एक सांकल सौ दरवाजे- भाग 4 : क्या हेमांगी को मिला पति का मान

अब तक ममा बाहर आ गई थी. पूरे एक साल बाद हम ममा को देख रहे थे. पीली जयपुरी प्लाजो सूट में भव्य लग रही थी. आंखों में चमक वापस आ गई थी. गालों में लाली थी. रंग भी फिर से निखर गया था. हम दोनों को उस ने गर्मजोशी से गले लगा लिया. आंखों में आंसू भर आए थे.

हम ममा को पा कर आश्वस्त थे, लेकिन क्या पता मैं जाने क्यों कुछ आशंकित सी महसूस कर रही थी. क्या यह ममा का अपना घर है? या ममा का घर बस रहा है और हम घरविहीन हो रहे हैं धीरेधीरे? भाई को मेरी धड़कनें तुरंत महसूस हो जाती हैं. उस ने सशंकित सा मुझे देखा.

ममा ने शुभा से कहा कि हमें वह हमारा कमरा दिखा दे और फ्रैश होने के लिए बाथरूम में हमारे जरूरत का सामान रख दे.

‘ममा,’ मैं ने आवाज लगाई थी. ममा ने कहा- ‘सब बताती हूं, यह जल्दीबाजी की बात नहीं है.’ ममा मन की बात खूब समझती है. वह फिर उसी शीघ्रता में दूसरे किनारे बने एक कमरे में दाखिल हो गई.

शुभा हमारे कमरे से लगे बाथरूम में सबकुछ व्यवस्थित कर रही थी. भाई ने कहा- ‘दीदी, मुझे बहुत अजीब लग रहा है. क्या ममा भी पापा के जैसे…’

मैं ने उसे रोकते हुए कहा- ‘ममा पर हमें विश्वास नहीं खोना चाहिए. वह पापा की तरह नहीं है. उस में सचाई है, हमारे लिए चिंता भी. रुको जरा.’

हमारा यह कमरा दूसरी मंजिल पर है. 2 अगलबगल पलंग पर सफेद फुलकारी वाली चादर के साथ आकर्षक बिस्तर लगे हैं. बगल की अलमारी में कुछ अच्छी चुनिंदा किताबें रखी हैं. पास ही टेबलकुरसी और एक कपड़ों की छोटी अलमारी है.

शुभा जाने को हुई, तो मैं ने उसे रोका.

‘शुभा, क्या तुम बता सकती हो हम यह कहां आए हैं?’

तभी ममा ने शुभा को नीचे से आवाज दी और वह कहने को कुछ होती हुई भी नीचे चली गई.

हम अपने घर में हमेशा त्रिशंकु की तरह रहे. न मान की ऊंचाई मिली, न प्रेम का आधार. बीच में रहे हमेशा असुरक्षित, अशांत, असहाय से.

यह हमारा अपना घर नहीं था. लेकिन शायद ममा का निडरभाव हमें सुरक्षा का आभास दे रहा था.

2 घंटे बाद यानी करीब रात के 8 बजे वह हमारे कमरे में आई. उस ने हमें पुचकारा. मगर हम दोनों भाईबहन अब संतोष मनाने की हिम्मत खो चुके थे. हमारे मन में उलझनों की घटाएं घनी हो आई थीं.

मैं ने तुरंत कहा- ‘ममा, क्या यह घर तुम्हारा है?’

‘चलो आओ मेरे साथ. तुम्हारे सारे सवाल के उत्तर वहीं मिल जाएंगे.’

हम निचली मंजिल के उसी किनारे वाले कमरे में दाखिल हुए जहां ममा को शाम को हम ने जाते देखा था.

सुंदर नक्काशीदार पौलिश किए हुए दरवाजे से अंदर जाते ही एक गरिमापूर्ण, सुसज्जित कमरा हमारे सामने था. कमरे के बीचोंबीच सागवान लकड़ी की चारों ओर से स्टैंड लगी पलंग लगी थी.

इस पलंग पर 45 के आसपास के एक शांतचित्त पुरुष लेटे थे जिन के एक पैर पर प्लास्टर चढ़ा था और यह पैर पलंग से जुड़े एक स्टैंड से बंधा था.

ममा ने पुकारा उन्हें, ‘पल्लव, मेरे दोनों बच्चे आए हैं.’

मैं अजीब सा महसूस करने लगी. ममा को हमें बताना चाहिए था कि हम कहां लाए गए हैं.

पल्लव जी तो ममा के दोस्त हैं, क्या यह इन्हीं का घर है? इन्हें चोट कैसे आई?

ढेरों सवाल मुझे तंग करने लगे थे.

पल्लव जी ने हमारी ओर देखा. क्या जादू सा था उन की आंखों में. गेहुंए वर्ण में आकर्षक चेहरा और ऊंचाई भी तकरीबन 6 फुट के आसपास होगी. हम ने कभी ऐसा शांत चेहरा देखा नहीं था.

पल्लव जी यथासंभव हमारी ओर मुड़े, हम दोनों के हाथ पकड़े, कहा- ‘तुम दोनों को कब से देखना चाहता था. हेमा इन्हें यहां आराम से रहने को कहो. जब मैं ठीक हो जाऊंगा, इन्हें भोपाल में ही अच्छे स्कूलकालेज में भरती करवा दूंगा, तब तक इन के रिज़ल्ट आ जाएं.’

ममा ने पल्लव जी से पूछा- ‘अभी और किसी चीज की जरूरत तो नहीं. शुभा को यहीं आसपास रुकने को कहती हूं. मैं जरा बच्चों के साथ हूं. कुछ जरूरत हो, तो फोन से बुला लेना.’

‘हांहां, ज़रूर. अभी तुम इन के साथ रहो.’

हम ऊपर अपने कमरे में चले आए थे. रहस्य की जाने कितनी परतें अभी उघड़नी बाकी थीं. मैं और भाई बेसब्र हुए जा रहे थे.

‘शुभा कौन है ममा?’ मैं ने पूछ लिया.

‘इन के कालेज के चपरासी की बेटी है. चपरासी का 5 वर्षों पहले निधन हो गया, तो उस की बीवी और बच्ची मुश्किल में आ गई थीं. पल्लव जी ने पड़ोस में मांबेटी को छोटा सा घर खरीद कर दे दिया. इस की मां इस घर में साफसफाई का काम कर लेती है और पल्लव जी इस के लिए उसे ठीकठाक तनख्वाह देते हैं. शुभा 11वीं में है. उस की पढ़ाई का भी पल्लव जी इंतजाम देखते हैं.’

‘इन्हीं पल्लव जी के कालेज में तुम लैक्चरर हो न?’

‘सही पहचाना. मेरे पुराने दोस्त हैं और अब ये हमारे कालेज के प्रिंसिपल हैं. इन्हीं का कालेज है.’

अब तक हम अपने कमरे के पलंग पर पसर कर बैठ चुके थे. ममा भाई के सिर को अपनी गोद में रख कर आराम से हमारे पास बैठ गई थी.

‘ममा, हम जानना चाहते हैं कि तुम यहां क्यों हो? तुम तो होस्टल में रहती थीं? तुम ने कहा था, तुम ने किराए का एक मकान देख रखा है और हमारे आते ही हम सब वहां रहने लगेंगे?’

‘यही तय था. लेकिन 2 दिनों पहले पल्लव जी का ऐक्सिडैंट में पैर टूट जाने के बाद डाक्टर के कहने पर मुझे आज यहां आ जाना पड़ा है. और चूंकि इन का अपना कोई जिम्मेदारी लेने वाला है नहीं, मुझे ही देखभाल के लिए रुकना होगा. पल्लव जी दिल के बड़े प्यारे और सच्चे इंसान हैं. सुना न, तुम्हारे लिए उन्होंने क्या कहा? तुम लोग यहां कुछ दिन शांति से रहो, एकाध महीने में पल्लव जी ठीक होने लगें तो हम किसी अच्छे मकान में चले जाएंगे और तुम दोनों को यहीं अच्छे स्कूल और कालेज में भरति कर देंगे.’

‘ममा, पल्लव जी के बारे में कुछ और बात कहो न, जो अब तक तुम ने नहीं कहा?’

‘पल्लव जी कालेज में 2 वर्ष मुझ से सीनियर थे. इन का भी विषय इकोनौमिक्स था. मेरे कई दोस्त पढ़ाई में इन से मदद लेते, तो मैं भी इन से मदद लेने लगी थी. बाद में इन्होंने हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से डाक्ट्रेट किया था.

जीवन संघर्ष -भाग 3 : एक मां की दर्दभरी दास्तान

पर मेरी ननद में इतनी बुद्धि नहीं थी कि लड़कियों की अच्छी देखभाल करे, पढ़ाई करवाए, सासससुर की सेवा करे. पति थकाहारा आए तो उस के लिए खना बनाए. मायके में भी आए तो हंसतेखेलते शांति से आए. 41 साल की हो गई थी. इतनी अक्ल तो होनी चाहिए थी न.

न ही मेरे सासससुर उसे कुछ कहते थे.मुझे ठीक से खाना न मिलने के चलते छाती में दूध ठीक से नहीं आता था. मैं भी अपनी भूख को बरदाश्त कर लेती, लेकिन जब मेरा मेहुल छाती को मुंह में डालता, तो उस में कुछ नहीं आता. यह मैं बरदाश्त नहीं कर पाती. मैं छाती को जोर से दबाती तो कुछ दूध आता. मैं खुश हो जाती, लेकिन फिर वह भूख के चलते अपनी उंगली मुंह में डाल कर चूसता रहता.

मैं ने पति को भी इस के बारे बताया, लेकिन वे कुछ नहीं बोले. उन्हें भी मेरा शरीर नोचने के अलावा और कोई मतलब नहीं था.मेरे लिए सब से बड़ी समस्या मेरी ननद थी. मैं ने उसे घर से निकालने की ठान ली. मैं बीमार होने का बहाना करने लगी. घर का सारा काम ननद को करना पड़ता.

मेहुल के लिए श्रेया ने ऊपर का फीड देने के लिए फैरेक्स ला दिया था. मैं उसे दूध में मिला कर देती रही. मन में तसल्ली थी कि बच्चे का पेट भर रहा है. मैं भी चुपचाप खाना चोरी कर के अपने कमरे में ला कर खा लेती. सीधी उंगली से घी न निकले, तो उंगली टेढ़ी करनी पड़ती है.

ननद भी रोजरोज घर का काम करने से तंग आ गई थी. उस ने आव देखा न ताव अपना सामान पैक किया और अपनी ससुराल चली गई. जब तक यहां रही वह ताने देती रही. मेहुल रोता था तो मैं दौड़ कर उसे संभालने चली जाती. गोद में उठाती, फैरेक्स देती और खेलने के लिए अपने साथ ले आती. मेरी सास और ननद मुझे सुना कर आपस में बातें करतीं, ‘यह बच्चे को बिगाड़ रही है.

हम ने भी बच्चे पैदा किए हैं. हम ने कभी ऐसा नहीं किया.’मैं ने बहुत कोशिश की कि एक कान से सुनूं और दूसरे कान से निकाल दूं, लेकिन शब्द इतने तीखे होते कि सीधे दिल पर लगते.मेहुल 5 महीने का हो गया था. एक दिन मैं कमरे में बैठी रो रही थी. इतने में श्रेया आई.

उस ने बातोंबातों में मेरे हुनर के बारे पूछा. ‘‘मैं खाना बहुत अच्छा बनाती हूं,’’ मैं बोली.उस ने यूट्यूब पर अपने वीडियो अपलोड करने के लिए कहा. इस से आमदनी बढ़ेगी. हाथ में चार पैसे होंगे. सब के मुंह बंद हो जाएंगे.उस ने मुझे मोबाइल पर काम कैसे करना है, सब समझाया. मैं अपने पति और सास से छिप कर काम करने लगी और बिजी रहती. मेहुल को ठीक से देख नहीं पाती थी.मेहुल जैसेजैसे बड़ा होता गया, अच्छी खुराक मिलने से प्यारा लगने लगा.

सभी उसे प्यार करने लगे. ससुरजी उस के लिए खिलौने ले कर आने लगे. ननद को पता चला तो उस ने अपने पिता को बुरी तरह डांटा, ‘‘बच्चे पर इतना पैसा बरबाद करने की कोई जरूरत नहीं है.’’उस के बाद ससुरजी ने कुछ भी लाना छोड़ दिया. मैं ने अपनी सास को अपनी कमाई के बारे में बताया. वे परेशान तो हुईं, लेकिन पैसा आने से खुश भी हो गईं. मैं ने एक दिन बैंक से पैसा निकाला. अपनी सास के लिए एक जोड़ी पायल, अपने मेहुल के लिए अच्छेअच्छे कपड़े लिए.

अपने पति के लिए 2 शानदार कमीजें लीं और रात को पहनने के लिए पाजामाकुरता भी लिया. अपने और इन के लिए अंडरगारमैंट भी लिए.घर आ कर सभी को दिखाया, तो वे बहुत खुश हुए. उन्हें एहसास होने लगा कि बहू समझदार है. पति, सासू मां, ससुरजी को एहसास होने लगा कि खुद की बेटी की भी ससुराल है. उस का अपना घर है. उसे यहां हमारे घर में बोलने का कोई हक नहीं है.

एक दिन किसी बात पर ननद ने मुझे ले कर झगड़ा किया, तो न केवल मेरे पति ने, बल्कि सासू मां और ससुरजी ने साफ शब्दों में समझा दिया कि उसे हमारे घर में बोलने की जरूरत नहीं है. वह ऐसी रूठी कि फिर लौट कर नहीं आई.मेरे पति और सासू मां मुझे सहयोग करने लगे.

मेहुल का खयाल रखा जाने लगा. मेरी माली हालत अच्छी होने लगी, लेकिन मैं अपने मन के भीतर की इस टीस को कभी नहीं भूल पाई कि मेरी मां और मामा ने मुझे बेच दिया है. बीच में दलाली खाई है. यह भी कि मेरा पति अधेड़ उम्र का है. जब मैं जवान होऊंगी तो यह बूढ़ा हो जाएगा.

मेरी जवान हसरतों और उमंगों का क्या होगा? मन के भीतर की इच्छाओं को कैसे दबाऊं कि मुझे रात को बूढ़े मर्द की नहीं, बल्कि जवान मर्द की जरूरत होगी? इस हालत को कैसे संभाल पाऊंगी? इन सवालों के जवाब नहीं मिलते हैं. मैं जिंदगी के आखिरी पलों तक संघर्ष करती रहूंगी.

चिनम्मा- भाग 3 : कौन कर रहा था चिन्नू का इंतजार ?

हड़बड़ा कर उठी तो देखा, अप्पा आज भी मछली पकड़ने नहीं गया. वह रोज कोई न कोई बहाना बना कर घर में ही पड़ा रहता है. कौफी पी कर चिन्नू जल्दीजल्दी घर का सारा काम निबटाने लगी. उसे 9 बजे स्कूल पहुंचना होता है. स्कूल पहुंची, तो देखा स्कूल गेट के पास खड़ा साई उसे तिरछी नजर से देख रहा है. अपना सिर नीचे ?ाका लिया, पर न जाने क्यों दिल को अच्छा लगा.

3 बजे स्कूल की छुट्टी हुई. स्कूल के अधिकांश बच्चे घर चले गए. पर चिनम्मा और उस की कक्षा के कुछ बच्चे स्कूल के राव सर से ट्यूशन पढ़ने के लिए रुक गए. ट्यूशन खत्म होने के बाद सभी अपनेअपने गांव की ओर चल दिए. चिनम्मा भी तेज कदमों से घर की ओर चल पड़ी. तभी उसे लगा कि किसी ने पुकारा ‘चिन्नू’. बढ़ते कदम एकाएक थम गए. पीछे मुड़ कर देखा, साई उस के पीछेपीछे चला आ रहा है.

वह घबरा गई कि कहीं अप्पा ने देख लिया तो? उस की घबराहट देख कर साई ने हंसते हुए कहा, ‘मैं कोई भूत हूं क्या, जो तु?ो खा जाऊंगा?’

चिनम्मा के मुंह से निकला ‘लेकिन अप्पा?’

‘अरे अप्पा की चिंता मत कर तू, दुकान पर बैठ मस्त हो कर दारू पी रहा है. उसे देख कर इस बात की गारंटी है कि अभी कम से कम 2 घंटे तक घर पहुंचने वाला नहीं है वह. और तेरी अम्मा तो इस समय काम पर गई हुई है.’

‘तु?ो ये सारी बातें कैसे पता?’ चिनम्मा ने आश्चर्य से पूछा.

मैं सब चैक कर के आया हूं, साई ने अपनी शरारतभरी आवाज में इस ढंग से कहा कि चिनम्मा को हंसी आ गई. दोनों ही एकसाथ खिलखिला कर हंस पड़े.

चिनम्मा ने कहा, ‘तू इस जन्म में कभी नहीं सुधरेगा साई.’

फिर दोनों साथसाथ चलने लगे. कुछ कदम चलने पर जब चिनम्मा थोड़ी आश्वस्त सी हुई, तो धीरे से बोली, ‘‘एक बात पूछूं, पिछले 3 सालों से कहां था रे तू?’’ मु?ो तो लगा कि अब तो तू लौट कर आएगा ही नहीं अपने गांव.’’

साई बताने लगा, ‘‘मेरी शरारतों और शिकायतों से तंग आ कर अम्मा अचानक मु?ो मामा के पास हैदराबाद ले कर चली गई थी. मेरा मामा वहां मछली की दुकान चलाता है. अच्छा कमाताखाता है. अम्मा ने अपने भाई से कहा कि तू इस की पढ़ाई करवा दे और बदले में यह सुबहशाम तुम्हारी दुकान पर काम कर दिया करेगा मुफ्त में. जब लायक बन जाए तो भाई तेरी बेटी को मैं अपनी बहू बना लूंगी बिना दहेज के. (यहां पाठकों को यह बताना आवश्यक है कि दक्षिण भारत के कुछ राज्यों के सभी धर्मों में सगे ममेरेफुफेरे भाईबहनों की शादी को समाज द्वारा स्वीकृति है).

‘‘मामा खुश हो गया यह सुन कर. उस ने मेरा नाम टीवी रिपेयरिंग डिप्लोमा कोर्स’ में लिखवा दिया. मैं भी खुशीखुशी जाने लगा. खूब बड़ा शहर है हैदराबाद, चारों तरफ मोटरगाडि़यां और चकाचौंध करने वाली भीड़. जब तक अम्मा हैदराबाद रही, सबकुछ ठीकठाक चलता रहा. पर जैसे ही वह मु?ो छोड़ कर गांव चली आई, मामी का व्यवहार मेरे लिए बदल गया. वह रोज किसी न किसी बहाने मु?ो पढ़ने जाने से रोकने की कोशिश करती. वह मामा और मु?ा से लड़ाई भी करती रहती. उसे और उस की बेटी को मेरा वहां रहना, खाना और मामा द्वारा मेरी फीस भरना बिलकुल नहीं भाता था. कारण, मामी अपने सगे भाई के बेटे से अपनी बेटी की शादी करना चाहती थी. मैं उसे गंवार और निकम्मा लगता था.

‘‘उन दिनों मु?ो पहली बार अपने अम्माअप्पा और गांव की बहुत याद आई. जब मामा के घर में रहना मुश्किल हो गया तो एक दिन चुपचाप मैं घर से भाग गया किसी अनजान महल्ले में. एक संकल्प के साथ कि जीवन में कुछ बन कर मामी और उस की बेटी को दिखा दूंगा. उस के बाद से अपना खर्चा चलाने के लिए मैं सुबह क्लास करता और शाम के समय दुकान में नौकरी करता. इसी तरह मैं ने टीवी रिपेयरिंग डिप्लोमा कोर्स के बाद धीरेधीरे मोबाइल और कंप्यूटर रिपेयरिंग कोर्स भी कर लिया और पिछले एक साल से हैदराबाद की एक बड़ी दुकान में काम कर रहा हूं. छुट्टी ले कर अम्मा को देखने आया हूं.’’

चिनम्मा ने साई को छेड़ते हुए कहा, ‘‘तेरी बातें सुन कर लगता है कि अब तो बड़ा सयाना और सम?ादार हो गया है रे तू तो. अच्छा बता, इतने दिनों बाद गांव आ कर तु?ो कैसा लग रहा है, कहीं वापस तो नहीं चला जाएगा शहर फिर से?’’

साई उस के जरा नजदीक आ कर बोला, ‘‘सच कहूं, तो ज्यादा कुछ अच्छा नहीं लगा यहां आ कर. कहीं कुछ भी तो नहीं बदला है इस इलाके में. मेरा अप्पा देशी शराब पीपी कर बेमौत मर गया और तेरे अप्पा जैसे लोग मरने की तैयारी में हैं. मैं तो वापस जाने की सोच रहा था पर समय की कृपा से तभी कल तू दिख गई रामुलु अन्ना की दुकान पर. और तब से अब सबकुछ अच्छा लगने लगा है मु?ो.’’ यह कह कर साई ने प्यार से चिनम्मा का हाथ पकड़ लिया.

‘‘धत,’’ कह कर चिनम्मा ने अपना हाथ छुड़ाया और शरमा कर घर भाग आई.

फिर कई दिनों तक दोनों स्कूल से लौटते वक्त किसी न किसी बहाने मिलते रहे. एकदूसरे के साथ रहना अच्छा लगने लगा था उन्हें. शायद प्यार का अंकुर फूट चुका था दोनों के दिलों में.

बातों ही बातों में साई ने बताया कि वह गांव की अपनी ?ोंपड़ी बेच कर शहर में दुकान खोलने जा रहा है टीवी, मोबाइल और कंप्यूटर रिपेयरिंग की, क्योंकि अब उसे अच्छा अनुभव हो गया है अपने काम का.

चिनम्मा ने भी जब भविष्य में अपने टीचर बनने की बात बताई साई को तो साई ने पूछा, ‘‘लेकिन तू टीचर बनेगी कैसे? तु?ो तो शहर जाना पड़ेगा टीचर बनने का कोर्स (टीचर्स ट्रेनिंग) करने, और तेरा अप्पा तो पक्का नहीं भेजेगा तु?ो.’’

‘‘हां, यह बात तो मैं भी जानती हूं, पर मैं कर भी क्या सकती हूं?’’ निराशाभरे स्वर में चिनम्मा ने कहा.

‘‘एक उपाय है,’’ साई ने कहा.

‘‘वह कौन सा है, बता तो जरा?’’ चिनम्मा ने उत्सकुता से पूछा.

‘‘तू मु?ा से शादी कर ले और चल शहर मेरे साथ आगे की पढ़ाई करने,’’ पता नहीं कैसे साई अपने मन की बात बोल गया अचानक.

‘‘बुद्धू, यह कैसे हो सकता है भला? हम दोनों 2 धर्म के हैं, तू हिंदू और मैं ईसाई. अगर दोनों के घरवालों और समाज को पता चल गया तो तेरीमेरी खैर नहीं, मार कर फेंक देंगे हमें,’’ कह कर चिनम्मा चुप हो गई.

‘‘2 धर्म के हुए तो क्या हुआ, दिल तो मिलता है न अपना. शादी के बाद तू अपना धर्म मानेगी और मैं अपना. हम चर्च और मंदिर दोनों जगह जाया करेंगे, क्या फर्क पड़ता है इन बेबुनियादी बातों से. अगर हिम्मत और हौसला हो तो कोई परिवार और समाज नहीं रोक सकता हम दोनों को,’’ फिल्मी हीरो की तरह बोला साई.

‘‘पर ऐसा करने से तो अप्पा की इज्जत चली जाएगी. मेरे साथ मेरी अम्मा को भी मार डालेगा वह. मु?ो नहीं जाना अपने अम्माअप्पा को छोड़ कर किसी अनजान शहर में कहीं दूर तेरे साथ,’’ चिनम्मा ने छोटे बच्चे की तरह कहा.

उस का डरना स्वाभाविक ही था. असल जिंदगी में वह अपने गांव, चर्च और आसपास के इलाके को छोड़ कर कहीं नहीं गई थी अभी तक.

साई हंसने लगा. फिर गंभीर स्वर में बोला, ‘‘तू बेवकूफ और डरपोक है चिन्नू, जिंदगी में कुछ बनना तो चाहती है पर हिम्मत करने से डरती है. अगर मैं भी तेरी तरह मामी की गालियों और जुल्मों से डर जाता तो कभी भी अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो पाता. बस, मामा की दुकान का एक नौकर बन कर रह जाता.’’

कुछ दिनों बाद साई चला गया, पर जातेजाते अपना, फोन नंबर दे गया अपनी चिन्नू को. यह कह कर, ‘‘जब दिल करे फोन कर लेना दोस्त सम?ा कर.’’ एकदो बार उस का दिल किया साई को फोन करने का, पर अप्पा का खयाल कर वह डर गई.

3 महीने बीत गए. 12वीं की परीक्षा के फौर्म भरने के लिए चिनम्मा को रुपयों की जरूरत थी. अप्पा से तो मांगने का प्रश्न ही नहीं था. बदले में उसे इतनी गालियां मिलतीं, इस का अनुमान कर के ही कांप जाती. पर वह अपना एक साल बरबाद भी नहीं करना चाहती थी. वह रुपए लाए कहां से. बड़ी हिम्मत कर के दबी जबान से अम्मा को बता रही थी, तभी पता नहीं कहां से अप्पा आ गया. आते ही बोला, ‘‘क्या बातें कर रही हो दोनों मांबेटी?’’ अम्मा के बताने पर उस ने तुरंत पूछा, ‘‘कितने रुपए चाहिए तु?ो 12वीं पास करने के लिए?’’

चिनम्मा अवाक रह गई जब अप्पा ने 100-100 के 4 नोट उस के हाथ पर रख दिए. ‘अप्पा के पास इतने रुपए आए कहां से,’ सोचते हुए उस ने पैसे ले लिए. अगले दिन स्कूल जा कर परीक्षा का फौर्म भर दिया चिनम्मा ने. पर उस ने यह भी महसूस किया कि आजकल अप्पा बहुत खुश रहता है और उसे डांटतामारता भी नहीं. तो उस का मन शंका से भर उठा.

12वीं की फाइनल परीक्षा शुरू हो चुकी थी. अंतिम परीक्षा दे कर स्कूल से आने के बाद चिनम्मा ने देखा अम्माअप्पा बड़े मेलमिलाप से धीरेधीरे कुछ बातें कर रहे हैं. उत्सुकता हुई तो दवेपांव अंदर आ कर वह उन की बातें सुनने लगी.

अप्पा अम्मा से कह रहा था कि परसों सोमवार को तू छुट्टी ले ले अपने काम से. शहर जाना है.

अम्मा बोली, ‘‘मगर क्यों?’’

अप्पा ने कहा, ‘‘चिन्नू का पासपोर्ट बनवाना है.’’

‘‘12वीं परीक्षा पास करने के लिए पासपोर्ट बनवाना पड़ता है क्या?’’ अम्मा ने भोलेपन से पूछा.

‘‘अरे नहीं रे, बिलकुल पागल है तू तो,’’ अम्मा को ?िड़कते हुए अप्पा ने कहा, ‘‘मैं ने चिन्नू की शादी तय कर दी है, अपनी मुंहबोली बहन पद्मा अक्का के बेटे नागन्ना से.’’

‘‘वही नागन्ना जो पुलिस के डर से अपनी बीवी और दुधमुंहे बच्चे को छोड़ कर कहीं गायब हो गया था कुछ सालों पहले,’’ अम्मा ने घबरा कर कहा.

‘‘अरे, अब वह पुराना वाला नागन्ना कहां रहा. दुबई में काम करता है. अच्छा कमाताखाता है. पुलिस भी उस का कुछ नहीं कर सकती अब तो. अक्का बता रही थी कि जब वह देश आएगा तो पैसे खर्च कर सारा मामला दबा देगा,’’ अप्पा ने जवाब दिया.

‘‘नहीं करना मु?ो अपनी चिन्नू की शादी ऐसे मवाली से, फिर तेरी पद्मा अक्का कौन सी भली औरत है,’’ यह कह कर अम्मा सुबकने लगी.

‘‘बहुत पैसा है नागन्ना के पास, अपनी चिन्नू राज करेगी वहां. फिर सोच, इस जमाने में बिना दहेज के कौन शादी करेगा हमारी बेटी से. नागन्ना ने दहेज मांगने के बजाय उलटे कहा है कि अगर शादी हो गई तो वह हमें भी हर महीने कुछ पैसे भेजा करेगा अपनी कमाई के. सोच, फिर तु?ो कहीं काम पर भी जाना नहीं पड़ेगा, घर पर आराम से रहेगी तू मेरी रानी बन कर,’’ अप्पा लाड़ से बोला.

‘‘शादी कब होगी?’’ अम्मा के पूछने पर अप्पा बोला, ‘‘12वीं के बाद अपनी चिन्नू दुबई चली जाएगी पद्मा अक्का के साथ. जहां नागन्ना काम करता है. शादी भी वहीं जा कर होगी दोनों की. इसलिए पासपोर्ट बनवाना जरूरी है.’’

यह सुन कर अम्मा शांत हो गई भविष्य में मिलने वाले सुख की कल्पना कर के. गरीबी और अभावभरी जिंदगी होती ही ऐसी है कि जरा सी सुख की चाहत इंसान से हर तरह के सम?ौते करवा लेती है.

यह सब सुन कर सन्न रह गई चिनम्मा. अब उसे सम?ा आ गया कि अप्पा ने पैसे क्यों दिए थे फौर्म भरने के लिए, क्यों खुश रहता है वह आजकल? यह सोच कर कि अप्पा ने उस का सौदा किया है अपने पीने के वास्ते, रातभर रोती रही तकिए में मुंह छिपा कर वह. मन फट गया था उस का अप्पाअम्मा की तरफ से. नहीं माननी है उसे अप्पा की कोई बात, नहीं करनी है उसे उस आपराधिक प्रवृत्ति वाले नागन्ना से शादी, चाहे कितने भी पैसे हों उस के पास या अपने ही धर्म का हो. यह सब सोच कर उस की आंखों से बहने वाले आंसुओं की धार तेज हो गई और उन आंसुओं के साथ धीरेधीरे उस की भय, चिंता और परेशानी सब बह गए.

सुबह उठी, तो दिल और दिमाग थोड़ा शांत था. उसे बारबार साई की कही बात याद आने लगी थी, ‘तू बेवकूफ और डरपोक है चिन्नू, जिंदगी में कुछ बनना तो चाहती है पर हिम्मत करने से डरती है,’ ठीक ही तो कह रहा था साई. मु?ा में हिम्मत की कमी थी अब तक. पर अब नहीं. अब वह किसी से भी नहीं डरेगी, अपने अप्पा से तो बिलकुल नहीं.

ऐसा निश्चय कर पूर्ण आत्मविश्वास के साथ चिनम्मा चुपचाप निकल पड़ी साई को फोन करने.

पता नहीं, क्या बात हुई दोनों में, 2 दिनों बाद पासपोर्ट बनवाने विशाखापट्टनम गई चिनम्मा अचानक गायब हो गई. अम्माअप्पा ने बहुत ढूंढ़ा, पर कुछ पता नहीं चला. रोतेबिलखते दोनों गांव वापस आ गए. कुछ दिनों तक उस के गायब होने की चर्चा होती रही, फिर सबकुछ शांत हो गया. 6 वर्षों बाद वह लौटी अपने साई के साथ उसी स्कूल की मैडम बन कर, जहां वह पढ़ती थी. उस की गोद में एक नन्ही सी गुडि़या भी थी.

जंजाल – भाग 3: मां की आशिकी ले डूबी बेटी को

‘‘ठीक है. ये लो 25,000 रुपए. पीछे के दरवाजे से बाहर चले जाओ,’’ आंटी ने हुक्म दिया.

रवि ने रुपए संभाल कर रख लिए. वह चुपचाप कोठे से बाहर निकल गया.

सोनम कमरे में अकेली बैठी थी. आंटी ने उसे नमकीन और चाय दी.

‘‘रवि को भी बुलाइए. वह कहां है?’’ सोनम ने कहा.

‘‘रवि थोड़ी देर में आएगा, तब तक तुम नाश्ता करो. मैं ने उसे दुकान से पान लाने भेजा है,’’ आंटी ने चतुराई से कहा.

सोनम ने अनमने ढंग से नमकीन खा कर चाय पी ली थी.

2 घंटे बीत गए, लेकिन रवि नहीं आया. सोनम अब घबराने लगी. तभी आंटी कमरे में आई.

‘‘रवि अभी तक नहीं आया. वह कहां है?’’ सोनम ने पूछा.

‘‘अब वह नहीं आएगा. तुझे बेच कर चला गया,’’ आंटी ने बेदर्दी से कहा.

सोनम आंटी की बात सुन कर हैरान रह गई. रवि इतना बड़ा धोखेबाज निकला. बेबसी में उस की आंखों में आंसू छलक आए.

‘‘अब रोने से कुछ नहीं होगा. कोठे पर ग्राहकों को खुश करना होगा,’’ आंटी ने आंखें तरेर कर कहा.

‘‘मोहिनी, अंजू, डौली यहां आना तो,’’ आंटी ने आवाज लगाई.

आंटी के अगलबगल आ कर कई लड़कियां खड़ी हो गईं.

‘‘यह सोनम है. कोठे पर नई आई है. कोठे के सारे कायदे इसे समझा दो,’’ कह कर आंटी कमरे से बाहर चली गई.

लड़कियां ग्राहकों को खुश करने के गुर सोनम को सिखाने लगीं. वे सोनम को कोठे की जरूरी पाठ पढ़ा कर अपने धंधे में लग गईं.

सोनम कमरे में डरीसहमी बुत

सी बैठी थी. वह किसी चिडि़या की तरह पिंजरे में कैद थी. आंटी के

खौफ से कोठे की लड़कियां डरीसहमी रहती थीं.

आंटी ने सोनम पर निगरानी रखी हुई थी. खिड़की के पास आंटी खड़ी थी. तभी कोठे पर एक ग्राहक आया था. आंटी सोनम को दिखा कर ग्राहक को बताने लगी, ‘‘यह लड़की आज ही कोठे पर आई है. बड़ी कमसिन है. छुईमुई है बाबू. छूने पर मुरझा जाएगी.’’

ग्राहक ने सोनम को ऊपर से नीचे तक देखा. उस की कामुक नजर से सोनम घबरा गई. उसे लगा कि वह कोठे के पिंजरे को तोड़ कर कहीं भाग जाए, पर वह बेबस थी.

ग्राहक ने रुपए आंटी को दे दिए. सोनम के साथ रात बिताने को अब वह तैयार था.

‘‘इस के साथ उस कमरे में चली जाओ,’’ आंटी ने सोनम की तरफ इशारा कर के कहा.

ग्राहक सोनम का हाथ पकड़ कर तकरीबन खींचते हुए कमरे में ले गया. आंटी रुपए गिनते हुए अपने कमरे में चली गई.

ग्राहक ने सोनम से कहा, ‘‘कपड़े उतार दो.’’

सोनम ने धीमे से कहा, ‘‘धीरज रखो, मैं बाथरूम से 2 मिनट में आती हूं. उस के बाद कपड़े उतारूंगी.’’

ग्राहक उस की बात मान गया.

सोनम का दिमाग बड़ी तेजी से काम कर रहा था. उस ने बाहर निकल कर कमरे की सिटकनी धीरे से बंद कर दी. इधरउधर ताक कर वह दबे पैर कोठे से बाहर निकल गई. बाहर 2-3 शोहदे बैठे थे. शोहदों के सामने से निकलना आसान नहीं था.

सोनम शोहदों से छिपते हुए कोठे के पिछवाड़े चली गई. वहां घना अंधेरा

था. अंधेरे में वह कोठे की चारदीवारी फांद गई.

अब सोनम सड़क पर थी. वह बेतहाशा भागने लगी. वह रास्ते से तो अनजान थी, लेकिन कोठे से दूर निकल जाना चाहती थी. उसे डर था कि कहीं आंटी के पाले हुए गुंडे उसे दबोच न ले.

सोनम सुनसान सड़क पर भागी जा रही थी. कुछ दूर जाने पर उसे एक चौराहा मिला. चौराहे पर स्ट्रीट लाइट की भरपूर रोशनी थी.

सोनम बस का इंतजार करने लगी. तभी एक बस आ कर रुकी.

‘‘यह बस कहां जा रही है?’’ सोनम ने कंडक्टर से पूछा.

‘‘बस पटना जाएगी. चलना है क्या?’’ कंडक्टर ने पूछा.

‘‘हां, मुझे जाना है,’’ कह कर सोनम बस में चढ़ गई और एक खाली सीट पर बैठ गई.

बस में सोनम सुकून महसूस कर रही थी. उस ने दहशत के माहौल को बहुत पीछे छोड़ दिया था.

सोनम जब कुछ देर तक कमरे में नहीं आई, तब ग्राहक दरवाजा पीटने लगा. आवाज सुन कर आंटी दौड़ी आई. उस ने झटपट कमरे की सिटकनी

खोल दी.

‘‘सोनम कहां है?’’ आंटी ने ग्राहक से पूछा.

‘‘बाथरूम जाने का बहाना कर वह भाग गई,’’ ग्राहक ने कहा.

यह सुन कर आंटी के पसीने छूट गए. जाल में फंसी चिडि़या उड़ गई थी.

‘‘असलम, गौतम, रमेश…’’ आंटी ने जोर से चिल्ला कर शोहदों को पुकारा. शोहदे आंटी की आवाज सुन कर

दौड़े आए.

‘‘जो नई लड़की आई थी, वह कोठे से भाग गई है. पकड़ कर लाओ उसे. मैं उस की खाल उधेड़ दूंगी,’’ आंटी गुस्से में बोली.

शोहदे सड़कों पर इधरउधर खाक छानते रहे, लेकिन सोनम नहीं मिली.

शोहदे सिर झुकाए आंटी के पास खड़े थे.

‘‘सब जगह देखा. वह लड़की नहीं मिली, ‘‘एक ने कहा.

आंटी ने यह सुन कर अपना सिर पीट लिया.

रात के 11 बज रहे थे. पटना के बसअड्डे पर आ कर बस रुक गई थी. सोनम रिकशे से अपनी गली के नुक्कड़ पर उतर गई.

आसपास के घरों की बत्तियां बुझी हुई थीं. लोग सो गए थे. गली में अंधेरा था. वह तेज कदमों से घर तक पहुंच गई.

सोनम ने अपने घर का दरवाजा खटखटाया. आवाज सुन कर उस की मां जाग गई.

‘‘कौन है इतनी रात को?’’ मां ने डर कर पूछा.

‘‘मैं सोनम हूं मां. दरवाजा खोलो.’’

मां ने दरवाजा खोल दिया, तब तक उस के बापू भी जाग गए थे.

सोनम मां से लिपट कर रोने लगी, ‘‘मां, मुझे माफ कर दो.’’

‘‘कहां चली गई थी इतने दिन?’’ मां ने पूछा.

‘‘रवि ने मुझ से शादी करने का नाटक किया. धोखे से कोठे पर ले जा कर मुझे बेच दिया. किसी तरह कोठे से जान बचा कर भाग आई,’’ सोनम सुबकने लगी.

‘‘रवि कहां रहता है? मैं उसे छोड़ूंगा नहीं,’’ बापू ने कड़क कर कहा.

‘‘वह गंगा किनारे की झोंपड़पट्टी में रहता है. गैराज में गाड़ी साफ करने का काम करता है,’’ सोनम ने कहा.

‘‘ठीक है, मैं उसे देखता हूं,’’ बापू ने गुस्से में कहा. सोनम अपनी मां के पास सो गई.

सुबह हुई. केशव और सुहागी के लिए यह सुबह खुशियां लाई थी. उन की लापता बेटी घर लौट आई थी.

अगले दिन सोनम स्कूल गई. मां उसे स्कूल तक छोड़ने गई. अब वह काम पर से लौटती, तब स्कूल से सोनम को साथ ले कर घर आती.

केशव कुछ दिनों तक मजदूरी करने नहीं गया. वह झोंपड़पट्टी के इलाके में जा कर रवि पर नजर रखता था. एक दिन केशव को थाने में जाते देखा गया. किसी को नहीं मालूम कि उस ने थाने में क्या कहा.

शाम में सोनम और उस की मां बैठे हुए थे. उसी समय केशव घर में आया. आते ही उस ने खुशखबरी सुनाई, ‘‘रवि को पुलिस पकड़ कर ले गई है. चोरी की मोटरसाइकिल खरीदने और बेचने के जुर्म में पुलिस ने उसे जेल भेज

दिया है.’’

यह सुन कर सोनम मारे खुशी के मां से लिपट गई, ‘‘रवि को सजा मिल गई मां. आज मुझे बड़ी खुशी मिली है.’’

केशव को अनूठी मजदूरी मिली थी. वह बेहद खुश था. सुहागी के दिल का डर खत्म हो गया था. सोनम अब बेफिक्र हो कर स्कूल जा सकेगी.

दूसरे दिन सुहागी महेश के घर काम करने गई थी. जब उस का काम खत्म हो गया, तब वह घर जाने लगी. तभी महेश ने सुहागी का हाथ पकड़ लिया. अपनी ओर खींचते हुए महेश ने सुहागी को चूमना चाहा, लेकिन सुहागी ने उस की पकड़ से खुद को छुड़ा लिया.

‘‘नहीं साहब, अब और नहीं.’’

‘‘क्यों…? ये 1,000 रुपए हैं. रख लो,’’ महेश साहब ने रुपए दिखाते हुए कहा.

‘‘साहब, ये रुपए मुझे नहीं चाहिए. महीने की पगार से मेरा काम चल जाता है,’’ सुहागी यह कह कर दरवाजे से बाहर निकल गई.

 

बींझा- भाग 3 : सोरठ का अमर प्रेम

इसी तरह 6 महीने गुजर गए. राव खंगार ने सोरठ के प्यार में डूब कर राजकाज का सारा काम छोड़ दिया. राज्य व्यवस्था बिगडऩे लगी. आखिर उस की खुमारी टूटी तो उस ने सोरठ से कहा, ‘‘तुझे छोड़ कर जाने का मन तो नहीं करता, लेकिन मजबूर हूं, राज्य का काम तो संभालना ही पड़ेगा. मेरे आने तक तेरा दिल कैसे बहलेगा?’’

“आप ऊदा ढोली को हुकुम देते जाओ, दिनरात मेरे महल के नीचे बैठा रहे, मुझे गाना सुनाए.’’ सोरठ ने कहा. राव खंगार देश भ्रमण के लिए रवाना हो गया. एक दिन सोरठ अपने महल में बैठी सिर गुंथवा रही थी, नीचे ऊदा ढोली मांड राग में विरह का गीत ‘ओलू घणी आवै…’ गा रहा था. सोरठ ने झरोखे से देखा, उसे चौक में बींझा नजर आया. इतने में ऊदा

ढोली ने दोहा गाया, ‘जिन सांचे सोरठ घड़ी, घडिय़ो राव खडग़ार. वो सांचो तो गल गई, लद ही गई लुहार. (जिस सांचे में सोरठ जैसी स्त्री और राव खंगार जैसा आदमी गढ़ा, वह सांचा ही गल गया और उस सांचे को बनाने वाला लुहार ही मर गया.)

दोहा सुनते ही सोरठ के आग लग गई. ‘कहां तो जवानी से भरपूर सुघड़ बींझा और कहां आधा बूढ़ा राव खंगार. मेरी जोड़ी का तो बींझा है, राव खंगार नहीं.’ सोरठ ने बींझा को बुलावा भेजा, बींझा हिचकिचाया. सोरठ ने दूसरा बुलावा भेजा. तब बींझा सोरठ के महलों में आया. सोरठ ने कहा, ‘‘बींझा, तेरे विरह की वेदना मुझ से अब सही नहीं जा रही है. तू नित्य मेरे महल में आयाजाया कर.’’

उस ने बींझा से अपने मन की दशा बताई, ‘‘राव खंगार ने मुझे अपने महल में रख रखा है. वह मेरे शरीर का मालिक हो सकता है, मेरे दिल का नहीं. शरीर का मालिक मन का मालिक नहीं होता. हकीकत यह है कि मन का मालिक ही सब का स्वामी होता है.’’

यह सुन कर बींझा को लगा कि जैसे आकाश में अमृत की वर्षा हो रही है, धन्य हो कर बींझा ने सोरठ का हाथ अपने हाथ में ले लिया. सोरठ ने कहा, ‘‘हाथ तो पकड़ रहे हो, उम्र भर प्रीत निभा पाओगे?’ भस्म हो कर बींझा की राख में मिल गई सोरठ

बींझा ने भी सूरज को साक्षी बनाते हुए प्रीत निभाने का वचन दिया. सोरठ और बींझा तो एकदूसरे से ऐसे मिल गए, जैसे फूल और सुगंध. “सोरठ, तुझ में अनेक गुण हैं, लेकिन एक बड़ा भारी अवगुण भी है. जिस पुरुष के मन में तू बस जाती है, उस के शरीर पर रक्त और मांस नहीं चढ़ता, वह तेरे विरह में सूखता ही जाता है.’’ बींझा ने कहा. सोरठ ने यह सुनते ही नाक चढ़ाई तो बींझा ने फिर कहा, ‘‘मुझे चाहे मारो या जिंदा रखो, आप मालिक हो, आप की मरजी.’’

राव खंगार अब क्या करता भला? उसे एक तरकीब सूझी. बींझा को देश निकाला दे देना चाहिए. दूसरे ही दिन बींझा को काली पोशाक पहना कर और काले घोड़े पर बैठा कर देश निकाला दे दिया. सिपाहियों को हुकुम दिया कि उसे गिरनार की सीमा पार निकाल कर आओ.

सोरठ अपने महल के झरोखे में खड़ी बींझा को जाते अपलक देखती रही. उस के वियोग में सोरठ ने खानापीना छोड़ दिया. सिर में तेल लगाए महीनों बीत गए. नाइन उबटन करने आती तो उसे उलटे पांव लौटा देती. माली हारगजरे लाए तो उन्हें कमरे के कोने में फिंकवा देती. सुगंधित इत्र की शीशियां भिजवाई जातीं तो उन्हें फोड़वा देती. तंबोलन पान ले कर आए तो उन्हें बंटवा देती.

उस के मुंह पर सावन की घटा जैसी उदासी छाई रही, आंखों से सावनभादों जैसी आंसुओं की झड़ी लगी रहती. आखिर उस से रहा नहीं गया. ऊदा ढोली को बुला कर बींझा को संदेश भेजा. ऊदा ने जा कर बींझा के सामने दोहा गाया, ‘‘सोरठ नागण को रही, ज्यू छेड़े ज्यू खाय. आजा बड़ा गारनड़ी, ले जा कंठ लगाय (तेरे प्रेम में उन्मत सोरठ नागिन हो रही है. जो छेड़ता है, उसे डस रही है. बींझारूपी गरुड़ अपनी नागिन को कंठ से लगा कर ले जाए).

यह दोहा सुनते ही बींझा पागल हो गया. उसे भलीबुरी ठीकगलत कुछ नहीं सूझी. सीधा सिंध के नवाब के पास पहुंचा. बींझा ने नवाब से सारी बातें कह सुनाईं. नवाब उसी समय बींझा की मदद को तैयार हो गया. सिंध के नवाब ने गढ़ गिरनार को जा घेरा. घमासान युद्ध हुआ. नवाब की ओर से बींझा बहुत बहादुरी से लड़ा. राव खंगार की हार हुई. बींझा सोरठ को लेने उस के महल पहुंचा, लेकिन नवाब ने पहले ही सोरठ को अपने कब्जे में कर लिया था. उस ने

बींझा को उसे देने से इनकार कर दिया. बींझा निराश हो कर पागल सा हो गया. सोरठ के महल की दीवारों से सिर पटकपटक कर मरणासन्न हो कर गिर पड़ा. नवाब ने सोरठ को बहुत लालच दिया. उसे डराया- धमकाया, लेकिन बींझा के प्रेम पर उसे अटल देख नवाब ने उस के सामने सिर झुका दिया.

नवाब ने सोरठ से पूछा, ‘‘बोल, तू कहां जाना चाहती है राव खंगार के पास, अपने बाप चंपा कुम्हार के पास या रूढ़ बनजारे के पास?’’ सोरठ ने रोते हुए कहा, ‘‘कहीं नहीं. जहां बींझा है, मुझे भी वहीं भेज दो आप की बड़ी मेहरबानी होगी.’’ सुन कर नवाब बोला, ‘‘बींझा तो तुम्हारी याद में पागल हो कर सिर दीवारों से पटक कर मर चुका है. उस का तो अंतिम

क्रियाकर्म भी कब का हो गया. अब भी बींझा के पास जाना चाहोगी?’ “हां, मुझे उसी जगह पर ले जा कर छोड़ दो, जहां पर बींझा को जलाया गया.’नवाब ने सोरठ को छोड़ दिया. वह उस जगह पर पहुंची और सूर्य के सामने खड़ी हो कर हाथ जोड़ कर प्रार्थना की, ‘‘हे सूर्य, तू सर्वव्यापी है, तेरे से कोई चीज छिपी हुई नहीं है. मैं ने बींझा से मन, वचन और कर्म से प्रेम किया है. अगर तू मुझे शुद्ध और

सती मानता है तो तू अग्नि प्रकट कर के मुझे अपने बींझा के पास पहुंचा दे.’’ कहते हैं कि उसी वक्त सूरज की किरणों से अग्नि प्रज्जवलित हुई, बींझा की भस्म के साथ सोरठ भी भस्म में मिल गई. ऊदा ढोली जब तक जिंदा रहा, गांवगांव में घूम कर सोरठ-बींझा के गीत गाए और उन के प्यार की कहानी को अमर कर दिया. राजस्थान में ढोली लोग आज भी बींझा-सोरठ के दोहे अकसर सुनाते हैं. दोहे व प्रेम कहानी सुन कर ऐसा लगता है जैसे यह कल की ही कहानी है.

डायन – भाग 3 : बांझ मनसुखिया पर बरपा कहर

शादी के 5 साल बाद भी मनसुखिया की कोख खाली थी. इसी बीच सांप के काटने से उस के पति हजारू की मौत हो गई. गांव वालों और एक बाबा ने मनसुखिया को डायन बता कर उस के साथ बदसुलूकी की. इस के बाद मनसुखिया एक ट्रेन में बैठ गई. आगे क्या हुआ…?

‘‘अस्पताल में भरती होने की दूसरी रात अचानक उस की तबीयत नाजुक हो गई थी. तब वह बड़बड़ा रही थी. उस समय मैं वहीं था. वह बोल रही थी, ‘लड्डुइया बाबा तुझे छोड़ेंगे नहीं… तू ने मेरे पति हजारू की हत्या की है… मुझे विधवा बनाया है… तेरा पाखंड ज्यादा समय तक नहीं चलने वाला… मैं तुझे जेल भिजवा कर दम लूंगी…’’’

यह सुन कर रेशमा और फूलो की आंखें भर आईं.

तब डाक्टर शिव मांझी ने कहा, ‘‘इस के साथ बहुत गलत हुआ है. मैं ने डायन उन्मूलन संस्था की अध्यक्ष ममता सोलंकी, संगम विहार के थाना प्रभारी राजेश कुमार और मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष सुमनजी को फोन कर दिया है. उन के आने के बाद कोर्ट में सोना का बयान दर्ज होगा.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छा कदम है सर,’’ रेशमा ने कहा.

तभी मानवाधिकार आयोग, प्रशासनिक टीम समेत दूसरे पदाधिकारी भी वहां पहुंच गए. सोना से पूछताछ कर उस का वीडियो बनाया गया.

इसी बीच डाक्टर शिव मांझी ने अपने टेबल की दराज से एक छोटा

सा बैग निकाला. उसे खोल कर दिखाया और बोले, ‘‘देखिए सर, ये टूटेफूटे मंगलसूत्र, नथ, चूडि़यां, पाजेब पीडि़ता सोना के हैं. ये हैं उस की इंजरी के कागजात और खून से सना पेटीकोट, साड़ी, ब्लाउज वगैरह दूसरा सामान.’’

‘‘ओके डाक्टर साहब,’’ थाना प्रभारी राजेश कुमार ने कहा.

पुलिस ने पीडि़ता की सभी चीजों को जब्त कर लिया. साथ ही, फूलो के साथ सोना को ले कर अदालत चली गई, ताकि अदालत के सामने उसे पेश किया जा सके.

प्रशासनिक टीम के जाने के बाद सोना को ले कर रेशमा गहरी सोच में डूब गई, तभी डाक्टर शिव मांझी ने उस से कहा, ‘‘चिंता मत करो, जो होगा सब अच्छा होगा.’’

एक नदी पथभ्रष्टा- भाग 3 : अनजान डगर पर मानसी

शुभा चुपचाप मानसी के भीतर जमे हिमखंड को पिघलते देखती रही. मानसी फिर खोएखोए स्वर में बोलने लगी, ‘‘मैं यही तो नहीं जानती कि पत्थर की मूर्ति में भगवान बसते हैं या नहीं. अम्मा का बेजान मूर्ति के प्रति दृढ़ विश्वास और आस्था मेरे भी मन में जड़ जमाए बैठी थी. मोहित को समर्पित होते समय भी मेरे मन में किसी छलफरेब की कोई आशंका नहीं थी. अम्मा तो पत्थर को पूजती थीं, किंतु मैं ने तो एक जीतेजागते इंसान को देवता मान कर पूजा था. फिर समझ में नहीं आता कि कहां क्या कमी रह गई, जो जीताजागता इंसान पत्थर निकल गया.’’ यह कह कर वह सूनीसूनी आंखों से शून्य में ताकती बैठी रही.

शुभा कुछ देर तक उस का पथराया चेहरा देखती चुप बैठी रही. फिर कोमलता से उस के हाथों को अपने हाथ में ले कर पूछा, ‘‘तो क्या मोहित धोखेबाज…’’

‘‘नहीं. उसे मैं धोखेबाज नहीं कहूंगी,’’ फिर होंठों पर व्यंग्य की मुसकान भर कर बोली, ‘‘वह तो शायद प्रेम की तलाश में अभी भी भटकता फिर रहा होगा. यह और बात है कि इस कलियुग में ऐसी कोई सती सावित्री उसे नहीं मिल पाएगी, जो पुजारिन बनी उसे पूजती हुई जोगन का बाना पहन कर उस के थोथे अहं को तृप्त करती रहे. बस, यही नहीं कर पाई मैं. अपना सबकुछ समर्पित करने के बदले में उस ने भी मुझ से एक प्रश्न ही तो पूछा था, मात्र एक प्रश्न, जिस का जवाब मैं तो क्या दुनिया की कोई नारी किसी पुरुष को नहीं दे पाई है. मैं भी नहीं दे पाई,’’ मानसी की आंखें फिर छलक आईं, जैसे बीता हुआ कल फिर उस के सामने आ खड़ा हुआ.

‘‘जाने दे मानू, जो तेरे योग्य ही नहीं था, उस के खोने का दुख क्यों?’’ शुभा ने उसे सांत्वना देने के लिए कहा. लेकिन मानसी अपने में ही खोई बोलती रही, ‘‘आज भी मेरे कानों में उस का वह प्रश्न गूंज रहा है, मैं यह कैसे मान लूं कि जो लड़की विवाह से पहले ही एक परपुरुष के साथ इस हद तक जा सकती है, वह किसी और के साथ…’’

‘‘छि:,’’ शुभा घृणा से सिहर उठी.

उस के चेहरे पर उतर आई घृणा को देख कर मानसी हंस पड़ी, ‘‘तू घृणा तो कर सकती है, शुभी, मैं तो यह भी नहीं कर सकी थी. आज सोचती हूं तो तरस ही आता है खुद पर. जिसे मैं देवता मान रही थी, वह तो एक मानव भी नहीं था. और हम मूर्ख औरतें… क्या है हमारा अस्तित्व? हमारे ही त्याग और समर्पण से विजेता बना यह पुरुष हमारी कोमल भावनाओं को कुचलने के लिए, बस, एक उंगली उठाता है और हम औरतों का अस्तित्व कुम्हड़े की बत्तिया जैसे नगण्य हो जाता है.’’ आवेश से मानसी का चेहरा तमतमा उठा.

अपने गुस्से को पीती हुई मानसी आगे बोली, ‘‘जानती है शुभा, उस दिन उस के प्रश्न के धधकते अग्निकुंड में मैं ने अपना अतीत होम कर दिया था और साथ ही भस्म कर डाला था अपने मन में पलता प्रेम और निष्ठा. पुरुष जाति के प्रति उपजी घृणा, संदेह और विद्वेष का बीज मेरे मन में जड़ जमा कर बैठ गया.’’

‘‘तो फिर यह नित नए पुरुषों के साथ…’’ शुभा हिचकिचाती हुई पूछ बैठी.

‘‘यह भी मैं ने मोहित से ही सीखा था. शुरूशुरू में मैं जब हिचकती या झिझकती तो वह यही कहता था, ‘इस में इतनी शरम या झिझक की क्या बात है. जैसे भूख लगने पर खाना खाते हैं, वैसे ही देह की भूख मिटाना भी एक सहज धर्म है,’ सो उस के दिखाए रास्ते पर चलती हुई उसी धर्म का पालन कर रही हूं मैं,’’ रोती हुई मानसी कांपते स्वर में बोली, ‘‘जब भूख लगती है, ठहर कर उसे शांत कर लेती हूं, फिर आगे बढ़ जाती हूं.’’

शुभा के चेहरे पर नफरत के भाव को भांप कर मानसी पलभर चुप रही, फिर ठंडी सांस छोड़ती हुई बोली, ‘‘निष्ठा और प्रेम के कगारों से हीन मैं वह पथभ्रष्टा नदी हूं, जो एक भगीरथ की तलाश में मारीमारी फिर रही है. मैं ने उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा है, फिर भी सोचती हूं कि इस अस्तित्वहीन हो चुकी नदी को उबारने के लिए कोई भगीरथ कहां से आएगा?’’

देर तक दोनों सखियां गुमसुम  अपनेअपने खयालों में खोई रहीं. फिर सहसा जैसे कुछ याद आ गया. मानसी एकदम से उठ खड़ी हुई, ‘‘अच्छा, चलती हूं.’’

‘‘कहां?’’ शुभा एकदम चौंक सी पड़ी.

अपने होंठों पर वही सम्मोहक हंसी छलकाती हुई मानसी इठलाते स्वर में बोली, ‘‘किसी भगीरथ की तलाश में.’’

उस के स्वर में छिपी पीड़ा शुभा को गहरे तक खरोंच गई. तेज डग भरती मानसी को देखती शुभा ने मन ही मन कामना की, ‘सुखद हो इस पथभ्रष्टा नदी की एकाकी यात्रा का अंत.’

 

संस्कारी बहू – भाग 3 : रघुवीर गुरुजी और पूर्णिमा की अय्याशी

यह याचिका शाम 6 बजे हाईकोर्ट के एक जज के पास पहुंची. साथ में वीडियो भी थे. जज उदार और सख्त थे. उन्होंने तुरंत और्डर टाइप कराया और जिला जज, जिला मजिस्ट्रेट और एसपी के साथ छापा मारने का हुक्म दिया.

तकरीबन 500 पुलिस वालों ने आश्रम घेर लिया. सेवादार भाग भी नहीं सके थे, क्योंकि पूर्णिमा की साथियों ने सारे कपड़े उठा कर नाले में फेंक दिए थे.

पूर्णिमा के परिवार के गायब होने की खोज पहले से चल रही थी. गुरुजी को पुख्ता सुबूतों के साथ पकड़ लिया गया. उस के बाद पूर्णिमा कहां गई किसी को पता नहीं लगा, पर उस की 4 साथियों ने मुकदमा लड़ा और गुरुजी को आजीवन कारावास की सजा मिली.

आश्रम से मिले कंकालों की गितनी इतनी थी कि डीएनए टैस्ट करने वालों को महीनों लगे.

उम्रकैद के दौरान रघुवीर गुरुजी की मौत हो गई, लेकिन पूर्णिमा कोढ़ की बीमारी से पीडि़त होने के बरसों बाद बस्ती में लौट आई. यह कोढ़ उसे एक सेवादार से लगा था. पूर्णिमा को अपने पर गर्व था, पर शायद ही कोई जानता था कि रघुवीर को जेल उसी ने पहुंचाया था.

उस पागल औरत ने धीधीरे मुझे यह सारी कहानी सुनाई थी, क्योंकि मैं रोज उसे खाना देने लगी थी, जबकि गांव वालों को भी बुरा लगता था और रघुवीर गुरुजी के उजड़े आश्रम के एक कोने को दबोचे था वह पंडितनुमा जना जो मुझे रोक रहा था.

पूर्णिमा ने बताया कि उस लड़के को 10 साल की उम्र में कहीं से पकड़ कर लाया गया था. पर वह सालों ड्रग्स लेने के चलते बहुत सी बातों को आज भी याद नहीं कर पा रहा.

एक सांकल सौ दरवाजे- भाग 3: क्या हेमांगी को मिला पति का मान

‘कहीं तुम्हारी पढ़ाई की फीस पर रोक लगाई तो?’ ममा चिंतित थी.

‘इतना भी न डरो. नानाजी का दिया 10 लाख रुपए तुम्हारे और मेरे नाम से जौइंट अकाउंट में है न ममा.’

‘हां, बस. अब डर की नहीं, हिम्मत की बात करूंगी,’ ममा की आंखों में विश्वास की ज्योति दिख रही थी मुझे.

जब उपयोगी शिक्षा हो, चाह हो, चेष्टा हो, प्रकृति की शक्ति साथ हो लेती है.

ममा को उस के दोस्त पल्लव ने अपने ही कालेज में इकोनौमिक्स के लैक्चरर के लिए बुला लिया.

रातोंरात ममा ने पैकिंग की, हमें खूब प्यार किया और भोपाल के लिए ट्रेन पकड़ने खंडवा स्टेशन जाने से पहले शायद आखरी बार के लिए पापा के पास गई.

घर में होते, तो पापा को इंटरनैट का एक ही प्रयोग आता था- चैटिंग और पोर्न फिल्मों का आदानप्रदान.

ममा के सामने खड़े होने के बावजूद उन्होंने फोन में अतिव्यस्तता दिखाते हुए लापरवाही से कहा, ‘कहो?’

सोचा ही नहीं था ममा कहेगी. लेकिन उस ने कहा, ‘मैं ने नौकरी ढूंढ ली है. इकोनौमिक्स में लैक्चरर का पद है. बाहर जाना है. अगर आप चाहें तो छुट्टी मिलने पर आ जाया करूंगी.’

पापा फोन छोड़ उठ बैठे थे, ‘मेरी नाक के नीचे यह क्या हो रहा है?’

‘यह नाक के ऊपर की बात है. आप नहीं समझेंगे. आप ने जितना समझा, या नहीं भी समझा, काफी है. आप ने जो इज्जत और प्यार दिया उस के तो क्या ही कहने. अब नौकरी करना ही आखरी विकल्प है.’

‘ऐसा? तुम कभी लौट कर आ नहीं पाओगी, समझ रही हो न? बच्चों से मिलना तो आसमानी ख्वाब ही समझ लो.’ शायद पापा को गुलामी करवाना पसंद था, इसलिए एक गुलाम को किसी भी कीमत पर रोकना चाहते थे, पूरी ठसक के साथ.

‘सब जानती हूं. आप को समझना बाकी नहीं रहा.’

‘कहां चली? जगह कौन सी है?’

खोजखबर रखने की मंशा साफ झलक रही थी. हम दोनों मांबेटी पापा की रगरग पहचानते थे.

‘क्यों, क्या करेंगे जान कर जब कोई मतलब रखना ही नहीं है,’

‘घटिया स्वार्थी औरत, तुम्हें अपने बच्चों की भी फिक्र नहीं.’

‘क्यों? बच्चे अपने पापा के पास हैं, अपने दादा के घर में, जिन पर उन का भी पूरा हक है. आप कहना क्या चाहते हैं कि मेरे जाते ही आप उन पर अत्याचार करेंगे? उन्हें खाना नहीं देंगे? उन की पढ़ाई की फीस नहीं भरेंगे? पलपल पर नजर रखूंगी मैं. उन्हें जरा भी तकलीफ़ हुई, तो आप की भली प्रकार खबर लूंगी.’

पापा क्रोध से लाल हो गए थे. अब तक उन की जूती में दबी पत्नी उन की तौहीन कर रही थी और वे चाह कर भी अपना राक्षसी रूप नहीं दिखा पा रहे थे. खूंखार आदमी तब डराता है जब सामने वाला डरने के लिए तैयार हो या मजबूरी में बंधा हो.

हम भाईबहनों को आज पहली बार अपनी इज्जत वापस मिली महसूस हो रही थी.

ममा निकल गई.

भोपाल जा कर ममा अच्छी तरह व्यवस्थित हो गई थी. पल्लव जी ने ममा को कालेज होस्टल में ही रहने का इंतजाम कर दिया था.

ममा रोज रात को हमारी खबर लेती, वीडियो कौल करती. उस ने अपने कालेज और होस्टल का पता दे दिया था और हम हमारी परीक्षाएं समाप्त होने तक दोगुनी गति से पढ़ाई कर रहे थे.

पापा अपनी ही रौ में थे. वही, ममा को ले कर हमें खिझाना, व्यंग्य कसना, घर में कई तरह की औरतों को ला कर मौजमस्ती करना, देररात घर आना. यह अध्याय हमारे लिए बहुत दुखदाई था. बेसब्री से अपनी परीक्षाएं ख़त्म होने का हम इंतजार कर रहे थे.

आखिर इंतजार ख़त्म हुआ. अगर इस बारे में हम पापा से बात करते तो वे हम से ऐसी सख्ती करते कि शायद दोनों भाईबहन ही अलग कर दिए जाते. बिना मुरव्वत के हमारे साथ कुछ भी हो सकता था अगर उन्हें हमारी मंशा पता चलती.

तो, पापा के औफिस जाते ही हम भोपाल की उपलब्ध ट्रेन में बैठ गए. इस के लिए हमें बड़ी जुगत लगानी पड़ी. हम ने अपने साथ वे सामान रख लिए थे जिन से इस घर में जल्द वापस आए बिना हमारा काम चल जाए. ममा को हम ने इत्तला कर दिया था.

शाम 5 बजे हम ममा के होस्टल के दरवाजे पर थे. पर यहां, यह क्या, दरवाजे पर बड़ा सा ताला? नसों में हमारा खून जम सा गया. भाई घबरा गया था. उस की रोनी सूरत देख मेरा भी दिल बैठ गया. हम तो पापा को बिना बताए आ गए थे. कहीं ममा नहीं मिली तो? इतने बड़े शहर में हम दोनों रात कैसे बिताएंगे? फिर पापा के पास वापस जाना… मैं ने ममा को फोन लगाया. दो बार, तीन बार… लगातार बजती रही घंटी. शाम का डूबता सा सूरज हमें डराने लगा. भाई और हम एकदूसरे का मुंह ताक रहे थे. दिमाग को डर के सिवा कुछ सूझ नहीं रहा था.

अचानक सामने से एक लड़की को आते देखा. होगी कोई 16-17 साल की.

रेगिस्तान में जैसे जल का सोता. काश, इसे ही कुछ मालूम हो. पर ऐसा क्यों होगा भला. दुखी और निराश मन से हम उस लड़की को देख रहे थे और वह हमारे पास आ कर खड़ी हो गई.

‘मुझे आप की मां ने भेजा है. उधर औटो खड़ा है, आप लोग मेरे साथ चलिए.’

हमारे हाथों में चांदतारे आ गए थे.

मैं ने फिर भी उस से कुछ पूछना चाहा, तब तक लड़की ने कहा- ‘मैडम से यह लीजिए बात कर लीजिए,’ उस ने फोन लगा कर मुझे दिया.

‘ममा,’ मेरी टूटी हुई आवाज के बावजूद ममा ने जल्दीबाजी में कहा- ‘तुम लोग आओ पहले, फिर सब बताती हूं. तुम्हें जो ला रही है वह शुभा है, बहुत अच्छी है, बेटी जैसी. मिलते हैं.’

यह दोमंजिला बंगलानुमा बड़ा सा मकान था. अगलबगल 2 दरवाजे थे. बड़ा दरवाजा गैरेज के सामने खुलता था. मध्यम आकार का यह दरवाजा, जिस से हम अपने 2 सूटकेस के साथ अंदर आए थे, मकान के बरामदे के सामने था. गेट की सीध में पत्थर की बंधी सड़क थी, दोनों ओर फूलों के पेड़पौधे थे. हम इन्हें बाजू में छोड़ते हुए मकान के बरामदे पर स्थित दरवाजे की ओर बढ़ रहे थे.

ममा से मिलने की अथाह उछाह में डूबते सूरज की सुरमई शाम ने अनिश्चित का जराजरा सा कंपन भर दिया था. मगर विश्वास का संबल भी साथ ही था.

अंधविश्वास से आत्मविश्वास तक: भाग 3- क्या भरम से निकल पाया नरेन

नरेन उस के पास आ गया. लेकिन चेक देख कर चौंक गया, “यह चेक… तुम्हारे पास कहां से आ गया…? ये तो मैं ने स्वामीजी को दिया था.”

“नरेन, बहुत रुपए हैं न तुम्हारे पास… अपने खर्चों में हम कितनी कटौती करते हैं और तुम…” वह गुस्से में बोली. लेकिन नरेन तो किसी और ही उधेड़बुन में था, “यह चेक तो मैं ने सुबह स्वामीजी को ऊपर जा कर दिया था… यहां कैसे आ गया…?”

“ऊपर जा कर दिया था..?” रवीना कुछ सोचते हुए बोली, “शायद, स्वामीजी का चेला रख गया होगा…”

“लेकिन क्यों..?”

”क्योंकि, लगता है स्वामीजी को तुम्हारा चढ़ाया हुआ प्रसाद कुछ कम लग रहा है…” वह व्यंग्य से बोली.

“बेकार की बातें मत करो रवीना… स्वामीजी को रुपएपैसे का लोभ नहीं है… वे तो सारा धन परमार्थ में लगाते हैं… यह उन की कोई युक्ति होगी, जो तुम जैसे मूढ़ मनुष्य की समझ में नहीं आ सकती…”

“मैं मूढ़ हूं, तो तुम तो स्वामीजी के सानिध्य में रह कर बहुत ज्ञानवान हो गए हो न…” रवीना तैश में बोली, “तो जाओ… हाथ जोड़ कर पूछ लो कि स्वामीजी मुझ से कोई
अपराध हुआ है क्या… सच पता चल जाएगा.”

कुछ सोच कर नरेन ऊपर चला गया और रवीना अपने कमरे में चली गई. थोड़ी देर बाद नरेन नीचे आ गया.

“क्या कहा स्वामीजी ने..” रवीना ने पूछा.

नरेन ने कोई जवाब नहीं दिया. उस का चेहरा उतरा हुआ था.

“बोलो नरेन, क्या जवाब दिया स्वामीजी ने…”

“स्वामीजी ने कहा है कि मेरा देय मेरे स्तर के अनुरूप नहीं है…” रवीना का दिल
किया कि ठहाका मार कर हंसे, पर नरेन की मायूसी व मोहभंग जैसी स्थिति देख कर वह चुप रह गई.

“हां, इस बार घर आ कर तुम्हारे स्तर का अनुमान लगा लिया होगा… यह तो नहीं पता होगा कि इस घर को बनाने में हम कितने खाली हो गए हैं…” रवीना चिढ़े स्वर में बोली.

“अब क्या करूं…” नरेन के स्वर में मायूसी थी.

“क्या करोगे…? चुप बैठ जाओ… हमारे पास नहीं है फालतू पैसा… हम अपनी गाढ़ी कमाई लुटाएं और स्वामीजी परमार्थ में लगाएं… तो जब हमारे पास होगा तो हम ही लगा
लेंगे परमार्थ में… स्वामीजी को माघ्यम क्यों बनाएं,” रवीना झल्ला कर बोली.

“दूसरा चेक न काटूं…?” नरेन दुविधा में बोला.

“चाहते क्या हो नरेन…? बीवी घर में रहे या स्वामीजी… क्योंकि अब मैं चुप रहने वाली नहीं हूं…”
नरेन ने कोई जवाब नहीं दिया. वह बहुत ही मायूसी से घिर गया था.

“अच्छा… अभी भूल जाओ सबकुछ…” रवीना कुछ सोचती हुई बोली, “स्वामीजी रात में ही तो कहीं नहीं जा रहे हैं न… अभी मैं खाना लगा रही हूं… खाना ले जाओ.”

वह कमरे से बाहर निकल गई, “और हां…” एकाएक वह वापस पलटी, “आज
खाना जल्दी निबटा कर हम सपरिवार स्वामीजी के प्रवचन सुनेंगे… पावनी व बच्चे भी… कल छुट्टी है, थोड़ी देर भी हो जाएगी तो कोई बात नहीं…”

लेकिन नरेन के चेहरे पर कुछ खास उत्साह न था. वह नरेन की उदासीनता का कारण समझ रही थी. खाना निबटा कर वह तीनों बच्चों सहित ऊपर जाने के लिए तैयार हो गई.

“चलो नरेन…” लेकिन नरेन बिलकुल भी उत्साहित नहीं था, पर रवीना उसे जबरदस्ती ठेल ठाल कर ऊपर ले गई. उन सब को देख कर, खासकर पावनी को देख कर तो उन दोनों के चेहरे गुलाब की तरह खिल गए.

“आज आप से कुछ ज्ञान प्राप्त करने आए हैं स्वामीजी… इसलिए इन तीनों को भी आज सोने नहीं दिया,” रवीना मीठे स्वर में बोली.

“अति उत्तम देवी… ज्ञान मनुष्य को विवेक देता है… विवेक मोक्ष तक पहुंचाता
है… विराजिए आप लोग,” स्वामीजी बात रवीना से कर रहे थे, लेकिन नजरें पावनी के चेहरे पर जमी थीं. सब बैठ गए. स्वामीजी अपना अमूल्य ज्ञान उन मूढ़ जनों पर उड़ेलने लगे. उन की
बातें तीनों बच्चों के सिर के ऊपर से गुजर रही थी. इसलिए वे आंखों की इशारेबाजी से एकदूसरे के साथ चुहलबाजी करने में व्यस्त थे.

“क्या बात है बालिके, ज्ञान की बातों में चित्त नहीं लग रहा तुम्हारा…” स्वामीजी
अतिरिक्त चाशनी उड़ेल कर पावनी से बोले, तो वह हड़बड़ा गई.

“नहीं… नहीं, ऐसी कोई बात नहीं…” वह सीधी बैठती हुई बोली. रवीना का ध्यान स्वामीजी की बातों में बिलकुल भी नहीं था. वह तो बहुत ध्यान से स्वामीजी व उन के चेले की पावनी पर पड़ने वाली चोर गिद्ध दृष्टि पर अपनी समग्र चेतना गड़ाए हुए थी और चाह रही थी कि नरेन यह सब अपनी आंखों से महसूस करे. इसीलिए वह सब को ऊपर ले कर आई थी. उस ने निगाहें नरेन की तरफ घुमाई. नरेन के चेहरे पर उस की आशा के अनुरूप हैरानी, परेशानी, गुस्सा, क्षोभ साफ झलक रहा था. वह मतिभ्रम जैसी स्थिति में
बैठा था. जैसे बच्चे के हाथ से उस का सब से प्रिय व कीमती खिलौना छीन लिया गया हो.

एकाएक वह बोला, “बच्चो, जाओ तुम लोग सो जाओ अब… पावनी, तुम भी जाओ…”

बच्चे तो कब से भागने को बेचैन हो रहे थे. सुनते ही तीनों तीर की तरह नीचे भागे.

पावनी के चले जाने से स्वामीजी का चेहरा हताश हो गया.

“अब आप लोग भी सो जाइए… बाकी के प्रवचन कल होंगे…” वे दोनों भी उठ गए.

लेकिन नरेन के चेहरे को देख कर रवीना आने वाले तूफान का अंदाजा लगा चुकी थी और वह उस तूफान का इंतजार करने लगी.

रात में सब सो गए. अगले दिन शनिवार था. छुट्टी के दिन वह थोड़ी देर से उठती
थी. लेकिन नरेन की आवाज से नींद खुल गई. वह किसी टैक्सी एजेंसी को फोन कर टैक्सी बुक करवा रहा था.

“टैक्सी… किस के लिए नरेन…?”

“स्वामीजी के लिए… बहुत दिन हो गए हैं… अब उन्हें अपने आश्रम चले जाना
चाहिए…”

“लेकिन,आज शनिवार है… स्वामीजी को शनिवार के दिन कैसे भेज सकते हो तुम…” रवीना झूठमूठ की गभीरता ओढ़ कर बोली.

“कोई फर्क नहीं पड़ता शनिवाररविवार से…” बोलतेबोलते नरेन के स्वर में उस के दिल की कड़वाहट आखिर घुल ही गई थी.

“मैं माफी चाहता हूं तुम से रवीना… बिना सोचेसमझे, बिना किसी औचित्य के मैं
इन निरर्थक आडंबरों के अधीन हो गया था,” उस का स्वर पश्चताप से भरा था.

रवीना ने चैन की एक लंबी सांस ली, “यही मैं कहना चाहती हूं नरेन… संन्यासी बनने के लिए किसी आडंबर की जरूरत नहीं होती… संन्यासी, स्वामी तो मनुष्य अपने उच्च आचरण से बनता है… एक गृहस्थ भी संन्यासी हो सकता है… यदि आचरण, चरित्र
और विचारों से वह परिष्कृत व उच्च है, और एक स्वामी या संन्यासी भी निकृष्ट और नीच हो सकता है, अगर उस का आचरण उचित नहीं है… आएदिन तथाकथित बाबाओं,
स्वामियों की काली करतूतों का भंडाफोड़ होता रहता है… फिर भी तुम इतने शिक्षित हो कर इन के चंगुल में फंसे रहते हो… जिन की लार एक औरत, एक लड़की को देख कर, आम कुत्सित मानसिकता वाले इनसान की तरह टपक
पड़ती है… पावनी तो कल आई है, पर मैं कितने दिनों से इन की निगाहें और चिकनीचुपड़ी बातों को झेल रही हूं… पर, तुम्हें कहती तो तुम बवंडर खड़ा कर देते… इसलिए आज प्रवचन सुनने का नाटक करना पड़ा… और मुझे खुशी है कि कुछ अनहोनी घटित होने से पहले ही तुम्हें समझ आ गई.”

नरेन ने कोई जवाब नहीं दिया. वह उठा और ऊपर चला गया. रवीना भी उठ कर बाहर लौबी में आ गई. ऊपर से नरेन की आवाज आ रही थी, “स्वामीजी, आप के लिए टैक्सी मंगवा दी है… काफी दिन हो गए हैं आप को अपने आश्रम से निकले… इसलिए प्रस्थान की तैयारी कीजिए…10 मिनट में टैक्सी पहुंचने वाली है…” कह कर बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए वह नीचे आ गया. तब तक बाहर टैक्सी का हौर्न बज गया. रवीना के सिर से आज मनों बोझ उतर गया था. आज नरेन ने पूर्णरूप से अपने अंधविश्वास पर विजय पा ली थी और उन बिला वजह के डर व भय से निकल कर आत्मविश्वास से भर गया था.

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