रवीना खाना लगा दो… स्वामीजी का भी… और तुम व बच्चे भी खा लो…” वह
प्रसन्नचित्त मुद्रा में बोला, “खाने के बाद स्वामीजी के मधुर वचन सुनने को मिलेंगे… तुम ने कभी उन के प्रवचन नहीं सुने हैं न… इसलिए तुम्हें श्रद्धा नहीं है… आज सुनो और देखो… तुम खुद समझ जाओगी कि स्वामीजी कितने ज्ञानी, ध्यानी व पहुंचे हुए हैं…”

“हां, पहुंचे हुए तो लगते हैं…” रवीना होंठों ही होंठों में बुदबुदाई. उस ने थालियों में खाना लगाया. नरेन दोनों का खाना ऊपर ले गया. इतनी देर में रवीना ने बच्चों को फटाफट खाना खिला कर सुला दिया और उन के कमरे की लाइट भी बंद कर दी.

स्वामीजी का खाना खत्म हुआ, तो नरेन उन की छलकती थाली नीचे ले आया. रवीना ने अपना व
नरेन का खाना भी लगा दिया. खाना खा कर नरेन स्वामीजी को देखने ऊपर चला गया. इतनी देर में रवीना किचन को जल्दीजल्दी समेट कर चादर मुंह तक तान कर सो गई. थोड़ी देर में नरेन उसे बुलाने आ गया.

“रवीना, चलो तुम्हें व बच्चों को स्वामीजी बुला रहे हैं…” पहले तो रवीना ने सुनाअनसुना कर दिया. लेकिन जब नरेन ने झिंझोड़ कर जगाया तो वह उठ बैठी.

“नरेन, बच्चों को तो छेड़ना भी मत… बच्चों ने सुबह स्कूल जाना है… और मेरे सिर में दर्द हो रहा है… स्वामीजी के प्रवचन सुनने में मेरी वैसे भी कोई रुचि नहीं है… तुम्हें है, तुम्हीं सुन लो..” वह पलट कर चादर तान कर फिर सो गई.

नरेन गुस्से में दांत पीसता हुआ चला गया. स्वामीजी को रहते हुए एक हफ्ता हो
गया था. रवीना को एकएक दिन बिताना भारी पड़ रहा था. वह समझ नहीं पा रही थी, कैसे मोह भंग करे नरेन का.

रवीना का दिल करता,
कहे कि स्वामीजी अगर इतने महान हैं तो जाएं किसी गरीब के घर… जमीन पर सोएं, साधारण खाना खाएं, गरीबों की मदद करें, यहां क्या कर रहे हैं… उन्हें गाड़ियां, आलिशान घर, सुखसाधन संपन्न भक्त की भक्ति ही क्यों प्रभावित करती है… स्वामीजी हैं तो
सांसारिक मोहमाया का त्याग क्यों नहीं कर देते. लेकिन मन मसोस कर रह जाती.

दूसरे दिन वह घर के काम से निबट, नहाधो कर निकली ही थी कि उस की 18 साला भतीजी पावनी का फोन आया कि उस की 2-3 दिन की छुट्टी है और वह उस के पास रहने
आ रही है. एक घंटे बाद पावनी पहुंच गई. वह तो दोनों बच्चों के साथ मिल कर घर का कोनाकोना हिला देती थी.

चचंल हिरनी जैसी बेहद खूबसूरत पावनी बरसाती नदी जैसी हर वक्त उफनतीबहती रहती थी. आज भी उस के आने से घर में एकदम शोरशराबे का
बवंडर उठ गया, “अरे, जरा धीरे पावनी,” रवीना उस के होंठों पर हाथ रखती हुई बोली.

“पर, क्यों बुआ… कर्फ्यू लगा है क्या…?”

“हां दी… स्वामीजी आए हैं…” रवीना के बेटे शमिक ने अपनी तरफ से बहुत धीरे से जानकारी दी, पर शायद पड़ोसियों ने भी सुन ली हो.
“अरे वाह, स्वामीजी…” पावनी खुशी से चीखी, “कहां है…बुआ, मैं ने कभी सचमुच के स्वामीजी नहीं देखे… टीवी पर ही देखे हैं,” सुन कर रवीना की हंसी छूट गई.

“मैं देख कर आती हूं… ऊपर हैं न? ” रवीना जब तक कुछ कहती, तब तक चीखतेचिल्लाते तीनों बच्चे ऊपर भाग गए.

रवीना सिर पकड़ कर बैठ गई. ‘अब हो गई स्वामीजी के स्वामित्व की छुट्टी…‘ पर
तीनों बच्चे जिस तेजी से गए, उसी तेजी से दनदनाते हुए वापस आ गए.

“बुआ, वहां तो आम से 2 नंगधड़ंग आदमी, भगवा तहमद लपेटे बिस्तर पर लेटे
हैं… उन में स्वामीजी जैसा तो कुछ भी नहीं लग रहा…”

“आम आदमी के दाढ़ी नहीं होती दी… उन की दाढ़ी है..” शमिक ने अपना ज्ञान बघारा.

“हां, दाढ़ी तो थी…” पावनी कुछ सोचती हुई बोली, “स्वामीजी क्या ऐसे ही होते हैं…”

पावनी ने बात अधूरी छोड़ दी. रवीना समझ गई, “तुझे कहा किस ने था इस तरह ऊपर जाने को… आखिर पुरुष तो पुरुष ही होता है न… और स्वामी लोग भी पुरुष ही होते हैं..”

“तो फिर वे स्वामी क्यों कहलाते हैं?”

इस बात पर रवीना चुप हो गई. तभी उस की नजर ऊपर उठी. स्वामीजी का चेला ऊपर खड़ा नीचे उन्हीं लोगों को घूर रहा था, कपड़े पहन कर..

“चल पावनी, अंदर चल कर बात करते हैं…” रवीना को समझ नहीं आ रहा था क्या
करे. घर में बच्चे, जवान लड़की, तथाकथित स्वामी लोग… उन की नजरें, भाव भंगिमाएं, जो एक स्त्री की तीसरी आंख ही समझ सकती है. पर नरेन को नहीं समझा सकती.

ऐसा कुछ कहते ही नरेन तो घर की छत उखाड़ कर रख देगा. स्वामीजी का चेला अब हर बात के लिए नीचे मंडराने लगा था.

रवीना को अब बहुत उकताहट हो रही थी. उस से अब यहां स्वामीजी का रहना किसी भी तरह से बरदाश्त नहीं हो पा रहा था.

दूसरे दिन वह रात को किचन में खाना बना रही थी. नरेन औफिस से आ कर वाशरूम में फ्रेश होने चला गया था. इसी बीच रवीना बाहर लौबी में आई, तो उस की नजर डाइनिंग टेबल पर रखे चेक पर पड़ी.
उस ने चेक उठा कर देखा. स्वामीजी के आश्रम के नाम 10,000 रुपए का चेक था.

यह देख रवीना के तनबदन में आग लग गई. घर के खर्चों व बच्चों के लिए नरेन हमेशा कजूंसी करता रहता है. लेकिन स्वामीजी को देने के लिए 10,000 रुपए निकल गए… ऊपर से इतने दिन से जो खर्चा हो रहा है वो अलग. तभी नरेन बाहर आ गया.

“यह क्या है नरेन…?”

“क्या है मतलब…?”

“यह चेक…?”

“कौन सा चेक..?”

बींझा- भाग 2 : सोरठ का अमर प्रेम

होनहार जैसी बात हुई. बंजारों का मुखिया राव रूढ़ सांचौर से गिरनार जाते समय रास्ते में चंपा कुम्हार के गांव रुका. लखपति बंजारा खूब धनवान था. हजारों बैलों पर उस का माल लदा हुआ था. करोड़ों का व्यापार था उस का. चंपा ने सोचा, ‘राव रूढ़ से सोरठ की शादी की बात की जाए तो ठीक रहेगा. यह बहुत ज्यादा धनवान होने के साथ जाति में बराबर पड़ता है. फिर मेरा धन सोरठ उस के धन से कोई कम थोड़े ही है.’

रूढ़ की हो गई सोरठ चंपा ने राव रूढ़ से बात की. रूढ़ ने सोरठ को देखा. सोरठ को एक बार देखने के बाद कौन मना कर सकता था. राव रूढ़ के साथ सोरठ की शादी हो गई. उस ने एक लकड़ी का जालीदार महल बनवाया, जालियों में रेशम और मखमल के परदे लगवाए. महल के नीचे 4 बड़ेबड़े पहिए थे और महल को खींचने के लिए 6 नागौरी बैल जोड़े.

सोरठ को उस महल में बैठाया. राव रूढ़ जहां भी जाए, सोरठ का महल भी उस के साथ चले. बींझा को सोरठ की शादी की खबर मिली. पहले तो दुख हुआ. फिर खुद ही सोचा कि बंजारे तो जगहजगह घूमते ही रहते हैं, कभी न कभी राव रूढ़ गिरनार तो आएगा ही.आधी रात का समय, जुगनू एक डाल से दूसरी डाल पर जा रहे थे तो ऐसा लग रहा था जैसे छोटेछोटे तारे आकाश में

टिमटिमा रहे हों. रिमझिमरिमझिम करती हलकी फुहारें पड़ रही थीं. बींझा अपने महल के सब से ऊंचे मालिए पर बैठा सोरठ के बारे में सोच रहा था. पहाड़ से आती बैलों के गले में बंधी घंटियों की आवाज उसे सुनाई पड़ी. वह चौंका. कहीं राव

रूढ़ की वालद तो नहीं आ रही है? थोड़ी देर बाद उसे मशालें जलती नजर आईं. सवार को दौड़ाया, ‘‘देख कर आ, गिरनार पहाड़ पर क्या हलचल हो रही है?’’ सवार कुछ देर में खबर ले कर वापस आया, ‘‘किसी बंजारे की वालद है. हजारों बैल हैं, लकड़ी के महल में उस की स्त्री भी साथ है.’’

बींझा समझ गया, राव रूढ़ की वालद है. बींझा ने जा कर राव खंगार को जगाया, ‘‘राव रूढ़ आ रहा है.’’ राव खंगार ने आधी रात नगर कोतवाल को बुला कर हुक्म दिया, ‘‘वालद को अच्छे स्थान पर ठहराना, डेरे तंबू का इंतजाम कर देना. किसी चीज की उन्हें तकलीफ न हो.’’ उधर जगह साफ हो रही थी, डेरे तंबू लग रहे थे और खानेपीने का इंतजाम होने लगा तो इधर बींझा की आंखों की नींद उड़

गई. वह यही सोच रहा था कि कब दिन निकले, कब मैं राव रूढ़ के डेरे पहुंचूं. पौ फटी, सोरठ की नींद उड़ी. मखमल का परदा हटा उस ने जाली से बाहर झांका. उसी वक्त बींझा भी बंजारे के डेरे जा पहुंचा. बींझा और सोरठ की नजर मिली, पुरानी मुलाकात याद आई. दोनों एकदूसरे को देखते ही रहे. उन्होंने एकदूसरे के दिल की बात आंखों में पढ़ ली.

राव खंगार ने राव रूढ़ को महल में बुलाया. उस का आदरसत्कार किया, मानमनुहार की. उस से सामान खरीदा. उस ने उस के सामान की मुंहमांगी कीमत दी. 10-15 दिन एकदूसरे की आंखों की मूक भाषा आंखों में पढ़ ली. राव खंगार से राव रूढ़ ने जाने की इजाजत मांगी तो राव खंगार ने उसे 2-4 दिन और रुकने के लिए कहा. बींझा का बंजारे के डेरे पर रोज ही आनाजाना रहता. वहां बींझा और सोरठ की नजरें मिलतीं, उन का दिन सफल हो जाता,

एकदूसरे को देख धन्य हो जाते. बींझा ने राव खंगार से कहा, ‘‘बंजारा तो अब जाने की जल्दी कर रहा है. अगर सोरठ को यहीं रखना है तो राव रूढ़ को चौपड़ खेलने बुलाओ.’’राव रूढ़ चौपड़ खेलने आया. गलीचे पर चौपड़ बिछाई गई. चांदी के कटोरे में अफीम घोली गई. हाथी दांत का पासा फेंका जाने लगा. बींझा चौपड़ का नामी खिलाड़ी था. देखते ही देखते उस ने राव रूढ़ की आधी वालद जीत ली. राव रूढ़ ने देखा कि ऐसे तो अपनी सारी संपत्ति बींझा जीत लेगा, लेकिन खेलने के बीच उठना भी शर्म की बात थी.

उस ने सोचा कि इस दांव में सोरठ को लगा देना चाहिए. हार गया तो क्या हुआ, औरत ही खोऊंगा, धन रहा तो सोरठ जैसी एक नहीं, 10 और औरतें मेरे कदमों में आ खड़ी रहेंगी. राव रूढ़ ने सोरठ को दांव पर लगा दिया. पासा फेंका जाने लगा, राव रूढ़ सोरठ को चौपड़ के दांव में हार गया. बींझा ने जीती हुई आधी वालद राव खंगार के महलों में पहुंचा दी और लकड़ी के महल में सोरठ को बैठा अपने डेरे ले चला.

राव खंगार ने लकड़ी का महल बींझा के डेरे की ओर जाते देखा तो हुक्म दिया, ‘‘लकड़ी का महल और सोरठ को मेरे महल में ले कर आओ.’’ मन मार कर बैठ गया बींझा

राव खंगार गढ़ गिरनार का स्वामी था. उस का हुक्म भला कौन टाल सकता था. सिपाहियों ने जा कर आधे रास्ते लकड़ी का चलताफिरता महल रोका, बैलों के मुंह खंगार के महलों की तरफ कर दिए. बींझा जहां था, वहीं का वहीं खड़ा रह गया. सोरठ का मुंह उतर गया. सोरठ राव खंगार के जनाने महल में पहुंचा दी गई.

खंगार ने रूढ़ से जीता सारा धन बींझा के डेरे पहुंचाया. बींझा उस धन को ले कर राव खंगार के पास गया, ‘‘मुझे धन नहीं चाहिए, उसे आप रखो. मुझे तो केवल सोरठ चाहिए.’’

“सोरठ तो मेरे जनाने में पहुंच चुकी है, उसे और किसी को देना मेरे स्वाभिमान के खिलाफ है.’’

बींझा मन मार कर बैठ गया. सिर धुने, सोरठ के विरह में तड़पे. उस की याद में दोहे रचे— ऊंचो गढ़ गिरनार आबू ये छाया पड़े. सोरठ रो सिणगार, बादल सू बात करे. दोहे का भावार्थ ऊंचे गिरनार के ऊंचे गढ़ पर जब सोरठ शृंगार करती है तो पवन के साथ उड़ते बादल भी दो पल उस का रूप देखने रुक जाते हैं. ‘सोरठ रंग री सांवली, सुपारी रे रंग. लूगा जड़ी चरपरी, उड़उड़ लागै अंग.’ (सुपारी के रंग जैसी सांवली

सोरठ की देह की सुगंध से तर हो रही पवन जब गढ़ गिरनार से निकलती है तो सारा गिरनार पहाड़ सुरभित हो जाता है.) ‘सोरठ गढ़ सू उतरी, झट्ïटर रे झणकार. धूज्य गढ़ रा कांगरा, गाज्यो गढ़ गिरनार.’ (सोरठ झांझर पहने जब चलती तो उस के घुंघरुओं की झंकार से गिरनार गढ़ के पहाड़ गूंज उठते हैं. महलों की दीवारें गूंजने लगती हैं.) उधर राव खंगार सोरठ को सिरआंखों पर बैठा कर रखता. सोरठ की हर इच्छा उस के लिए आज्ञा से कम नहीं थी. मुंह से निकलते ही उस के हुक्म की तामील होती, लेकिन वह बींझा की छवि अपने दिल से नहीं निकाल सकी. उस की याद नहीं भुला सकी.

डायन – भाग 2 : बांझ मनसुखिया पर बरपा कहर

अगले स्टेशन पर भीख मांगने वाली एक अधेड़ औरत ट्रेन में चढ़ी, जिस ने मनसुखिया के बगल में बैठ कर अपनी गठरी और कटोरा रख दिया. 2 मिनट के बाद वह वहीं लेट कर खर्राटे भरने लगी.

रेलगाड़ी की रफ्तार से कहीं ज्यादा मनसुखिया का मन दौड़ रहा था. इस मतलबी दुनिया में उसे कहां ठौरठिकाना मिलेगा? जब रेलगाड़ी अपने आखिरी स्टेशन पर खाली हो जाएगी, तब वह क्या करेगी? वह इसी उधेड़बुन में थी कि उस की नजर उस बुढि़या के कटोरे पर जा कर ठहर गई. क्या वह जहांतहां भीख मांगती फिरेगी? नहींनहीं, उस से यह घिनौना काम नहीं होगा. वह पगली ही ठीक है.

‘‘अरे पगली, आजकल तुम संगम विहार स्लम बस्ती में नहीं दिखती हो. अपना ठिकाना बदल लिया है क्या?’’ मनसुखिया के पास लेटी भिखारिन ने उबासी लेते हुए पूछा.

मनसुखिया को समझ नहीं आया कि वह क्या जवाब दे. उस ने चुप रहना ही बेहतर समझा. तब तक वह भिखारिन उठ कर बैठ गई.

उस भिखारिन ने पगली बनी मनसुखिया को गौर से देखा और फिर उसे टोका, ‘‘अरे, मैं भी कितनी पागल हूं. ऐसे लोगों का कौन सा ठिकाना… आज यहां पर, तो कल दूसरी जगह पर. लगता है, तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है. कोई हादसा हुआ है क्या? तेरा चेहरा सूजा हुआ है, हाथपैर में लगे चोट के निशान काले पड़ गए हैं. पर तू घबरा मत, अपनी बस्ती में ड्रैसर रेशमा दीदी हैं न, वे तेरी मरहमपट्टी कर देंगी,’’ उस भिखारिन ने प्यार से मनसुखिया का हाथ अपने हाथ में ले कर सहलाया.

‘‘अरे, तुझे तो तेज बुखार भी है. ले, अपना स्टेशन आ गया. गाड़ी को रुकने दे. हांहां, संभलसंभल कर नीचे उतरना,’’ भिखारिन ने हमदर्दी जताई.

वे दोनों दक्षिण दिल्ली की संगम विहार स्लम बस्ती पहुंची, जहां झुग्गीझोंपड़ी, लुंजपुंज स्ट्रीट लाइटें, टूटीफूटी सड़कें, बजबजाती नालियां, बेकार पड़े हैंडपंप, कीचड़ भरी गलियां आनेजाने वालों को मुंह चिढ़ा रही थीं.

एक झोंपड़ी के आगे वह भिखारिन खड़ी हो गई और बोली, ‘‘यही मेरा आशियाना है. पहले अपना सामान रखती हूं, फिर रेशमा दीदी के पास चलते हैं. अंदर आओ बहन, लो बिसकुट खा कर पानी पी लो,’’ झोंपड़ी के अंदर से उस भिखारिन ने बाहर खड़ी मनसुखिया को आवाज लगाई.

झोंपड़ी में जा कर मनसुखिया ने दो घूंट पानी पीया. इस से उस के सूखे गले को थोड़ी सी तरावट मिली. उस के बाद उस ने 2-4 बिसकुट अपने गले के नीचे उतारे. फिर वह भिखारिन के साथ ड्रैसर रेशमा के घर गई. मालूम हुआ कि वे अस्पताल से नहीं लौटी हैं, तो वे दोनों अस्पताल चली गईं.

अस्पताल में रेशमा एक मरीज की मरहमपट्टी कर के वार्ड से निकल रही थी. इसी दौरान उस की नजर भिखारिन पर पड़ी, तब उस ने खुशी जताते हुए कहा, ‘‘अरी फूलो, इधर आ. यह पगली फिर बीमार हो गई है क्या? इसे अस्पताल में भरती कराने आई है क्या? एक तुम्हीं हो, जो ऐसे लोगों का खयाल रखती हो, नहीं तो किसे फुरसत है.’’

‘‘हां रेशमा दीदी, यह बहुत ज्यादा बीमार है.’’

उस भिखारिन का नाम फूलमती था, जिसे रेशमा प्यार से फूलो कहती थी. पगली बनी मनसुखिया को ले कर वे दोनों डाक्टर शिव मांझी के पास गईं.

चैकअप के बाद डाक्टर शिव मांझी ने कहा, ‘‘लगता है, इस पगली ने काफी दिनों से कुछ खाया नहीं है. इस का बीपी बिलकुल लो है. इस का शरीर भी चोटिल है, इसलिए इलाज के लिए इसे भरती कराना जरूरी है.’’

‘‘जी सर, इस की कागजी खानापूरी कर के भरती करा देते हैं.’’

‘‘हांहां, देर न करो… सब ठीक रहेगा… और कोई सेवा हो तो बोलना.’’

‘‘जी सर, आप को जरूर याद करूंगी.’’

‘‘फूलो, रजिस्टर में पगली का नाम और पता लिखवाओ,’’ अस्पताल की क्लर्क मोना ने कहा.

‘‘अरे, इस का नाम सोना है. पता संगम विहार स्लम बस्ती लिख दो,’’ फूलो ने हंसते हुए कहा.

‘‘इसे वार्ड 5 के 3 नंबर बैड पर लिटा दो,’’ मोना ने फूलो से कहा.

डाक्टर शिव मांझी, रेशमा और फूलो की कोशिश से मनसुखिया उर्फ सोना एक हफ्ते के अंदर ठीक हो गई थी, लेकिन अस्पताल से अभी रिलीज नहीं हुई थी.

एक दिन फूलो रेशमा के साथ डाक्टर शिव मांझी के कमरे में गई और सोना को रिलीज करने की इच्छा जाहिर की. तभी रेशमा ने डाक्टर शिव मांझी से पूछा, ‘‘सर, देखने से सोना नहीं लगती कि वह पागल है. वह ठीक हो गई है क्या?’’

‘‘हां, वह पागल नहीं है, बल्कि वह तो पारिवारिक और सामाजिक हिंसा का शिकार है,’’ डाक्टर शिव मांझी ने गंभीर होते हुए कहा, ‘‘पाखंडियों ने इस पर डायन का आरोप लगा कर इसे काफी सताया है.’’

‘‘आप को यह कैसे मालूम हुआ सर?’’ रेशमा ने पूछा.

ने पूछा.

एक नदी पथभ्रष्टा- भाग 2 : अनजान डगर पर मानसी

मानसी का चेहरा लाज से लाल पड़ जाता. वह चिढ़ कर उसे चपत जमाती हुई घर भाग जाती. अचानक ही शुभा का विवाह तय हो गया और रंजीत के साथ ब्याह कर शुभा दिल्ली चली आई. कुछ दिनों तक तो दोनों तरफ से पत्रों का आदानप्रदान बड़े जोरशोर से होता रहा, लेकिन कुछ तो घर जमाने और कुछ रंजीत के प्रेम में खोई रहने के कारण शुभा भी अब पहले जैसी तत्परता से पत्र नहीं लिख पाती थी, फिर भी यदाकदा अपने पत्रों में शुभा मानसी को मोहित से विवाह कर के घर बसाने की सलाह अवश्य दे देती थी.

अचानक ही मानसी के पत्रों में से मोहित का नाम गायब होने से शुभा चौंकी तो थी, किंतु मोहित और मानसी के संबंधों में किसी तरह की टूटन या दरार की बात वह तब सोच भी नहीं सकती थी.

‘‘क्या सोच रही हो मैडम, कहीं अपनी सखी के सुख से तुम्हें ईर्ष्या तो नहीं हो रही. अरे भाई, और किसी का न सही, कम से कम हमारा खयाल कर के ही तुम मानसी जैसी महान जीवन जीने वाली का विचार त्याग दो,’’ रंजीत की आवाज से शुभा का ध्यान भंग हो गया. उसे रंजीत का मजाक अच्छा नहीं लगा. रूखे स्वर में बोली, ‘‘मुझ से इस तरह का मजाक मत किया करो तुम. अब अगर मानसी ऐसी हो गई है तो उस में मेरा क्या दोष? पहले तो वह ऐसी नहीं थी.’’

शुभा के झुंझलाने से रंजीत समझ गया कि शुभा को सचमुच उस की बात बहुत बुरी लगी थी. उस ने शुभा का हाथ पकड़ कर अपनी तरफ खींचते हुए कहा. ‘‘अच्छा बाबा, गलती हो गई. अब इस तरह की बात नहीं करूंगा. आओ, थोड़ी देर मेरे पास तो बैठो.’’

शुभा चुपचाप रंजीत के पास बैठी

रही, पर उस का दिमाग मानसी

के ही खयालों में उलझा रहा. वह सचमुच नहीं समझ पा रही थी कि मानसी इस राह पर इतना आगे कैसे और क्यों निकल गई. रोजरोज किसी नए पुरुष के साथ घूमनाफिरना, उस के साथ एक ही फ्लैट में रात काटना…छि:, विश्वास नहीं होता कि यह वही मानसी है, जो मोहित का नाम सुनते ही लाज से लाल पड़ जाती थी.

पहली बार मोहित के साथ उस के प्रेमसंबंधों की बात स्वयं मानसी के मुंह से सुन कर भी शुभा को विश्वास नहीं हुआ था. भला उस के सामने क्या कहसुन पाती होगी वह छुईमुई. चकित सी शुभा उसे ताकती ही रह गई थी. किंतु जो बीत गया, वह भी एक सच था और जो आज हो रहा है, वह भी एक सच ही तो है.

उसे अपने ही खयालों में खोया देख कर रंजीत कुछ खीझ सा उठा, ‘‘ओफ, अब क्या सोचे जा रही हो तुम?’’

शुभा ने खोईखोई आंखों से रंजीत की ओर देखा, फिर जैसे अपनेआप से ही बोली, ‘‘काश, एक बार मानसी मुझे अकेले मिल जाती तो…’’

‘‘तो? तो क्या करोगी तुम?’’ रंजीत उस की बात बीच में काट कर तीखे स्वर में बोला.

‘‘मैं उस से पूछूंगी कल की मानसी से आज की इस मानसी के जन्म की गाथा और मुझे पूरा विश्वास है मानसी मुझ से कुछ भी नहीं छिपाएगी.’’

‘‘शुभा, मेरी मानो तो तुम इस पचड़े में मत पड़ो. सब की अपनीअपनी जिंदगी होती है. जीने का अपना ढंग होता है. अब अगर उस को यही तरीका पसंद है तो इस में मैं या तुम कर ही क्या सकते हो?’’ रंजीत ने उसे समझाने का प्रयास किया.

‘‘नहीं रंजीत, मैं उस मानसी को जानती हूं, उस के मन में, बस, एक ही पुरुष बसता था. उस पुरुष को अपना सबकुछ अर्पित कर उस में खो जाने की कामना थी उस की. यह मानसी एक ही पुरुष से बंध कर गौरव और गरिमामय जीवन जीना चाहती थी. किसी की पत्नी, किसी की मां होने की उस के मन में लालसा थी. मैं तो क्या, खुद मानसी ने भी अपने इस रूप की कल्पना नहीं की होगी, फिर किस मजबूरी से वह पतन की इस चिकनी राह पर फिसलती जा रही है?’’

शुभा को अपने प्रश्नों के उत्तर तलाशने में बहुत इंतजार नहीं करना पड़ा. एक दिन दोपहर के समय मानसी उस के दरवाजे पर आ खड़ी हुई. शुभा ने उसे बिठाया और कोल्डडिं्रक देने के बाद जैसे ही अपना प्रश्न दोहराया, मानसी का खिलखिलाता चेहरा सहसा कठोर हो गया. फिर होंठों पर जबरन बनावटी मुसकान बिखेरती हुई मानसी बोली, ‘‘छोड़ शुभी, मेरी कहानी में ऐसा कुछ भी नहीं है, जो किसी का मन बहला सके. हां, डरती जरूर हूं कि कहीं तेरे मन में भी वही टीस न जाग उठे, जिसे दबाए मैं यहीं आ पहुंची हूं.’’

‘‘लेकिन क्यों? क्यों है तेरे मन में टीस? जिस आदर्श पुरुष की तुझे कामना थी, वह तो तुझे मिल भी गया था. वह तुझ से प्रेम भी करता था, फिर तुम ने उसे क्यों खो दिया पगली?’’

‘‘तुझे याद है, शुभी, बचपन में जब दादी हम लोगों को कहानियां सुनाती थीं तो अकसर पोंगापंडित की कहानी जरूर सुनाती थीं, जिस ने वरदान के महत्त्व को न समझ कर उसे व्यर्थ ही खो दिया था. और तुझे यह भी याद होगा कि दादी ने कहानी के अंत में कहा था, ‘दान सदा सुपात्र को ही देना चाहिए, अन्यथा देने वाले और पाने वाले किसी का कल्याण नहीं होता.’

‘‘हां, याद है. पर यहां उस कहानी का क्या मतलब?’’ शुभा बोली.

‘‘मोहित वह सुपात्र नहीं था, शुभी, जो मेरे प्रेम को सहेज पाता.’’

‘‘लेकिन उस में कमी क्या थी, मानू? एक पूर्ण पुरुष में जो गुण होने चाहिए, वह सबकुछ तो उस में थे. फिर उसे तू ने पूरे मन से अपनाया था.’’

‘‘हां, देखने में वह एक संपूर्ण पुरुष ही था, तभी तो उस के प्रति तनमन से मैं समर्पित हो गई थी. पर वह तो मन से, विचारों से गंवार व जाहिल था,’’ क्षोभ एवं घृणा से मानसी का गला रुंध गया.

‘‘लेकिन इतना आगे बढ़ने से पहले कम से कम तू ने उसे परख तो लिया होता,’’ शुभा ने उसे झिड़की दी.

‘‘क्या परखती? और कैसे परखती?’’ आंसुओं को पीने का प्रयास करती मानसी हारे स्वर में बोली, ‘‘मैं तो यही जानती थी कि कैसा ही कुपात्र क्यों न हो, प्रेम का दान पा कर सुपात्र बन जाता है. मेरा यही मानना था कि प्रेम का पारस स्पर्श लोहे को भी सोना बना देता है,’’ आंखों से टपटप गिरते आंसुओं की अनवरत धार से मानसी का पूरा चेहरा भीग गया था.

पलभर को रुक कर मानसी जैसे कुछ याद करने लगी.

संस्कारी बहू – भाग 2 : रघुवीर गुरुजी और पूर्णिमा की अय्याशी

उन के कमरे में सोने और चांदी के गहनों और बरतनों की भरमार थी. चढ़ावे के नोट गिनने की मशीन, सोने को तौलने और गलाने की मशीन लगी हुई थी. रेशम के कालीन और सोने की नक्काशी के परदे टंगे हुए थे. चांदी के रत्नजडि़त अनेक पात्रों में शराब भरी रहती थी.

गुरुजी की गाडि़यों का काफिला, पर्सनल जिम, खेल के सामान, स्विमिंग पूल और दूसरे तमाम ऐशोआराम का इंतजाम पूर्णिमा के हाथों में आने लगा था. उस

की योजना तो अपनी ससुराल वालों को सबक सिखाने की थी, लेकिन यहां तो भोग की अलग ही दुनिया उस का इंतजार कर रही थी.

आश्रम के गर्भगृह में गुरुजी को खुश रखने के लिए भाड़े की कालगर्ल लड़कियों को बुलाया जाता था. पर पूर्णिमा से मिलने के बाद वे पूरी तरह उस पर लट्टू हो चुके थे. उन्होंने पूर्णिमा को आश्रम के गर्भगृह की मल्लिका बना दिया था. आश्रम के सभी सेवकों को उस की आज्ञा के पालन के लिए खड़ा कर दिया था.

एक खास तरह के गुरुजी पर्व के आयोजन की तैयारियां जोरशोर से चल रही थीं. आयोजन का सारा इंतजाम गुरुजी के जिन सेवादारों द्वारा किया जा रहा था. वे सभी रघुवीर गुरुजी की तरह ही गोरे, चिकने, लंबी कदकाठी के अमीर और ताकतवर मर्द थे. ऐसे लोग सेवादार बनने के लिए गुरुजी को चढ़ावा चढ़ाते थे.

देवदासियों के नाम पर शहर से कालगर्ल्स को लाया जाता था, जो चुने गए भक्तों को खुश करती थीं, जिन में अफसर और सेठ होते थे. पढ़ीलिखी पूर्णिमा को तुरंत समझ आ गया था कि प्रसाद और अगरबत्तियों के बहाने भांग, गांजे और शराब का नशा कराने के लिए यह आयोजन एक तरह की ‘रेव पार्टी’ थी, जिसे पुलिस से बचने के लिए धार्मिक आयोजन का नाम दे दिया गया था.

पूर्णिमा ने रघुवीर गुरुजी को इस गुरुजी पर्व में अपनी 4 साथियों को साथ रखने के लिए चुटकियों में मना लिया. घर वाले तो इस बात से फूले नहीं समा रहे थे कि उन की पूर्णिमा को मुख्य शिष्या बनाया गया है.

पूर्णिमा के पति को तो इस मामले में उसे रोकने की हिम्मत ही नहीं थी. वह जब भी पूर्णिमा के पास रात को आता, तो वह उसे कपड़ों के बिना धकेल देती थी. उसे कितनी ही रातें बिस्तर के नीचे नंगधड़ंग गुजारनी पड़ी थीं.

गुरुजी पर्व आयोजन के दौरान आश्रम के गर्भगृह में रघुवीर गुरुजी अपने प्रमुख शिष्य और शिष्याओं के साथ पूरी तरह अज्ञातवास में थे. गर्भगृह में सभी दूसरी भक्तनों को केवल एक साड़ी में दाखिल होने की इजाजत थी.

गुरुजी पर्व के दौरान गर्भगृह में देवताओं के राजा इंद्र की सभा की तरह नृत्य, गायन, मद्यपान, सुरा और संभोग का नाटक किया जाता था. पूर्णिमा की साथी, जो वैसे सैक्स वर्कर थीं, गुरुजी के शिष्यों का भरपूर मनोरंजन करती थीं.

अब तक अपने पति के साथ पूर्णिमा की ठीक से सुहागरात भी नहीं हुई थी, जबकि गुरुजी के साथ वह हर रोज 2-4 बार हमबिस्तर होती थी. पूर्णिमा के दूध के समान सफेद और संगमरमर जैसे चिकने बदन को रेशम और सोने के गहनों से ढक दिया गया था. अब वह अपनी ससुराल लौटना ही नहीं चाहती थी. गुरुजी ने उसे अपना उत्तराधिकारी बना कर देवी का दर्जा दे दिया था.

आम जनता के बीच, धार्मिक प्रतीकों और कपड़ों के साथ माला जपते हुए पिता और पुत्री का रिश्ता निभाने वाले रघुवीर गुरुजी और पूर्णिमा भोगविलास के आदी हो चुके थे.

पर जल्द ही उन के बारे लोग कानाफूसी करने लगे थे. गुरु और शिष्या के संबंधों से परेशान पूर्णिमा की ससुराल वाले बाधा पैदा करने लगे थे.

इस बात से गुस्साए गुरुजी ने पूर्णिमा के पति को आश्रम में बंधक बना लिया और पूर्णिमा ने अपने पति के सामने ही गुरुजी के साथ संबंध बनाते हुए अपने पति के सीने में मौत का खंजर उतार दिया. अपने ससुर और सास को आश्रम के तहखाने में भोजन और पानी के लिए तरसाते हुए मार डाला. ससुराल की जायदाद उन की विधवा ‘संस्कारी बहू’ पूर्णिमा के नाम हो गई.

इस के बाद पूर्णिमा ने अपनी ससुराल की पहचान को मिटाते हुए धार्मिक आवरण ओड़ लिया, अपने केश त्याग दिए. पूर्णिमा का आश्रम की गद्दी पर अभिषेक हो गया.

पूर्णिमा अब पूर्णिमा देवी हो गई थी, जिस के मठाधीश बनने के बाद हर महीने पूर्णमासी की रात को आयोजित होने वाले गुरुजी पर्व कार्यक्रम में अलग ही जोश आ गया था. कार्यक्रम को रोचक बनाने के लिए पूर्णिमा देवी ने आसपास के इलाके की कुंआरी लड़कियों और शादीशुदा औरतों को फंसा कर गुरुदीक्षा देना शुरू कर दिया. उस का साथ वे

4 भक्तनें देती थीं. पूर्णिमा का डर उन पहलवान सेवादारों से था, जो गुरुजी से ज्यादा प्यार करते थे. उन सभी के गुरुजी से समलैंगिक संबंध थे.

पूर्णिमा ने बस्ती की और अंधविश्वासी लड़कियों को सबक सिखाने के लिए बहलाफुसला कर गुरुजी पर्व में शामिल होने के लिए सहमत कर लिया.

पूर्णिमा सेवा में हाजिर होने के लिए तैयार सेविकाओं के रूप में तैयार करने का काम बहुत ही दिलचस्पी से कर रही थी. शहर से लाई गई ब्यूटीशियन ने सभी सेविकाओं को 2 दिनों तक रोमरहित करने के बाद हलदी, बेसन और शहद के पानी से स्नान करा कर उन्हें आइसोलेट कर दिया. सेविकाओं की माहवारी रोकने के लिए उन्हें रोजाना दूध के साथ दवाएं दी जा रही थीं.

गुरुजी पर्व की रात को नृत्य और गायन के दौरान बहुत सी लड़कियों को प्रसाद के रूप में भांग पिला दी गई. आश्रम की इस हाईप्रोफाइल पार्टी में इस साल बड़ेबड़े अफसर, तिलकधारी सांसद और मंत्री, अमीर कारोबारी आए हुए थे.

बस्ती की भोलीभाली लड़कियों के आने के बाद नशे और जिस्म की इन पार्टियां में रहस्य और रोमांच और ज्यादा बढ़ गया था.

पूर्णिमा के निर्देश पर शिष्याओं ने आरती के बाद गर्भगृह में मेहमानों का मनोरंजन करना शुरू किया. खुद पूर्णिमा देवी ने जोश में आ कर अपने कपड़े उतार दिए. गुरुजी को अपने पैर, छातियों, जांघों से छूते हुए वह पूजन की ऐक्टिंग करने लगी. गुरुजी और उन के सेवादारों के कपड़े भी धीरेधीरे उतार दिए गए.

रघुवीर ने अपनी पूर्णिमा को चूमने की कोशिश की, लेकिन नशे में चूर पूर्णिमा देवी ने गुरुजी को पहचानने के बजाय उन के सब से खास एक मेहमान के साथ संबंध बनाना शुरू कर दिया और फिर देखते ही देखते नशे में चूर सभी मेहमान गिद्धों के की तरह, देवताओं के मुखौटे में, बस्ती की भोलीभाली अंधविश्वासी लड़कियों की इज्जत को लूटने के लिए टूट पड़े. रघुवीर गुरुजी अपनी इस बेइज्जती पर तिलमिला उठे. यह पूर्णिमा का पहला बदला था.

देवताओं का अभिनय करते हुए रघुवीर गुरुजी और सेवादारों ने दासियों के साथ कामलीला शुरू कर दी. नशे में चूर बस्ती की अनपढ़, भोलीभाली लड़कियों को लग रहा था कि गुरुजी की कृपा से स्वर्ग के देवता धरती पर उतर कर उन के साथ संबंध बना रहे हैं.

लेकिन रघुवीर गुरुजी को नहीं मालूम था कि पूर्णिमा ने उसी समय हाईकोर्ट में एक एप्लीकेशन डलवा रखी थी, जिस में लोकल जजों पर निर्भर रहने की वजह बताते हुए एसपी के नेतृत्व में छापा मारने की रिक्वैस्ट की गई थी.

 

एक सांकल सौ दरवाजे- भाग 2: क्या हेमांगी को मिला पति का मान

मैं ममा की जिंदगी करीब से भोग रही थी. कहें तो भाई भी. शायद इसलिए उस में पिता की तरह न होने का संकल्प मजबूत हो रहा था.

लेकिन ममा? क्या मैं जानती नहीं रातें उस की कितनी भयावह होती होंगी जब वह अकेली अपनी यातनाओं को पलकों पर उठाए रात का लंबा सफ़र अकेली तय करती होगी.

इकोनौमिक्स में एमए कर के उस की शादी हुई थी. पति के रोबदाब और स्वेच्छाचारी स्वभाव के बावजूद जैसेतैसे उस ने डाक्ट्रेट की, नेट परीक्षा भी पास की जिस से कालेज में लैक्चरर हो सके. और तब. पलपल सब्र बोया है.

दुख मुझे इस बात का है कि इतना भी क्या सब्र बोना कि फसल जिल्लत की काटनी पड़े.

पापा चूंकि बेहद स्वार्थी किस्म के व्यक्ति हैं, ममा पर हमारी जिम्मेदारी पूरी की पूरी थी.

याद आती है सालों पुरानी बात. नानी बीमार थीं, ममा को हमें 2 दिनों के लिए पापा के पास छोड़ कर उन्हें मायके जाना पड़ा. तब भाई 6ठी और मैं 10वीं में थी. हमारी परीक्षाएं थीं, इसलिए हम ममा के साथ जा न पाए.

2 दिन हम भाईबहनों ने ठीक से खाना नहीं खाया. जैसेतैसे ब्रैडबिस्कुट से काम चलाते रहे. ममा को याद कर के हम एकएक मिनट गिना करते और पहाड़ सा समय गुजारते.

पापा होटल से अपनी पसंद का तीखी मसालेदार सब्जियां मंगाते जबकि हम दोनों मासूम बच्चों के होंठ और जीभ भरपेट खाना खाने की आस में जल कर भस्मीभूत हो जाते. आश्चर्य कि मेरे पापा हमारा बचा खाना भी खा लेते, लेकिन कभी पूछते भी नहीं कि हम ने फिर खाया क्या?

ममा हमारे लिए छिपा कर अलग खाना बनाती थी, ताकि पापा के लिए बना तीखा मसालेदार खाना हमें रोते हुए न खाना पड़े. शायद ममा जानती थी, बच्चों को अभी संतुष्ट हो कर भरपेट खाना खाना ज्यादा जरूरी है. और ऐसे भी ममा हमें खाना बनाना भी सिखाती चलती ताकि बाहर जा कर हमें दूसरों पर निर्भर न रहना पड़े.

मैं बड़ी हो रही थी, मुझ में सहीगलत की परख थी. ताज्जुब होता था पापा के विचारों पर. वे मौकेबेमौके खुल कर कहते थे कि अगर उन के घर में रहना है तो किसी और की पसंद का कुछ भी नहीं चलेगा, सिवा उन की पसंद के.

इंसान एक टुकड़ा जमीन के लिए आधा इंच आसमान को कब तक भुलाए रहे?

उसे जीने को जमीन चाहिए तो सांस लेने को आसमान भी चाहिए.

भले ही हम छोटे थे, ममा के होंठ कई सारी मजबूरियों की वजह से सिले थे. लेकिन हम अपनी पीठ पर लगातार आत्महनन का बोझ महसूस करते. क्या मालूम क्यों पापा को ममा के साथ प्रतियोगिता महसूस होती. ममा की शिक्षा, उन के विचार और भाव से पापा खुद को कमतर आंकते, फिर शुरू होती पापा की चिढ़ और ताने. जब भी वह नौकरी के लिए छटपटाती, पापा उसे दबाते. जब चुप बैठी रहती, उसे अपनी अफसरी दिखा कर कमतर साबित करते. यह जैसे कभी न ख़त्म होने वाला नासूर बन गया था.

भाई अब 10वीं देने वाला था और मैं स्नातक द्वितीय वर्ष की परीक्षा देने वाली थी. बहुत हुआ, और कितना सब्र करे. आखिर कहीं ममा की भी धार चूक न जाए.

आज जो कुछ हुआ वह एक लंबी उड़ान से पहले होना ही था. ममा को अब खुद की जमीन तलाश करनी ही होगी. तभी हमें भी अपना आसमान मिलेगा. मुझे अब ममा का इस तरह पैरोंतले रौंदा जाना कतई पसंद नहीं आ रहा था.

दूसरे दिन औफिस से आते वक्त पापा के साथ औफिस की एक कलीग थीं.

हम तो यथा संभव उस के साथ औपचारिक भद्रता निभाते रहे, लेकिन वे दोनों अपनी अतिअभद्रता के साथ ममा का मजाक बनाते रहे.

मेरे 48 वर्षीय पिता अचानक ही अब अपने सौंदर्य के प्रति अतियत्नवान हो गए थे. सफेद होती जा रही अपनी मूंछों को कभी रंगते, कभी सिर के बालों को. कुल मिला कर वयस्क होते जा रहे शरीर के साथ युद्ध लड़ रहे थे, ताकि ममा की जिंदगी में तूफान भर सकें.

मुझे और ममा को ले कर उन्हें एक असहनीय कुतूहल होता और हम अयाचित विपत्तियों के डर से बचने के लिए अपनी आंखें ही बंद कर लेते.

हम बच्चे ऐसे भी पापा से कतराने लगे थे, और पढ़ाई हो न हो, अपने कमरे में बंद ही रहते. रह जाती ममा, जिस की आंखों के सामने अब नित्य रासलीला चलती.

भाई मेरा चिंतित था. और मैं भी. यह घर नहीं, एक टूटती दीवार थी. हर कोई इस से दूर भागता है. और हम थे कि इसी टूटती दीवार को पकड़ कर गिरने से बचने का भ्रम पाले थे. करते भी क्या, यही तो अपना था न.

कहना ही पड़ता है, जिस पति के सान्निध्य में प्रेम और भरोसे की जगह गुलामी का एहसास हो, बिस्तर पर सुकून की नींद की जगह रात बीत जाने की छटपटाहट हो, उस स्त्री के जीवन में कितनी उदासी भर चुकी थी, यह कहने भर की बात नहीं थी.

मेरे पापा एक सरकारी मुलाजिम थे. ठीकठाक देखने में, अच्छी तनख्वाह, एक ढंग का पैतृक घर. उच्चशिक्षित सीधी सरल सुंदर पत्नी, 2 आज्ञाकारी बच्चे. इस के बावजूद पापा में क्या कमी थी कि हमेशा ममा को कमतर साबित कर के ही खुद को ऊंचा दिखाने का प्रयास करते रहते. हम सब के अंदर धुंएं की भठ्ठी भर चुकी थी.

पापा घर पर नहीं थे. ममा हमारे कमरे में आई, बोली, ‘मेरा एक दोस्त है भोपाल के कालेज में प्रिंसिपल. मैं उसे अपनी नौकरी के सिलसिले में मेल करना चाहती हूं. अगर तुम दोनों भाईबहन हिम्मत करो, तो मैं नौकरी के लिए कोशिश करूं. हां, हिम्मत तुम्हें ही करनी होगी. मैं इस घर में रह कर नौकरी कर नहीं पाऊंगी, तुम जानते हो. और बाहर गई, तो घर नहीं आ पाऊंगी.

‘क्या तुम दोनों अपनीअपनी परीक्षाएं होने तक यहां किसी तरह रह लोगे? जैसे ही तुम्हारी परीक्षाएं हो जाएंगी, मैं तुम दोनों को अपने पास बुला लूंगी. और कितना सहुं, कहो? यह तुम्हारे व्यक्तित्व पर भी बुरा प्रभाव डाल रहा है. मैं एक अच्छी गृहस्थी चाहती थी, प्यार और समानता से परिपूर्ण. मगर तुम्हारे पापा का मानसिक विकार यह घर तोड़ कर ही रहेगा. तुम दोनों अब बड़े हो चुके हो, विपरीत परिस्थिति की वजह से परिपक्व भी. इसलिए तुम जो कहोगे…?’

ममा ने सारी बातें एकसाथ हमारे सामने रखीं. फिर स्थिर आंखों से हमें देखने लगीं. कोई आग्रह या दबाव नहीं था. ममा की यही बातें उन्हें पापा से अलग ऊंचाई देती थीं.

भाई ने कहा- ‘मुझे तो लगता है हम अपनी जिंदगी में बदलाव खुद ही ला सकते हैं. अगर बैठे रहे तो कुछ भी नहीं बदलेगा. हम हमेशा यों ही दुखी ही रह जाएंगे.’

‘मुझे भी यही लगता है, भाई सही कह रहा है. तुम पापा के अनुसार ही तो चल रही हो, वे तब भी नाखुश हैं. और तो और, अपनी मनमरजी से ऐसी हरकत कर रहे हैं जिस से हम सभी परेशान हैं. भला यही होगा तुम नौकरी ढूंढ कर बाहर चली जाओ.’

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