परंपरा – भाग 2 : रिश्तों का तानाबाना

सुजीत अगले दिन चले गए. मोनाली को 2 दिनों बाद रवि के साथ लौटना था. प्रतीक ने बेटे से कहा, ‘‘हम लोगों को मोनाली सब तरह से तुम्हारे योग्य लग रही है. हम तो बस सामाजिक औपचारिकतावश तुम से हां सुनना चाहते हैं.’’

रवि बोला, ‘‘पर मैं ने मोनाली को उस नजर से कभी नहीं देखा. मैं ने मम्मी को बताया था कि मैं तनु से प्यार करता हूं.’’

‘‘पर यह मु झे मंजूर नहीं है. तुम्हारे दादादादी ने मु झ से पूछ कर प्रभा की शादी मु झ से नहीं की थी.’’

‘‘पर वह देश और जमाना कुछ और था, पापा.’’

प्रतीक बोले, ‘‘मेरे जीतेजी ऐसा नहीं होगा. तनु का धर्म और परंपरा बिलकुल भिन्न हैं.’’

‘‘ओह, नो. मैं ड्रौप कर दूंगी, कोई प्रौब्लम नहीं है. मेरा काम तो खत्म हो गया है. अभी 4 बजे हैं. आप को कितने बजे जाना है?’’

‘‘अभी चलते हैं, वैसे साढ़े 4 बजे बुलाया है.’’

दोनों उसी समय कार से निकल गए. रास्ते में रवि ने कहा, ‘‘गैराज तो 10 मिनट के अंदर पहुंच जाएंगे, चलो, कैफे में कौफी पीते हैं तब तक.’’

दोनों ने कौफी के गिलास उठाए और खड़ेखड़े पीने लगे थे. फिर रवि ने उस से कहा, ‘‘चलो, बाकी कौफी कार में बैठेबैठे पीते हैं.’’

दोनों ने कार में कौफी पी. फिर तनु ने रवि को गैराज में ड्रौप किया. कार से उतर कर रवि बोला, ‘‘थैंक्स. तुम जितनी सुंदर देखने में हो, उतनी ही सुंदर ड्राइव करती हो.’’

तनु मुसकरा कर बोली, ‘‘मैं तुम्हें थैंक्स किस बात के लिए दूं? सुंदर कहने के लिए या ड्राइविंग के लिए?’’

‘‘सुंदर तो तुम्हें सभी कहते ही हैं. अभी ड्राइविंग के लिए सही,’’ रवि बोला.

तनु ने इस बार खुल कर हंसते हुए कहा, ‘‘चलो, थैंक्स फौर बोथ कौंप्लिमैंट्स.’’

और तनु चली गई. आजकल समर वैकेशन में रवि के पास कुछ खास काम नहीं था. सुबह में जिम जाता था और शाम को स्विमिंग, बाकी दिन घर में ही रहता था. घर में रोज 3 घंटे रवि और तनु ही होते थे. रवि उसे चाहने लगा था, पर अभी कुछ बोल नहीं पा रहा था. उसे पता था कि बिना दूसरे पार्टनर की सहमति के अमेरिका में किसी को छेड़ना मतलब जेल की हवा खाना है. किसी दुर्घटना या अनचाही छेड़छाड़ करने पर अमेरिका में कहीं भी 911 नंबर पर फोन करने से मिनटों में पुलिस हाजिर हो जाती है. अगर आप पता न भी बताएं तो भी पुलिस कौल ट्रैक कर आप के पास पहुंच सकती है.

एक दिन रवि ने तनु से कहा, ‘‘तुमअपना सैल नंबर दे सकती हो? कभी कोई खास जरूरत पड़े तो बात करने के लिए.

’’‘‘अरे, तो मम्मी का नंबर है ही आप लोगों के पास,’’ तनु बोली.

‘‘तो मैं तुम्हारी मम्मी से बात कर लूं?’’

‘‘इस में क्या हर्ज है? मम्मी को फोन करने से भी काम हो जाएगा.’’

रवि बोला, ‘‘नहीं, अगर तुम से बात करनी हो तो?’’

तनु बोली,‘‘कौन सी बात, जो मम्मी से नहीं बोल सकते आप?’’

‘‘प्यार की बातें,’’ अचानक दिल की बात रवि की जबां पर आ गई थी.

थोड़ी देर दोनों एकदूसरे को देख रहे थे. फिर तनु धीरे से मुसकरा पड़ी. पर रवि कुछ सीरियस ही था.

वह बोला, ‘‘इस मुसकान का क्या मतलब सम झूं मैं?’’

तनु कुछ न बोली थी, फिर भी उस के चेहरे पर वही मुसकराहट थी. तनु का हाथ पकड़ कर रवि ने कहा, ‘‘अब मेरे कालेज जाने में बस एक महीना रह गया है. लगभग 2 महीने से हम रोज 2-3 घंटे साथ बिता रहे हैं. क्या तुम्हें जरा सा भी आभास नहीं हो पाया कि मैं तुम्हें चाहने लगा हूं? सचसच बताना.’’

तनु ने अपनी खामोशी तोड़ते हुए कहा, ‘‘रवि, शायद आप को पता नहीं कि पत्नी अपने पति को माइक्रोस्कोप की नजर से परख लेती है और प्रेमिका अपने प्रेमी को टैलीस्कोप की नजर से.

‘‘जब इतनी परख है तो बताओ तुम ने मु झ में क्या देखा है?’’

‘‘एक सच्चा प्रेमी,’’ बोल कर तनु ने अपनी हथेलियों से अपना मुंह ढक लिया था.

रवि ने चेहरे से उस की हथेलियां हटाते हुए कहा, ‘‘चांद सा मुखड़ा क्यों शरमाया? अच्छा, कल सुबह मैं तुम्हें अपना कालेज दिखाने ले चलूंगा. चलोगी न?’’

‘‘कहां जाना है? मम्मी से क्या बोलूंगी?’’

‘‘तुम अमेरिकी हो. एडल्ट हो. 4-5 घंटे की बात है. तुम कहो तो मैं ही तुम्हारी मम्मी से बात करूं?’’

‘‘नहीं, तुम नहीं बात करोगे. मैं मैनेज कर लूंगी.’’

रवि ने तनु से उस का फोन नंबर ले लिया था. अगले दिन रवि और तनु फ्रीमौंट से सांताक्रूज के लिए निकल पड़े. करीब 40 मिनट की ड्राइव थी. रास्ते में एक ओर पहाड़ी थी. अच्छा दृश्य था. रवि के कालेज के आसपास भी सुंदर प्राकृतिक दृश्य थे. कालेज घूमने के बाद रवि ने उसे अपना एक बैडरूम का अपार्टमैंट दिखाया जहां वह रह कर पढ़ाई करता है. इस के बाद वे सांताक्रूज सी बीच पर गए.

कुछ देर वहां बिताने के बाद वे फ्रीमौंट लौट रहे थे. रास्ते में रवि ने कहा, ‘‘तुम भी मु झे चाहती हो, पहले क्यों नहीं कहा?’’

तनु बोली, ‘‘वैसे भी पहल लड़कों को करनी चाहिए. और हम अमेरिकी नागरिक भले ही हों, पर खून में भारतीय संस्कृति है. और सब से अहम अभी हम दोनों की पढ़ाई है. अभी तो हमारे बारे

में किसी को कुछ पता भी नहीं है. फिलहाल पढ़ाई खत्म होने तक हम दोस्त ही रहें तो बेहतर है.’’

रवि बोला, ‘‘सही कहा. पर तुम्हारी बोली में प्रेमिका के अंदाज से ज्यादा मां का उपदेश था.’’

तनु सिर्फ ‘धत्’ बोल सकी थी. दोनों फ्रीमौंट लौट आए थे. अब अकसर दोनों मिला करते थे, प्यार की बातें करते और भविष्य के सपने बुनते. देखतेदेखते रवि के जाने में 2 दिन रह  गए थे. एक दिन तनु और रवि पास के एक पार्क में बैठे थे. रवि ने बताया कि वह हर शुक्रवार की शाम को कालेज से घर आएगा और सोमवार सुबह सांताकू्रज चला जाएगा.

रवि ने आगे कहा, ‘‘मु झे तुम्हारे बिना अच्छा नहीं लगेगा. फोन पर, और स्काइप पर बातें होंगी पर तुम्हारा साथ तो नहीं होगा. तुम्हारे हाथों के स्पर्श मात्र से बहुत खुशी और सुकून मिलता है.’’

इतना बोल कर रवि ने तनु के हाथों को चूम लिया था. तनु ने कहा, ‘‘मु झे भी तुम्हारे बिना अच्छा नहीं लगेगा.’’

और वह भी रवि से लगभग सट कर बैठ गई. रवि ने धीरे से उस के गालों को सहलाया. तनु के शरीर में सिहरन सी हो उठी. फिर पहली बार रवि ने अपने होंठ उस के होंठों पर रख दिए और उसे अपनी बांहों में ले लिया. दोनों थोड़ी देर इसी स्थिति में रहे. तनु के गाल लाल हो गए थे. फिर जल्द ही स्वयं को व्यवस्थित करते हुए तनु उस से अलग हुई.

वह बोली, ‘‘याद करो, हम ने कहा था न कि पढ़ाई पूरी होने तक नो इश्क.’’

इसी बीच, तनु का कोई गुजराती पड़ोसी उन की बगल से गुजर रहा था. उस ने दोनों को देख लिया था. बात तनु की मां तक पहुंच गई. पर उन्हें मालूम था कि रवि तो अगले दिन बाहर जा ही रहा है. फिलहाल वह खामोश थीं.

अगले दिन रवि चला गया. तनु उस से मिलने गई थी. वह बहुत रोई. रवि के जाने के बाद तनु उदास रहने लगी थी. यह बात उस की मां और प्रभा दोनों ने गौर की थी. तनु की मां को संदेह था ही. तनु अब अपने कमरे में रात को धीरेधीरे रवि से बात करती थी. वह भी कालेज जाने लगी थी पर पार्टटाइम रवि के घर का काम भी करती थी.

तनु की मां ने उसे रवि के बारे में कहा भी था कि अगर बात सिर्फ दोस्ती की है, तब तो ठीक है, पर इस से आगे की नहीं सोचना.

तब तनु ने कहा, ‘‘आगे की सोचने में बुराई क्या है? रवि में क्या कमी है?’’

मां बोली, ‘‘कमी रवि में नहीं है. फासला हमारे और उस के स्टेटस में है. इस के अलावा हमारा धर्म, परंपरा और संस्कार अलग हैं.’’

‘‘क्या मां, वर्षों से अमेरिका में हैं और हमारी सोच में वही सो कौल्ड परंपरा और दकियानूसी भरी है. एनीवे, मैं अभी पढ़ाई पर ध्यान दूंगी. आगे की आगे देखेंगे.’’

उधर रवि के कालेज में एक ब्राह्मण लड़की मोनाली पढ़ने आई थी. वह रवि के पापा के दोस्त सुजीत की बेटी थी और कैलिफोर्निया की राजधानी सेक्रेमैंटो से आई थी. वर्षों पहले वह अपने पापा के साथ रवि के घर आई थी. वह देखने में आकर्षक और स्मार्ट थी. दोनों में धीरेधीरे दोस्ती हो गई थी. रवि उसे सिर्फ सहपाठी सम झता था पर मोनाली उस को मन ही मन चाहती थी. मोनाली ने रवि को तनु से अनेक बार बात करते देखा था और तनु का भी फोन आते देखा था. उस ने यह बात अपनी मां को बताई और उस की मां ने रवि की मां को.

एक दिन मोनाली की मां ने बेटी से पूछा, ‘‘तु झे रवि कैसा लगता है?’’

मोनाली बोली, ‘‘मु झे तो बहुत अच्छा लगता है. पर सिर्फ मेरे अच्छा लगने से क्या? वह तो अकसर किसी तनु नाम की लड़की की माला जपता है.’’

मां बोलीं, ‘‘मैं एक बार प्रतीक से चर्चा करूंगी. बहुत पहले ही उन्होंने कहा था कि हम लोग सजातीय हैं. क्यों न दोस्ती को रिश्ते में बदल लें.’’

इधर रवि और तनु का प्यार परवान चढ़ रहा था. वह जब भी घर आता, समय निकाल कर तनु से अकेले में जरूर मिलता. अब दोनों फाइनल ईयर में थे.

एक बार रवि की मां ने उस से पूछा, ‘‘तुम्हें मोनाली कैसी लगती है?’’

रवि बोला, ‘‘ठीक है, क्यों?’’

‘‘उस के मातापिता तेरे रिश्ते की बात कर रहे हैं.’’

रवि ने कहा, ‘‘नहीं, उस से बस दोस्ती मात्र है. और मैं इस से ज्यादा कुछ नहीं सोचता हूं उस के बारे में. तुम भी आगे कुछ बात नहीं करोगी.’’

‘‘मु झे पता है, तनु के साथ तेरा चक्कर चल रहा है.’’

रवि बोला, ‘‘चक्कर मत कहो. हम लोग एकदूसरे को पसंद करते हैं.’’

‘‘पर याद रखना, तेरे पापा कभी भी इस रिश्ते के लिए तैयार नहीं होंगे और मैं भी नहीं. अगर मैं कलेजे पर पत्थर रख कर मान भी लूं तो पापा तो नहीं मानने वाले,’’ मां बोलीं.

मां ने आगे कुछ नहीं कहा. पर इस बारे में पति से बात की. उन्होंने कहा कि रवि को अच्छी तरह सम झा दो कि मेरे जीतेजी ऐसा नहीं हो सकता, मैं दूसरे धर्म या जाति में रिश्ता नहीं होने दूंगा. रवि के पिता ने कहा कि अगले सप्ताह से 3 हफ्ते की छुट्टी है नए साल की. मोनाली को यहां बुला लेते हैं. शायद कुछ दिन दोनों साथ रहें तो कुछ बात बने. उधर मोनाली भी रवि पर डोरे डालने का प्रयास कर रही थी.

कुछ दिनों बाद मोनाली भी छुट्टियों में रवि के घर आई. यहां आने पर वह तनु से मिली. वह भी उस की सुंदरता पर मुग्ध थी. रवि की मां प्रभा के सिखाने पर उस ने तनु को रवि के कमरे में जाने से मना कर दिया था और कहा कि रवि के लिए हर चीज का खयाल वही रखेगी.

तनु घर में आती और काम कर के चली जाती. तनु या रवि का एकदूसरे से मिलना मुश्किल हो गया था. फोन पर भी बात करने के लिए रवि को घर से बाहर निकलना पड़ता था. एक दिन रवि ने फोन कर तनु को किसी जगह मिलने को कहा. दोनों मिले भी. तनु भी अंदर से दुखी थी. रवि ने उसे सम झाया कि मोनाली सिर्फ उस के पापा के दोस्त की बेटी है और उस के कालेज में पढ़ती है. वह जल्दी ही अपने मम्मीपापा से तनु और अपने रिश्ते की बात करेगा.

इधर, मोनाली के व्यवहार से रवि के मातापिता बहुत खुश थे. मोनाली भी हर वक्त रवि का ध्यान रखती और कोशिश करती कि साए की तरह रवि से चिपकी रहे. मां के कहने पर रवि ग्रौसरी लेने मोनाली को साथ ले जाता. एक दिन घर के दोनों बाथरूम बिजी थे. तो मोनाली रवि के बाथरूम में नहाने गई, पर अंदर से दरवाजा बंद करना भूल गई. रवि बाहर गया था. इसी बीच वह लौट कर आया. उस ने जैसे ही बाथरूम का दरवाजा खोला, सामने मोनाली को सिर्फ लौंजरी में पाया.

मोनाली की भी नजर रवि पर पड़ी. वह जोर से चिल्लाई,‘‘तुम यहां कैसे?’’

रवि बोला ‘‘यह मेरा बाथरूम है. मु झे नहीं पता था तुम यहां हो?’’

तनु भी ठीक उसी समय, ‘मोनाली दी, नाश्ता रेडी है,’ बोलते वहां आई.

तनु, रवि और मोनाली तीनों ने एकदूसरे को देखा.

मोनाली ने तनु से कहा, ‘‘तुम कुछ और न सम झना, यह महज इत्तफाक है.’’

शीतल फुहार – भाग 2: दिव्या का मन

दादी ने धमकी दी थी कि अगर अनुज और दिव्या की शादी न हुई तो वे सतीश की शादी में शामिल नहीं होंगी. अनुज को सम?ाया कि एक बार दिव्या को देख तो लो. सगाई कर लो. और सगाई का क्या, सगाइयां तो टूटती रहती हैं.

अनुज गांव गया दादी से मिलने. इस बार मकसद दिव्या को देखना था. दिव्या उसे दादी के घर में ही मिल गई. अनुज ने कभी बचपन में उसे देखा था. आज देखा तो नजरें नहीं हटा पाया. गोरा गुलाबी चेहरा बिना किसी मेकअप के दमक रहा था. बड़ीबड़ी आंखें, लंबी पलकों की ?ालरें, गुलाबी होंठ, कमर के नीचे तक ?ालती मोटी सी चोटी, सांचे में ढला बदन. जाने क्यों अनुज का जी चाहा कि उन नाजुक होंठों को छू कर देखे कि वह सचमुच गुलाबी हैं या लिपस्टिक का रंग है. उसी दिलकश रूप को आंखों में बसाए वह वापस आ गया और सगाई के लिए हां कर दी. एक हफ्ते बाद ही सगाई भी हो गई.

सगाई के लगभग एक महीने बाद ही एक ऐक्सिडैंट में दिव्या के मम्मीपापा की मौत हो गई. दिव्या तो दुख से अधमरी ही हो गई पर दादी ने उसे समेट लिया. अनुज और उस के मांबाप भी आए पर कुछ घंटे बाद ही लौट गए.

शहरों की अपेक्षा गांव में अभी भी मानवीय संवेदना बची है. दिव्या को यह एहसास ही नहीं होता कि वह अकेली है, अनाथ है. गांव की औरतें, सहेलियां दिनभर आतीजाती रहतीं. जाड़ों में आंगन में धूप में बैठती तो कितनी औरतें और लड़कियां उस के पास जुट जातीं. कोई चाय बना लाती तो कोई जबरदस्ती खाना खिला देती. रात को अनुज की दादी उस के साथ सोतीं.

धीरेधीरे उसे अकेले जीने की हिम्मत और आदत पड़ने लगी थी. घरबाहर मम्मीपापा की यादें बिखरी थीं, पर अब वह हर वक्त आंसू नहीं बहाती थी. मीरा भाभी के ही सु?ाव पर वह गांव के बच्चों को निशुल्क ट्यूशन पढ़ाने लगी थी. पर, एक सवाल था जो अब भी उसे रात को सोने नहीं देता था.

दिव्या के चाचा दूर रहते थे. वे जब गांव आए तो दादी से मिलने गए थे और उन से साफसाफ बात की थी, ‘अब तो भाईसाहब को गए भी 6 महीने से ज्यादा हो गए हैं. एक ही लड़की है. रिश्तेदारी के नाम पर सिर्फ मैं ही हूं. घर से काफी दूर रहता हूं. भाईसाहब की मौत पर आए थे स्वरूप साहब, फिर पलट कर कभी होने वाली बहू की सुध न ली. अकेली लड़की कैसे रह रही है, यह उन की भी तो जिम्मेदारी है. अब तो सुना है बड़े बेटे की शादी है अगले महीने. फिर छोटे की कब करेंगे?

‘विचार बदल गया है तो वह भी साफसाफ बता दें. अब तो गांव वाले भी बातें बनाते हैं कि सगाई टूट गई. बाप मर गया तो क्या, सबकुछ बेटी का ही तो है. अगर शादी न करनी हो तो वह भी बता दें. हमारी लड़की कोई कानीलूली न है. लाखों में एक है. लड़कों की कोई कमी न है.’

‘चिंता न कर गिरधारी, मैं अब की बार जा कर बात करती हूं. दिव्या को भी सुधीर की शादी में ले जा रही हूं. सब ठीक होगा,’ दादी ने कह तो दिया पर गहरी सोच में डूब गईं.

बदलते मापदंड : भाग 2 – चिंता एक मां की

‘चलो, अच्छा हुआ जो उसे पता चल गया. अब वह किसी तरह सुमित से उस का विवाह करवा ही देगी. अपने जीवन की त्रासदी उस के जीवन में नहीं घटित होने देगी.’ तभी घंटी बजी. लगता है सोनल यूनिवर्सिटी से वापस आ गई है. इसी मानसिक ऊहापोह में माधुरी को समय का पता ही नहीं चला. उस ने उठ कर दरवाजा खोला तो सामने सोनल ही खड़ी थी. ‘‘क्या हुआ, मां?’’ मां का उड़ा हुआ चेहरा देख कर सोनल ने पूछा.

‘‘कुछ नहीं, सिर में दर्द है.’’

सोनल कपड़े बदल कर खाने की मेज पर आ कर बैठ गई. माधुरी उस के लिए खाना निकालने लगी तो सोनल बोली, ‘‘मां, तुम्हारे सिर में दर्द है. तुम आराम करो. मैं खुद निकाल कर खा लूंगी.’’ मगर माधुरी वहीं पास पड़ी दूसरी कुरसी पर बैठ गई. वह सोनल से सुमित के बारे में पूछना चाहती थी मगर समझ नहीं रही थी कि बात कहां से शुरू करे. सोनल न जाने क्याक्या अपनी यूनिवर्सिटी की बातें बता रही थी, लेकिन उस को कुछ सुनाई नहीं दे रहा था. सोनल भांप गई कि मां का ध्यान कहीं और है, बोली,  ‘‘क्या है, मां, क्या सोच रही हो, मेरी बातें नहीं सुन रही हो?’’

सोनल द्वारा अचानक पूछे गए सवाल पर माधुरी पहले तो हड़बड़ाई, फिर बोली, ‘‘सोनल, तू अपने विवाह से खुश तो है न?’’ सोनल एकदम भावुक हो गई, ‘‘खुश क्यों होऊंगी मां? क्या किसी लड़की को भला अपने मातापिता को छोड़ने की खुशी होती है?’’ कह कर सोनल रोने लगी. माधुरी की आंखों में भी आंसू आ गए. वह मन ही मन सोचने लगी कि कितनी खूबसूरती से यह लड़की अपनी वेदना प्रकट कर गई. वह स्वयं भी बहुत रोया करती थी. लोग सोचते कि उस को परिवार वालों को छोड़ने का दुख है. कोई भी उस के हृदय के हाहाकार को समझ नहीं पाया था. मगर यह बेवकूफ लड़की यह नहीं जानती कि उस की मां उस के रुदन के पीछे छिपे हाहाकार को बड़ी तीव्रता से महसूस कर रही है. थोड़ी देर बाद सोनल को स्टोररूम से कोयले की अंगीठी लाते हुए देख कर उस ने पूछा, ‘‘सोनल, अंगीठी का क्या करेगी?’’

‘‘मां, कुछ रद्दी कागज जलाने हैं,’’  सोनल का संक्षिप्त सा उत्तर आया.

‘फिर झूठ बोली यह लड़की. अपने हृदय के उद्गारों को रद्दी कागज का टुकड़ा बता रही है,’ वह सोचने लगी. लेकिन वह पूछे भी तो कैसे पूछे, कैसे कहे कि उस ने उस के प्रेमपत्र पढ़ लिए हैं. सोनल पत्रों को जला चुकने के बाद उस के पास वहीं रसोई में आ गई,  ‘‘मां, क्या बनाया है नाश्ते में आज? वाह, मेरी पसंद के ढोकले बनाए हैं.’’ वह नजर उठा कर सोनल के चेहरे की ओर देखने लगी. उस के चेहरे पर कहीं उदासी के चिह्न भी नहीं थे. कितनी आसानी से यह लड़की चेहरे  के भाव बदल लेती है. नाटक करने में तो शुरू से ही निपुण रही है यह. कई इनाम भी जीत चुकी है स्कूल, कालेज, यूनिवर्सिटी में अपनी सशक्त अभिनय प्रतिभा से. वह सोनल के चेहरे को और ध्यान से देखने लगी कि शायद कहीं उदासी की लिखावट पोंछ न पाई हो और उसी के सहारे वह उस के मन की भाषा पढ़ सके. माधुरी के इस प्रकार देखने से सोनल कुछ असहज हो गई, ‘‘क्या बात है, मां? मुझे ऐसे क्यों देख रही हो?’’

‘‘तुझे अपना दूल्हा तो पसंद है न? कहीं कोई और लड़का पसंद हो तो बता दे, अभी कुछ भी नहीं बिगड़ा है. मैं सब संभाल लूंगी,’’ माधुरी उस के प्रश्न के उत्तर में फिर उस से प्रश्न कर बैठी.

‘‘नहीं मां, मुझे और कोई लड़का पसंद नहीं है. और फिर मेरा दूल्हा तो जब आप लोगों को पसंद है तो फिर मुझे पसंद न आने का प्रश्न ही कहां? मगर आप ऐसा क्यों पूछ रही हैं?’’ सोनल ने माधुरी के इस प्रकार के व्यवहार से परेशान हो कर पूछा.

माधुरी को एकाएक कोई उत्तर नहीं सूझा तो झट से कहा, ‘‘कुछ नहीं बेटी, यों ही पूछ लिया. तुम सहशिक्षा विद्यालय में पढ़ी हो न, इसलिए.’’ यह लड़की ऐसे सचसच नहीं बताएगी. फिर क्या करे वह, माधुरी कुछ समय नहीं पा रही थी. ‘आज रात को मैं इस के पिताजी से बात कर के देखती हूं कि वे क्या कहते हैं,’ माधुरी ने मन में सोचा. रात में सोनल के पिताजी से माधुरी ने कहा, ‘‘सुनो, हम लोगों ने सोनल की शादी तय तो कर दी है, कहीं उसे कोई और लड़का पसंद हुआ तो…हम लोगों ने इस ओर तो ध्यान ही नहीं दिया?’’

‘‘क्यों, कुछ कहा क्या सोनल ने?’’ उन्होंने पूछा.

‘‘नहीं,’’ माधुरी बोली.

‘‘फिर तुम्हारे दिमाग में यह सब आया कैसे?’’ सोनल के पिताजी ने फिर प्रश्न किया.

माधुरी ने कहा, ‘‘कुछ नहीं, यों ही दिमाग में आ गया. वह लड़कों से कुछ अधिक खुली हुई है न.’’

‘‘तो इस का मतलब यह तो नहीं हुआ कि वह किसी से प्रेम करती होगी. फुजूल की बातें सोच कर मेरा और अपना दिमाग खराब कर रही हो,’’ सोनल के पिता ने उसे हलकी सी झिड़की देते हुए कहा.

‘अब वह क्या करे? लगता है सोनल से इस संबंध में घुमाफिरा कर नहीं, साफसाफ बात करनी पड़ेगी. कल शाम को जब वह यूनिवर्सिटी से आएगी, तभी वह खुल कर इस संबंध में उस से बात करेगी,’ माधुरी ने मन ही मन निर्णय किया. फिर सारी रात और शाम तक का समय माधुरी ने इसी ऊहापोह में बिताया कि जब सोनल को यह पता चलेगा कि उस ने उस के सारे प्रेमपत्र पढ़ लिए हैं तो वह क्या सोचेगी. फिर शाम को माधुरी ने सोनल को खाने की मेज पर घेर लिया और पूछा, ‘‘सोनल, तुम सुमित से प्रेम करती थीं, फिर तुम ने एक बार भी शादी के लिए इनकार क्यों नहीं किया? आज ही मैं तुम्हारे पिताजी से इस संबंध में बात करूंगी. हम लोग उन मातापिताओं में से नहीं हैं जो अपनी इच्छा के आगे बच्चों की खुशियों का गला घोंट देते हैं. मैं तुम्हारी शादी सुमित से करवा कर रहूंगी.’’ सोनल विस्फारित नेत्रों से माधुरी की ओर देखने लगी. फिर पूछा, ‘‘मां, तुम से किस ने कहां कि मैं सुमित से प्यार करती हूं. वह मेरा अच्छा मित्र अवश्य है, पर क्या मित्रता की परिणति शादी में ही होती है?’’

‘‘तुझे शादी नहीं करनी थी तो प्रेमपत्र क्यों लिखे थे उस को?’’ सोनल के उत्तर से माधुरी झुंझला पड़ी.

‘‘अरे मां, वह तो हम लोगों का एक शगल था. आप के हाथ वह पत्र लग गया क्या? तभी मैं कहूं कि कल से मेरी मां उदास क्यों हैं?’’ फिर वह खिलखिला कर हंस पड़ी, ‘‘नहीं, मुझे नहीं करनी है शादी सुमित से. न नौकरी न चाकरी. अब आप निश्ंिचत हो जाइए.’’ माधुरी को उस की हंसी शीशे की तरह चुभी. वह सोचने लगी है कि क्या यह उसी की लड़की है, जिस के लिए भावना का कोई मूल्य नहीं. प्रेम में भी अपनी व्यावहारिक बुद्धि लगाती है. इस बेवकूफ लड़की को यह नहीं मालूम कि प्यार वह चीज है जो दुनिया की हर दौलत से बढ़ कर होती है. मगर वह क्या समझेगी जिस ने प्यार को मनोरंजन समझा हो. बेचारा सुमित कैसे इस लड़की के प्रेमजाल में फंस गया. उस ने इस के साथ न जाने कितने सपने संजोए होंगे. उसे क्या मालूम कि यह उस के प्यार और त्याग की जरा भी कद्र नहीं करती. तभी घंटी बजी. उस ने उठ कर दरवाजा खोला तो सामने सुमित को खड़ा पाया. कैसा थकाहारा सा लग रहा है. उसे लगा जैसे उस का अंशुल ही प्यार में शिकस्त खा कर खड़ा हो.

‘‘आंटी, सोनल है क्या घर में?’’ सुमित ने पूछा. माधुरी के उत्तर के पहले ही सोनल आ गई, ‘‘अरे, सुमित तुम, आओ बैठो,’’ कहते हुए वह उसे ड्राइंगरूम में ले गई. माधुरी चाय बनाने के लिए रसोई में चली गई. थोड़ी देर बाद वह चाय ले कर ड्राइंगरूम की तरफ बढ़ ही रही थी कि तभी दरवाजे से आते हुए शब्दों ने उसे वहीं ठिठक कर खड़े रहने को विवश कर दिया. सोनल की आवाज थी, ‘‘सुमित, तुम्हारे लिए एक दुखद समाचार है, जानते हो, मां ने मेरे सभी पत्र पढ़ लिए हैं.’’ सुमित का अचकचाहटभरा स्वर उभरा, ‘‘फिर, आंटी तुम पर खूब नाराज हुई होंगी. बड़ी लापरवाह हो. लापरवाही से पत्र रख दिए होंगे.’’

हमेशा की तरह – भाग 2 : सुमन को उस दिन कौन-सा सरप्राइज मिला

दरवाजे की घंटी बजी. सुमन भी कभीकभी बौखला जाती है. दरवाजे की नहीं, फोन की घंटी थी. लपक कर रिसीवर उठाया.

‘‘हैलो,’’ सुमन का स्वर भर्रा गया.

‘‘हाय, मां, जन्मदिन मुबारक,’’ न्यूयार्क से बेटे मन्नू का फोन था.

सुमन की आंखों में आंसू आ गए और आवाज भी भीग गई, ‘‘बेटे, मां की याद आ गई?’’

‘‘क्यों मां?’’ मन्नू ने शिकायती स्वर में पूछा, ‘‘दूर होने से क्या तुम मां नहीं रहीं? अरे मां, मेरे जैसा बेटा तुम्हें कहां मिलेगा?’’

‘‘चल हट, झूठा कहीं का,’’ सुमन ने मुसकराने की कोशिश करते हुए कहा, ‘‘शादी होने के बाद कोई बेटा मां का नहीं रहता.’’

‘‘मां,’’ मन्नू ने सुमन को सदा अच्छा लगने वाला संवाद दोहराया, ‘‘इसीलिए तो मैं ने कभी शादी न करने का फैसला कर लिया है.’’

‘‘मूर्ख बनाने के लिए मां ही तो है न,’’ सुमन ने हंसते हुए पूछा, ‘‘क्या बजा है तेरे देश में?’’

‘‘समय पूछ कर क्या करोगी मां, यहां तो 24 घंटे बस काम का समय रहता है. अच्छा, पिताजी को प्रणाम कहना. और हां, मेरे लिए केक बचा कर रख लेना,’’ मन्नू जल्दीजल्दी बोल रहा था, ‘‘मां, एक बार फिर, तुम्हारा जन्मदिन हर साल आए और बस आता ही रहे,’’ कहते हुए मन्नू ने फोन बंद कर दिया था.

थोड़ी देर बाद फिर फोन बजा.

‘‘हैलो,’’ सुमन ने आशा से कहा.

‘‘मैडम, मैं हैनरीटा बोल रही हूं,’’ गुलशन की निजी सचिव ने कहा, ‘‘साहब को आने में बहुत देर हो जाएगी. आप इंतजार न करें.’’

‘‘क्यों?’’ सुमन लगभग चीख पड़ी.

‘‘जी, जरमनी से जो प्रतिनिधि आए हैं, उन के साथ रात्रिभोज है. पता नहीं कितनी देर लग जाए,’’ हैनरीटा ने अचानक चहक कर कहा, ‘‘क्षमा करें मैडम, आप को जन्मदिन की बधाई. मैं तो भूल ही गई थी.’’

‘‘धन्यवाद,’’ सुमन ने निराशा से बुझे स्वर में पूछा, ‘‘साहब ने और कुछ कहा?’’

‘‘जी नहीं, बहुत व्यस्त हैं. एक मिनट का भी समय नहीं मिला. जरमनी के प्रतिनिधियों से सहयोग के विषय में बड़ी महत्त्वपूर्ण बातें हो रही हैं,’’ हैनरीटा ने इस तरह कहा मानो ये बातें वह स्वयं कर रही हो.

‘‘ओह,’’ सुमन के हाथ से रिसीवर लगभग फिसल गया.

घंटी बजी. पर इस बार फोन की नहीं, दरवाजे की थी. प्रेमलता को जाते देखा. उसे बातें करते सुना. जब रहा नहीं गया तो सुमन ने ऊंचे स्वर में पूछा, ‘‘कौन है?’’ प्रेमलता जब आई तो उस के हाथ में फूलों का एक सुंदर गुलदस्ता था. खिले गुलाब देख कर सुमन का चेहरा खिल उठा. चलो, इतना तो सोचा श्रीमान ने. गुलदस्ते के साथ एक कार्ड भी था, ‘जन्मदिन की बधाई. भेजने वाले का नाम स्वरूप.’ स्वरूप गुलशन का मित्र था.

सुमन ने एक गहरी सांस ली और प्रेमलता को उस से मेज पर रखने का आदेश दिया. सुमन सोचने लगी, ‘आज स्वरूपजी को उस के जन्मदिन की याद कैसे आ गई?’ अधरों पर मुसकान आ गई, ‘अब फोन कर के उन्हें धन्यवाद देना पड़ेगा.’

कुछ ही देर बाद फिर दरवाजे की घंटी बजी. प्रेमलता ने आने वाले से कुछ वार्त्तालाप किया और फिर सुमन को एक बड़ा सा गुलदस्ता पेश किया, ‘जन्मदिन की बधाई. भेजने वाले का नाम अनवर.’

गुलशन का एक और दोस्त. सुमन ने गहरी सांस ली और फिर वही आदेश प्रेमलता को. फिर जब घंटी बजी तो सुमन ने उठ कर स्वयं दरवाजा खोला. एक बहुत बड़ा गुलदस्ता, रात की रानी से महकता हुआ. गुलदस्ते के पीछे लाने वाले का मुंह छिपा हुआ था. ‘‘जन्मदिन मुबारक हो, भाभी,’’ केवलकिशन ने गुलदस्ता आगे बढ़ाते हुए कहा. गुलशन का एक और जिगरी दोस्त.

‘‘धन्यवाद,’’ निराशा के बावजूद मुसकान बिखेरते हुए सुमन ने कहा, ‘‘आइए, अंदर आइए.’’

‘‘नहीं भाभी, जल्दी में हूं. दफ्तर से सीधा आ रहा हूं. घर में मेहमान प्रतीक्षा कर रहे हैं. महारानी का 2 बार फोन आ चुका है,’’ केवलकिशन ने हंसते हुए कहा, ‘‘चिंता मत करिए. फिर आऊंगा और पूरी पलटन के साथ.’’

यही बात अच्छी है केवलकिशन की. हमेशा हंसता रहता है. अब दूसरा भी कब तक चेहरा लटकाए बैठा रहे. रात की रानी को सुमन ने अपने हाथों से गुलदान में सजा कर रखा. खुशबू को गहरी सांस ले कर अंदर खींचा. फिर से घंटी बजी. सुमन हंस पड़ी. फिर से दरवाजा खोला. हरनाम सिंह गुलदाऊदी का गुलदस्ता हाथ में लिए हुए था.

‘‘जन्मदिन की बधाई, मैडम,’’ हरनाम सिंह ने गुलदस्ता पकड़ाते हुए कहा, ‘‘जल्दी जाना है. मिठाई खाने कल आऊंगा.’’

इस से पहले कि वह कुछ कहती, हरनाम सिंह आंखों से ओझल हो गया. वह सोचने लगी, ‘क्लब में हमेशा मिलता है पर न जाने क्यों हमेशा शरमाता सा रहता है. हां, इस की पत्नी बड़ी बातूनी है. क्लब के सारे सदस्यों की पोल खोलती रहती है, टांग खींचती रहती है. उस के साथ बैठो तो पता ही नहीं लगता कि कितना समय निकल गया.’

गुलदस्ते को सजाते हुए सुमन सोच रही थी, ‘क्या उस के जन्मदिन की खबर सारे अखबारों में छपी है?’ इस बार यकीनन घंटी फोन की थी.

‘‘हैलो,’’ सुमन की आंखों में आशा की चमक थी.

‘‘क्षमा करना सुमनजी,’’ डेविड ने अंगरेजी में कहा, ‘‘जन्मदिन की बधाई हो. मैं खुद न आ सका. वैसे आप का तोहफा सुबह अखबार वाले से पहले पहुंच जाएगा. कृपया मेरी ओर से मुबारकबाद स्वीकार करें.’’

‘‘तोहफे की क्या जरूरत है,’’ सुमन ने संयत हो कर कहा, ‘‘आप ने याद किया, क्या यह कम है.’’

‘‘वह तो ठीक है, पर तोहफे की बात ही अलग है,’’ डेविड ने हंसते हुए कहा, ‘‘अब देखिए, हमें तो कोई तोहफा देता नहीं, इसलिए बस तरसते रहते हैं.’’

‘‘अपना जन्मदिन बताइए,’’ सुमन ने हंसते हुए उत्तर दिया, ‘‘अगले 15 सालों के लिए बुक कर दूंगी.’’

‘‘वाहवाह, क्या खूब कहा,’’ डेविड ने भी हंस कर कहा, ‘‘पर मेरा जन्मदिन एक रहस्य है. आप को बताने से मजबूर हूं, अच्छा.’’ डेविड ने फोन रख दिया. वह एक सरकारी कारखाने का प्रबंध निदेशक था. हमेशा क्लब और औपचारिक दावतों में मिलता रहता था. गुलशन का घनिष्ठ मित्र था. रात्रि के 2 बज रहे थे. गुलशन घर लौट रहा था. आज वह बहुत संतुष्ट था. जरमन प्रतिनिधियों से सहयोग का ठेका पक्का हो गया था. वे 30 करोड़ डौलर का सामान और मशीनें देंगे. स्वयं उन के इंजीनियर कारखाने के विस्तार व नवीनीकरण में सहायता करेंगे. भारतीय इंजीनियरों को प्रशिक्षण देंगे और 3 साल बाद जब माल बनना शुरू हो जाएगा तो सारा का सारा स्वयं खरीद लेंगे. कहीं और बेचने की आवश्यकता नहीं है. इस से बढि़या सौदा और क्या हो सकता है. अचानक गुलशन के मन में एक बिजली सी कौंध गई कि पता नहीं सुमन ने मिक्की को फोन किया या नहीं? उस के जन्मदिन पर वह सुबह उठ कर सब से पहले यही काम करता था. आज ही गलती हो गई थी. जरमन प्रतिनिधि मंडल उस के दिमाग पर भूत की तरह सवार था. जरूर ही मिक्की आज नाटक करेगी.

तभी एक और बिजली कड़क उठी. कितना मूर्ख है वह. अरे, सुमन का भी तो जन्मदिन है. आंख खुलते ही उस ने इतने सारे इशारे फेंके, पर वह तो जन्मजात मूर्ख है. बाप रे, इतनी बड़ी भूल कैसे कर दी. अब क्या करे? गुलशन ने फौरन कार को वापस होटल की ओर मोड़ दिया. जल्दीजल्दी कदम बढ़ाते हुए अंदर पहुंचा.

बकरा – भाग 2 : दबदबे का खेल

लटूरी देवता का मेला भरने लगा  था. गुर खालटू के पहुंचते ही प्रधान रातकू और गांव वालों ने उन की खूब आवभगत की.  गुर ने मंदिर से लटूरी देवता की पिंडी निकाली. पिंडी को स्नान करा कर धूपदीप व चावल से पूजाअर्चना कर के भेड़ू और मुरगे की बलि दिलाई गई. फिर देवता का रथ निकाल कर पूरे मेले में घुमाया गया.  इस के बाद गुर खालटू ने लोगों को मेले में गाने का आदेश दिया.

ढोलनगाड़े, शहनाईरणसींगे बजने लगे और मर्दऔरत लाइनों में गोलगोल नाचने लगे. गुर के आदेश पर प्रधान रातकू  खशों द्वारा धाम भी इस मैदान पर दी जानी थी. केवल लोहारों को मैदान से हट कर निचले खेत में खिलानेपिलाने का इंतजाम था.  शाम ढलने तक नाच और बाजे बंद हो गए थे. शराब का दौर शुरू हो गया था, जिस में मर्दऔरत बराबर शामिल थे.

जिसे जितनी पीनी थी पीए, कोई रोक नहीं थी.  नशे में ?ामते लोगों में मांसभात की धाम कोईकोई ही खा पाया था. वहां  से लोग ?ामतेगाते आधी रात तक अपनेअपने घर पहुंचते थे. नाचगानों और प्रधान रातकू की धाम के साथ हलके अंधेरे में लोगों से दूर एकांत में घटी एक घटना बड़ी ही दिलचस्प थी, जिस का 3 के सिवाय चौथे को पता न चला था.

हुआ यों था कि डिंपल अपनी सहेली कांता के साथ मेले में घूमने आई थी. मेले की जगड़ से कुछ दूर एक पेड़ के नीचे खड़ी हो कर वे आपस में बातें करने लगी थीं.  चेला छांगू भी कहीं से टपक कर चोरीछिपे उन की बातें सुनने लगा था. डिंपल पर उस की बुरी नजर से कांता पूरी तरह परिचित थी और वह उसे देख भी चुकी थी.  उस ने चेले को बड़ी मीठी आवाज में पुकारा, ‘‘चेलाजी, चुपकेचुपके क्या सुनते हो…

पास आ कर सुनो न.’’ छांगू था पूरा चिकना घड़ा. वह ‘हेंहेंहें’ करता हुआ उन के पास आ कर खड़ा हो गया. ‘‘दोनों क्या बातें कर रही हो, जरा मैं भी सुनूं?’’ उस ने कहा. ‘‘चेलाजी, हमारी बातों से आप को क्या लेनादेना. आप मेले में जाइए और मौज मनाइए,’’

डिंपल ने सपाट लहजे में कहा. उसे चेले का वहां खड़े होना अच्छा नहीं लगा था. ‘‘हाय डिंपल, तुम्हारी इसी अदा पर तो मैं मरता हूं,’’ छांगू चेले की ‘हाय’ कहने के साथ ही शराब पीए होने की गंध से एक पल के लिए तो उन दोनों के नथुने फट से गए थे, फिर भी कांता ने बड़े प्यार से कहा,

‘‘चेला भाई, आप की उम्र कितनी हो गई होगी?’’ ‘‘अजी कांता रानी, अभी तो मैं 40-45 साल का ही हूं. तू अपनी सहेली डिंपल को सम?ा दे कि एक बार वह मु?ा से दोस्ती कर ले, तो फायदे में रहेगी. देवता का चेला हूं, मालामाल कर दूंगा.’’ ‘‘क्या आप की बीवी और खसम करेगी?’’

‘‘चुप कर कांता, ये लोहारियां हम खशकैनेतों के लिए ही हैं. जब चाहे इन्हें उठा लें… पर प्यार से मान जाए तो बात कुछ और है. तू इसे सम?ा दे, मैं देवता का चेला हूं. पूरे तंत्रमंत्र जानता हूं.’’ डिंपल के पूरे बदन में बिजली सी रेंग गई. उस के दिल में एक बार तो आया कि अभी जूते से मार दे, पर बखेड़ा होने से वह मुफ्त में परेशानी मोल नहीं लेना चाहती थी, तो उस ने सब्र का घूंट पी लिया. ‘‘पर तुम्हारी मोटी भैंस का क्या होगा? वह और खसम करेगी या किसी लोहार के साथ भाग जाएगी,’’

कांता ने ताना कसते हुए कहा, तो छांगू चेला भड़क गया. ‘‘चुप कर कांता, लोहारों की इतनी हिम्मत कि वे हमारी औरतों को छू भी सकें. पर तू इसे मना ले. इसे देखते ही मेरा पूरा तन पिघल जाता है. इस लोहारी में बात ही कुछ और है. पर याद रख कांता, मैं देवता का चेला हूं, जरा संभल कर बात करना… हां.’’ तभी डिंपल ने उस के चेहरे पर एक जोर का तमाचा जड़ दिया.

दूसरा थप्पड़ कांता ने मारा. छांगू चेले का सारा नशा हिरन हो गया. उस की सारी गरमी पल में उतर गई. हैरानपरेशान सा गाल मलते हुए वह कभी डिंपल, तो कभी कांता को देखने लगा. ‘‘खबरदार, अगर डिंपल की तरफ नजर उठाई, तो काट के रख दूंगी. लोहारों की क्या इज्जत नहीं होती? लोहारों की औरतें औरतें नहीं होतीं? देवता के नाम पर तुम्हारे तमाशों को हम अच्छी तरह जानती हैं.

चुपचाप रास्ता नाप ले, नहीं तो गरदन उड़ा दूंगी,’’ कमर से दरांती निकाल कर कांता ने कहा, तो छांगू चेला थरथर कांपने लगा. वह गाल मलता हुआ दुम दबा कर खिसक लिया. डिंपल और कांता खूब हंसी थीं. फिर काफी देर तक वे गांव के रिवाजों और प्रथाओं पर चर्चा करते रहने के बाद अपनेअपने घरों को लौटी थीं. सुबह ही एक खबर जंगल की आग की तरह पूरे चानणा गांव में फैल गई कि माधो लोहार शराब के नशे में खशों के रास्ते चल कर उसे अपवित्र कर गया.

उस की बेटी डिंपल ने लटूरी देवता के मंदिर को छू कर अनर्थ कर दिया. खश तो आग उगलने लग गए. वहीं माधो  से खार खाए लोहार भी बापबेटी को बुराभला कहने लगे. गुर खालटू ने कारदारों के जरीए पूरे गांव को मंदिर के मैदान में पहुंचने का आदेश भिजवा दिया. वह खुद छांगू, भागू और 3-4 कारदारों के साथ माधो के घर जा पहुंचा.

आंगन में खड़े हो कर गुर खालटू ने रोब से पुकारा, ‘‘माधो, ओ माधो… बाहर निकल.’’ माधो की डरीसहमी पत्नी ने आंगन में चटाई बिछाई, लेकिन उस पर कोई न बैठा. इतने में माधो बाहर निकल आया और हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया.  डिंपल भी अपनी मां के पास खड़ी हो गई. उस ने किसी को भी नमस्ते नहीं किया. उसे देख कर छांगू चेले ने गरदन हिलाई कि अब देखता हूं तु?ो. ‘‘माधो, तू ने रात खशों के रास्ते पर चल कर बहुत बड़ा गुनाह कर दिया है.

तू जानता है कि तु?ो ऐसा नहीं करना चाहिए था. तेरी बेटी ने भी मंदिर को छू कर अपवित्र कर दिया है. अब देवता नाराज हो उठेंगे,’’ गंभीर चेहरा किए गुर खालटू ने जहर उगला. ‘‘गुरजी, यह सब सही नहीं है. न मैं खशों के रास्ते चला हूं और न ही मेरी बेटी ने मंदिर को छुआ है.’’ ‘‘हां, मैं तो मंदिर की तरफ गई भी नहीं,’’ डिंपल ने निडरता से कहा, तो गुर थोड़ा चौंका. दूसरे लोग भी हैरान हुए, क्योंकि गुर और कारदारों के सामने बिना इजाजत कोई औरत या लड़की एक शब्द भी नहीं बोल सकती थी.

डिंपल देवता के नाम पर होने वाले पाखंड और कानून के खिलाफ हो रहे भेदभाव पर बहुतकुछ कहना चाहती थी, पर अपनी योजना के तहत वह चुप रही. ‘‘तू चुप कर डिंपल, मैं ने तु?ो मंदिर को हाथ लगाते देखा है,’’ छांगू चेले ने जोर से कहा. ‘‘हांहां, बिना हवा के पेड़ नहीं हिलता. तुम बापबेटी ने बहुत बड़ा गुनाह किया है, अब तो पूरे गांव को तुम्हारी करनी भुगतनी पड़ेगी. बीमारी, आग, तूफान, बारिश वगैरह गांव को तबाह कर सकती है. तुम लोगों को पूरे गांव की जिम्मेदारी लेनी होगी,’’ मौहता भागू गुस्से से बोला. ‘‘तुम दोनों चुपचाप अपना गुनाह कबूल करो. हां, देवता महाराज को बलि दे कर और माफी मांग कर खुश कर लो,’’ एक मोटातगड़ा कारदार बोला.

कुछ गुजर गया – भाग 2 : एक अलहदा इश्क

वह खामोश रह कर चाय पी रहा था.

‘‘आप की दीदी कैसी हैं?’’ मैं ने पूछा.

‘‘ठीक हैं… आप मेरी दीदी को जानती हैं क्या?’’ ‘‘हां…

काव्या को जानते हैं न आप? वे मेरी दीदी हैं.’’

‘‘आप की सगी दीदी?’’ ‘‘हां, तभी तो उस दिन शादी में मैं  भी थी.

आप को याद है, आप ने मुझे देखा था. ‘‘हां, याद है.’’

‘‘तब तो उस रिश्ते से मैं आप की दीदी भी हो गई.’’ ‘‘आप से 2-2 रिश्ते हो गए… दीदी का भी और भाभी का भी.’’ ‘‘आप कौन सा रखिएगा?’’ ‘‘भाभी का…’’

उस ने कहा. वह मेरे हसबैंड को पहले से जानता था और उन्हें भैया ही कहता था, तो उस ने मुझे भाभी ही कहा. लेकिन, मुझे क्या पता था कि इस रिश्ते से भी गहरा रिश्ता मेरा उस से जुड़ने वाला था. सबकुछ ताक पर रखते हुए कितना गहरा रिश्ता मेरे और उस के  बीच पैदा हो गया,

इस का आज एहसास होता है. वह तो मेरी पूरी जिंदगी में ही उतर गया, जबकि जब वह मुझे मिला  था तब ही मेरी शादी के 4 साल हो चुके थे और एक बेटी भी हो चुकी थी एक साल की.  मेरे पास उसे देने के लिए कुछ भी नहीं था, फिर भी वह मुझ से सबकुछ ले गया. जिस्म मैं अपने पति को दे चुकी थी और प्यार मेरी बेटी के हिस्से चला गया था. फिर भी वह क्यों मेरे इतने अंदर समा गया?

आज घर पर सिर्फ 3 लोग थे. जेठानी नीचे थीं और मैं ऊपर किचन के काम मे लग गई. वह आज भी सामने बैठा कोई किताब पलट रहा था. घर पर कोई और नहीं था, जिस के साथ मैं उसे बाहर भेजती.  ‘‘आप बाहर घूम कर आ जाइए,’’ फिर भी मैं ने उस से कहा.  ‘‘मुझे यहां के बारे में कुछ भी पता नहीं है.’’ ‘‘आप जाइए न, यहीं बाहर इस गली से निकलते ही मार्केट है.’’

‘‘ठीक है,’’ कह कर वह कमरे से बाहर निकला. वह सीढि़यों से नीचे उतरने लगा और मैं बाहर रेलिंग के पास आ कर उसे देखती रही. वह चला गया था. अब मैं उसे नहीं देख पा रही थी. मैं छत से कपड़े लाने चली गई. उसे आए तकरीबन एक महीना हो चुका था. अब वह मुझ से काफी खुल गया था. थोड़ा हंसीमजाक भी करता था. कभीकभी चाय भी बनाता था और अब मुझे उस के हाथ की बनी चाय की आदत लग रही थी.  मैं अकसर उसी से चाय बनाने के लिए कहती.

मेरी और उस की नजरों के मिलने का सिलसिला भी बढ़ता गया. अब काफी देर तक मैं उसे देखती रहती. वह मेरे बिस्तर पर बैठ कर कुछ पढ़ रहा होता और मैं किचन में कुछ काम कर रही होती. उस की भी कभी उठती अनायास नजर मुझ से आ कर मिल जाती और ठहर जाती. दोनों की आंखें ही बातें करती थीं. होंठ कंपकंपा कर रह जाते.  मेरे पति अकसर रात को देर से घर आते और सुबह जल्दी चले जाते. उन के पास मेरे लिए समय नहीं था.

जब वे रात को आते तब भी काफी थके होते, खाना खा कर सो जाते और सुबह होते ही ग्राहकों का फोन आने लगता और कई बार बिना ब्रश किए भी चले जाते. कई बार वे रात को आते ही नहीं थे. वहीं किसी दोस्त के घर सो जाते. रात को हम सब एक ही कमरे में सोते थे. मैं, मेरी बेटी, मेरे पति, मेरा भतीजा और वह… अब वह मेरा बहुत खयाल रखने लगा था और मेरी बेटी का खयाल भी अपनी बेटी की तरह रखता था. कई बार वह उस की गोद में खेलतेखेलते उस के कपड़े गीले कर देती.

वह उस के कपड़े भी बदल देता था. मेरी बेटी अब उसे अच्छे से पहचान चुकी थी. एक दिन मेरे पति दोपहर में घर आए थे. किसी बात पर मेरी उन से बहुत लड़ाई हो गई. उन्होंने मुझ पर हाथ भी उठा दिया था. फिर वे बाहर चले गए. मैं पलंग पर लेटी सुबक रही थी. थोड़ी देर में वह आया. उस ने आते ही कमरे की लाइट औन की और मुझे नाम से पुकारा,

‘‘क्या हुआ सुदीप्ता?’’ पहली बार ऐसा हुआ, जब उस ने मुझे मेरे नाम से पुकारा. वह मेरे बगल में आ कर बैठ गया. ‘‘कुछ नहीं…’’ मैं ने उस से सबकुछ छिपाना चाहा. लेकिन न जाने क्या हुआ, मैं फफक कर रो पड़ी. उस ने मेरा सिर उठा कर अपनी गोद में रख लिया और मुझे चुप कराने लगा. उस ने कई बार अपने हाथों से मेरे आंसू पोंछे. ‘‘सुदीप्ता, रोना वहीं चाहिए, जहां कोई आंसू पोंछने वाला हो, नहीं तो फिर रोने से क्या होगा… आंसू खुद ही बहतेबहते सूख जाएंगे.’’ मेरे साथ भी ऐसा ही हो रहा था.

लेकिन अभी मुझे चुप कराने के लिए वह था और मैं थोड़ी देर में चुप हो गई. फिर मैं ने उसे सबकुछ बता दिया कि किस बात पर मेरे पति ने मुझ पर हाथ उठाया.  उस ने सुन कर कुछ नहीं कहा. उस ने मेरी कमर पर हाथ लगा कर मुझे उठाया. उस के हाथ लगाते ही मैं उसे एक अजीब नजरों से देखने लगी. उस ने मुझ से खाना खाने के लिए कहा. वह जा कर खाना परोसने लगा.  मैं वहीं पलंग पर बैठ गई और उसे देखती रही. वह खाना ले कर आया. उस ने अपने हाथ से मुझे खाना खिलाया.

उसे खिलाना नहीं आ रहा था. उस ने 2-4 कौर ही खिलाए थे कि मैं ने उस का हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘रहने दो, मैं खा लूंगी. तुम्हें खिलाना नहीं आ रहा है. देखो, ऐसे खिलाते हैं…’’ और मैं ने पहला कौर उसे अपने हाथ से खिलाया. मैं अपने दुख से बाहर निकल आई थी और उस के प्रेम में डूबी हुई थी.  मैं और वह एकसाथ नीचे वाले कमरे  में आए. दीदी मुझे देख कर खुश हुईं और उन्होंने मुझ पर व्यंग्य भी कसा, ‘‘मैं मनाने गई, तब तो तुम नहीं मानी…’’ सबकुछ धीरेधीरे ठीक हो गया.

अब मैं उस के और ज्यादा करीब आ गई थी. मैं अब कभीकभी अपने पति के सामने भी उस के साथ एक ही थाली में खाती. कई बार मेरे पति भी शामिल होते. वे इस बात का बुरा नहीं मानते थे.  एक सुबह वह कमरे में बैठा अखबार पढ़ रहा था. मैं ने उस से कहा, ‘‘आप नीचे जाइए, मुझे नहाना है.’’ चूंकि बाथरूम छोटा था, इसलिए मैं बाथरूम के बाहर ही नहाती थी. वह बोला,

‘‘नहीं, मुझे आप को नहाते हुए देखना है.’’ मैं कमरे से बाहर निकली और कमरे का दरवाजा सटा दिया. वह दरवाजे पर आ कर खड़ा हो गया. ‘‘जाओ न…’’ वह नहीं गया. मैं उस के सामने ही अपनी साड़ी उतारने लगी. अब मैं सिर्फ पेटीकोट और ब्लाउज में थी. मैं ने पेटीकोट को ऊपर खींच कर उसी से अपने ब्लाउज को ढक लिया, फिर अंदर से ब्लाउज और ब्रा भी  उतार दिए.  उस की नजर मुझ पर गड़ी जा रही थी. पेटीकोट ऊपर खींचने से वह मेरे घुटनों के ऊपर आ चुका था.

मेरे उभारों पर उस की नजर गड़ी थी.  मुझे महसूस हुआ कि देह पर पानी पड़ने और कपड़ा सूती और पतला होने की वजह से मेरे शरीर का गोरापन छलक रहा था. उस की नजर मेरी देह से हट नहीं रही थी. मुझे अच्छा लग रहा था, जब वह इस तरह से मुझे देख रहा था. मुझे न जाने क्या हुआ और अपने पेटीकोट को खोल कर थोड़ा सा नीचे सरका दिया. कुछ पल के लिए मेरे उभार बिलकुल नंगे हो गए. उस ने देखा, वह देख कर खुश हो गया.  मैं पेटीकोट भी उस के सामने उतार फेंकना चाहती थी.

मैं चाहती थी कि मेरे तन पर कोई कपड़ा ही न हो. वह आ कर मेरे बदन पर पानी डाले. मुझे सहलाए. मेरे हर अंग को चूम ले. मेरे उभारों से खेले. हां, मैं यह सबकुछ चाहती थी.  तभी दरवाजे पर घंटी बजी. मैं ने जल्दी उसे ऊपर जाने को कहा. इस तरह कुछ महीने बीत गए. ऐसे ही अब हमारी शरारतें बढ़ गई थीं. वह मुझे कभी चिकोटी काट लेता, कभी पैरों से मेरे पैर रगड़ता. मैं भी कभी उस पर पानी डाल देती. अब मुझे एक दूसरी जगह रहने के लिए जाना था. मेरे पति को यहां से आनेजाने में परेशानी होती थी, तो उन्होंने वहीं एक किराए का फ्लैट ले लिया. सारा सामान एक दिन पहले ही पहुंचाया जा चुका था.

आज मुझे जाना था इस घर को छोड़ कर. अब तक वह मेरे बहुत करीब आ चुका था. मेरा मन भारी हो रहा था.  विवेक गाड़ी लेने गया था. तभी वह मेरे पास आया और एक कागज का टुकड़ा पकड़ाते हुए कहा, ‘‘मुझे इस पर आप के होंठों के निशान चाहिए.’’ मैं थोड़ा चौंक गई, फिर मैं ने उस कागज को अपने होंठों से चूम लिया. मैं उसे चूमना चाहती थी. लिपस्टिक का गहरा निशान कागज पर उभर आया.  गाड़ी आ गई थी. मेरे साथ वह नहीं आया. मैं ने उसे साथ चलने के लिए कहा.

उस ने किसी और दिन आने के लिए कहा.  मुझे अपने नए घर में आए हुए 5-6 दिन हो गए थे. वह नहीं आया. मैं उस से मिलना चाहती थी. डोरबैल बजी. दरवाजा खोला, विवेक था. वह अंदर आ गया. तभी फिर दरवाजे पर दस्तक हुई. मैं मुड़ी. देखा कि वह सामने खड़ा था.

मैं उसे देख कर खिल गई. मैं उसे बांहों में भरना चाहती थी. उसे चूमना चाहती थी, लेकिन नहीं कर सकी… ‘‘बैठो, मैं चाय बनाती हूं.’’ मैं चाय बना कर ले आई और उस के बगल में बैठी. विवेक का मोबाइल फोन बजा और वह बात करते हुए बाहर निकल गया. ‘‘आए क्यों नहीं इतने दिनों से? अगले दिन ही आने के लिए कहा था न…’’ ‘‘नहीं आ सका… मैं आना नहीं चाहता था…’’ उस ने कहा. वह मुझ से मिलना क्यों नहीं चाहता था… वह शायद मुझ से दूर होने की कोशिश कर रहा था. उसे शायद अपना रिश्ता याद आ गया था. लेकिन, मैं भूल चुकी थी कि मैं शादीशुदा हूं और एक बच्ची की मां भी.

‘‘चाची, मैं दुकान पर जा रहा हूं. चाचा का फोन आया था,’’ विवेक ने अंदर आते हुए कहा, ‘‘अमित, तू यहीं रुक जा. दुकान से आता हूं, फिर यहीं खाना खा कर चलेंगे. चाची, मेरा भी खाना बना देना.’’ अमित अभी भी जूते पहने हुए था. मैं ने कहा, ‘‘जूते खोल कर आराम से बैठो.’’

वह जूते खोल कर पलंग पर चढ़ कर बैठ गया. मैं चाय का कप वापस किचन में रख कर आ गई.  उस ने मुझे अपनी गोद में बैठने के लिए कहा. मैं बैठ गई. उस की बाजुओं की पकड़ मेरे शरीर पर जकड़ गई. उस ने मेरे होंठों को चूम लिया.  उस के होंठ हलके गुलाबी थे. वह मुझे छोड़ नहीं रहा था. मेरे होंठ अब भी उस के होंठों से लगे हुए थे. उस की बाजुओं का जोर मेरी पीठ पर और मेरे उभार उस के सीने से दबे हुए थे. एक बार के लिए उस ने अपने होंठ अलग किए और फिर और जोर से मेरे होंठों को चूमने लगा. मैं सिहर गई. तभी दरवाजे पर आहट हुई. मैं तुरंत उस की गोद से उठ गई. दरवाजा अंदर से बंद नहीं था, हलके से सटाया हुआ था. शायद उस ने मुझे देख लिया था.

लेकिन मेरे शरीर पर मेरे पूरे कपड़े थे. पड़ोस की एक लड़की मेरी बेटी को ले कर आई थी. मैं ने उसे बताया, ‘‘ये मेरे देवर हैं.’’ उन दोनों ने एकदूसरे को ‘नमस्ते’ किया, फिर मैं ने उस से चाय के लिए पूछा. ‘‘नहीं. आप की बेटी रो रही थी. शायद इसे भूख लगी है. दूध पिला दो,’’ कहते हुए वह लड़की चली गई.  मैं दूध गरम कर के लाई. वह नहीं पी रही थी और जोर से रोने लगी.

वह मेरा दूध पीना चाहती थी.  मैं ने ब्लाउज के बटन खोले. उस की नजर मुझ पर थी. मेरी नजर मिलते ही उस ने दूसरी तरफ आंखें कर लीं. उस  ने आज मेरी छाती को बहुत करीब से देखा था.  मैं उस के चेहरे के बदले हुए भाव देख रही थी. मैं ने उस से बात करनी शुरू कर दी. मेरी बेटी चुप हो गई थी.  वह मेरी तरफ देख रहा था और बातें कर रहा था, लेकिन कई बार उस की नजर मेरी छाती पर रुक जाती. मैं ने कहा, ‘‘लो, इसे खिलाओ. मुझे खाना बनाना है.’’ वह मेरी गोद से मेरी बेटी को उठाने लगा कि तभी उस की कुहनी मेरी छाती से छू गई. अब अमित अकसर ही मेरे घर आनेजाने लगा.

2-4 दिन के अंदर वह आ ही जाता. कई बार वह खाना खाता और कई बार खा कर आया होता. यहां भी उस ने कई बार मेरे लिए चाय बनाई. इस बीच मेरी और उस की नजदीकियां काफी बढ़ गईं. अब जब कभी कोई नहीं होता, तो वह मुझे अपनी बांहों में ले लेता. मैं भी उस से लिपट जाती और उस के होंठों को चूमने लगती

आशा की नई किरण: भाग 2

‘‘बस यही कि आप एक अच्छे डाक्टर से सलाह ले कर इलाज करवा लें और जब तक आप का इलाज चलता रहेगा, मैं अपने जौब पर वापस जा कर खुश रहने का प्रयास करूंगी.’’

पीयूष सोच में पड़ गया. स्वाति का काम पर जाना उसे पसंद नहीं था. दरअसल, वह अपनी यौन अक्षमता से परिचित था और वह नहीं चाहता था कि शादी के बाद स्वाति अन्य पुरुषों के संपर्क में आए. स्त्री की अधूरी इच्छाएं और कामनाएं उसे भटका सकती थीं. इन पर किसी स्त्री का जोर नहीं चलता.

‘‘बाहर जा कर काम करने की इच्छा तुम मन से निकाल दो,’’ पीयूष ने कुछ कड़े स्वर में कहा, ‘‘मां, कभी नहीं मानेंगी और अगर मैं ने इजाजत दी तो घर में बेवजह कलह पैदा होगा. परंतु मैं एक काम कर सकता हूं. तुम में रचनात्मक प्रतिभा है. मैं घर पर कंप्यूटर ला देता हूं. तुम लेखकहानी लिख कर पत्रपत्रिकाओं में भेजो. इस से तुम्हारे अंदर का रचनाकार जीवित रहेगा और तुम समय का सही उपयोग भी कर सकोगी.’’ स्वाति जो चाहती थी, यह उस का सही समाधान नहीं था. चौबीसों घंटे घर पर रहने से एकाकीपन और ज्यादा डरावना लगने लगता है. यों तो स्वाति के ऊपर बाहर जाने पर कोई प्रतिबंध नहीं था परंतु पुरानी सहेलियों और मित्रों से संपर्क टूट चुका था. एकाध से कभीकभार फोन पर बात हो जाती थी. अब उसे अपने पुराने रिश्तों को जीवित करना होगा. जिस घुटनभरी मानसिक अवस्था में वह जी रही थी, उस में उस का बाहर निकल कर लोगों के साथ घुलनामिलना आवश्यक था, वरना वह मानसिक अवसाद के गहरे कुएं में गिर सकती थी. स्वाति ने बुझे मन से पति के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया परंतु मन में विद्रोह के भाव जाग्रत हो उठे. वह बहुत सीधी, सरल और सच्चे मन की लड़की थी. उस के स्वभाव में विद्रोही भाव नहीं थे. परंतु परिस्थितियां मनुष्य को विद्रोही बना देती हैं. स्वाति के पास विद्रोह करने के एक से अधिक कारण थे परंतु अपनी मनोभावना को उस ने पति पर प्रकट नहीं किया. स्वाति ने संशय से पूछा, ‘‘और आप ने अपने बारे में क्या सोचा है?’’

‘‘अपने बारे में क्या सोचना?’’ उस ने टालने के भाव से कहा.

‘‘आप जानबूझ कर अनजान क्यों बन रहे हैं? क्या आप समझते हैं कि मैं इतनी भोली हूं और पुरुष के बारे में कुछ नहीं जानती. आप अपनेआप को किसी भ्रम में रखने की कोशिश न करें वरना मांजी पोतापोती का मुंह देखे बिना ही इस दुनिया से कूच कर जाएंगी.’’

पीयूष कुछ पल चुप रहा, फिर गंभीरता से कहा, ‘‘मैं अपना इलाज करवा लूंगा.’’

‘‘तो फिर कब चलेंगे डाक्टर के पास?’’ स्वाति ने उत्साह से कहा.

‘‘तुम क्यों मेरे साथ चलोगी? मैं स्वयं जा कर डाक्टर से सलाह ले लूंगा,’’ पीयूष की आवाज में बेरुखी साफ दिखाई पड़ रही थी.

स्वाति के मन में कुछ चटक गया. पतिपत्नी के प्रेम की डोर में एक गांठ पड़ गई. पीयूष ने दूसरे ही दिन एक डैस्कटौप कंप्यूटर, प्रिंटर के साथ ला कर घर पर लगवा दिया. स्टेशनरी भी रख दी. स्वाति ने अपने भावों को शब्दरूप में ढालना आरंभ किया. उस के लेखन को प्रकाशन के माध्यम से गति मिली. इस से काफी हद तक उसे मानसिक सुख और शांति का अनुभव हुआ. स्वाति अपनी दुश्चिंता और मानसिक परेशानी से बचने के उपाय ढूंढ़ रही थी, तो दूरी तरफ सासूमां उस की परेशानी बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही थीं. जैसेजैसे महीने साल में बदल रहे थे, सासूमां की वाणी की मधुरता गायब होती जा रही थी. उन के मुंह से अब केवल व्यंग्यबाण ही निकलते थे. स्वाति को बातबात पर कोसना उन की दिनचर्या में शामिल हो गया था. सासूमां की कटुता स्वाति अपनी कहानियों और कविताओं में भरती रहती थी.

सासूमां अकसर टोकतीं, ‘‘स्वाति, कुछ घर की तरफ भी ध्यान दो.’’

‘‘मेरे बिना घर का कौन सा काम रुका पड़ा है?’’ स्वाति ने अब अपनी स्वाभाविक सरलता त्याग दी थी. वह भी पलट कर जवाब देने लगी थी.

‘‘शादी के कई साल हो गए. अभी तक एक बच्चा पैदा न कर सकी. घरगृहस्थी की तरफ कब ध्यान दोगी, बच्चे कब संभालोगी?’’

‘‘जब समय आएगा, बच्चे भी पैदा हो जाएंगे?’’

‘‘वह समय पता नहीं कब आएगा?’’ सासूमां बोलीं.

स्वाति कुछ नहीं बोली, तो सासूमां ने आगे कहा, ‘‘तुम्हारे पैर घर में टिकते ही नहीं, बच्चों की तरफ ध्यान क्यों जाएगा? बाहर तुम्हारे सारे शौक पूरे हो रहे हैं, तो पति से क्या लगाव होगा? उसे प्यार दोगी तभी तो बच्चे पैदा होंगे.’’ स्वाति ने जलती आंखों से सासूमां को देखा. मन में एक ज्वाला सी भड़की. इच्छा हुई कि सासूमां को सबकुछ बता दे, कमसेकम उन का कोसना तो बंद हो जाएगा, परंतु क्या वे उस की बात पर विश्वास करेंगी? शायद न करें, अपने बेटे की कमजोरी को वे क्यों स्वीकार करेंगी?

‘‘पता नहीं कैसी बंजर कोख ले कर आई है. ऊसर में भी बरसात की दो बूंदें पड़ने से घास उग आती है, परंतु इस की कोख में तो जैसे पत्थर पडे़ हैं,’’ सासूमां के प्रवचन चलते ही रहते थे. सासूमां की जलीकटी सुनतेसुनते स्वाति तंग आ चुकी थी. लेख, कविता और कहानी के माध्यम से मन की भड़ास निकालने के बाद भी उस के मन की जलन कम नहीं होती थी. दिन पर दिन स्वाति का मानसिक तनाव बढ़ता जा रहा था. पीयूष की तरफ से उसे कोई सकारात्मक संकेत नहीं मिल रहे थे. उस ने कहा था कि वह एक आयुर्वेदाचार्य से सलाह ले कर जननेंद्रियों को पुष्ट करने वाली कुछ यौगिक क्रियाएं कर रहा था और दूध के साथ कोई चूर्ण ले रहा था. स्वाति समझ गई, वह किसी ढोंगी वैद्य के चक्कर में फंस गया था. एक नियमित अवधि के बाद जब दोनों ने संबंध बनाए तो स्वाति को पीयूष की पौरुषता में कोई अंतर नजर नहीं आया.

‘‘आप किसी अच्छे डाक्टर को क्यों नहीं दिखाते?’’ स्वाति ने कहा.

‘‘क्या फायदा, जब आयुर्वेद में इस का इलाज नहीं है तो अंगरेजी चिकित्सा में कहां होगा?’’

‘‘आप कैसी दकियानूसी बातें कर रहे हैं. आप पढ़ेलिखे हैं. एक अनपढ़गंवार व्यक्ति के मुंह से भी यह बात अच्छी नहीं लगती. आज विज्ञान कहां से कहां पहुंच गया. चिकित्सा के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हो रही है. कम से कम आप तो ऐसी बात न करें.’’

‘‘ठीक है, अगर तुम कहती हो तो मैं डाक्टर को दिखा दूंगा,’’ पीयूष ने बात को टालते हुए कहा और बाहर की तरफ चल दिया.

स्वाति पति के टालू स्वभाव से हैरान रह गई. पता नहीं किस मिट्टी का बना है यह इंसान. सासूमां का अत्याचार उस के ऊपर बदस्तूर जारी था, बल्कि दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा था. उन के तानों और जलीकटी बातों से स्वाति का हृदय फट कर रह जाता था. दूसरी तरफ पति की उपेक्षा से उस की मानसिक परेशानी दोगुनी हो जाती. उसे लगता, इस भरीपूरी दुनिया में वह बिलकुल अकेली पड़ गई है. उस का पति और सास ही उस के दुश्मन बन गए हैं. अपने मम्मीपापा से वह अपनी परेशानी बता नहीं सकती थी. अपना दर्द वह उन के हिस्से में क्यों डाले. उन्होंने तो अपनी जिम्मेदारी निभा दी थी. उस की शादी कर दी. अब अपने दांपत्यजीवन की परेशानियों से अवगत करा कर उन्हें क्यों परेशान करे? उस ने ठान लिया कि वह स्वयं ही अपनी परेशानियों से लड़ेगी और जीत हासिल करेगी. इन्हीं दुश्चिंताओं से गुजरते हुए उस ने इंटरनैट पर एक प्रसिद्ध सैक्सोलौजिस्ट का नाम व पता ढूंढ़ निकाला, फिर पीयूष से कहा, ‘‘आप स्वयं तो कुछ करने वाले नहीं हैं. मैं ने एक डाक्टर के बारे में इंटरनैट से जानकारी प्राप्त की है. उन से अपौइंटमैंट भी ले लिया है. कल हम दोनों उन के पास चलेंगे.’’ पीयूष ने अपने स्वर में और ज्यादा तल्खी घोलते हुए कहा, ‘‘एक बात समझ लो, मैं किसी डाक्टर के पास नहीं जाने वाला, तुम अपने काम से काम रखो. घर संभालो, मां की सेवा करो, अपना लेखन कार्य करो. तुम्हें जो चाहिए, मैं ला कर दूंगा. मेरे बारे में कुछ करने की तुम्हें जरूरत नहीं है.’’

 

एक कदम आगे – भाग 2

जुबेदा पढ़ीलिखी थी, सब समझती थी, पर इमरान की बेइंतहा मुहब्बत पा कर खुश थी. सास की जलीकटी चुपचाप सह लेती. कभी बात न बढ़ाती. रूना भाभी का व्यवहार ठीक ही था पर वे भी उस की नौकरी और खूबसूरती से खार खाती थीं. सुभान उसे खर्चे के सीमित पैसे देता था, इसलिए भी उसे चिढ़ होती थी.

पिछले कुछ दिनों से अम्मां ने एक नया मसला खड़ा कर दिया था कि शादी को 2 साल हो गए. अभी तक बच्चा नहीं हुआ. इस में जुबेदा का कोई कुसूर न था, पर उसे उलटीसीधी बातें सुननी पड़तीं कि बच्चे बिना औरत लकड़ी के ठूंठ जैसी होती है, न फूल लगने हैं न फल. ऐसी औरतें घर के लिए मनहूस होती हैं. रूना को देखो 5 साल में 2 बच्चे हो गए. घर में कैसी रौनक लगी रहती है.

वैसे बच्चे संभालने में कोई कभी मदद न करतीं. कभी थोड़ीबहुत सिलाई कर देतीं या फिर बेटों की फरमाइश पर कुछ पका देतीं. बाकी का वक्त महल्ले की खबरों में चला जाता. सब को सलाहें देने में और टीकाटिप्पणी करने में सब से आगे.

अम्मां की बातें सुन कर इमरान जुबेदा के साथ डाक्टर के पास गया. दोनों को पूरी तरह जांच करने के बाद डाक्टर ने कहा, ‘‘दोनों एकदम ठीक हैं. कोई खराबी नहीं है. औलाद हो जाएगी.’’

इमरान ने आ कर अम्मां को सब बता दिया और कहा, ‘‘अब आप औलाद को ले कर परेशान न होना. जब होना होगा बच्चा हो जाएगा. अब आप सब्र से बैठें और हां जुबेदा को भी कुछ कहने की जरूरत नहीं है. सब समय पर छोड़ दीजिए.’’

1-2 महीने अम्मां शांत रहीं, फिर एक नया राग शुरू कर दिया कि ‘करामात पीर’ के पास जाना पड़ेगा. उस पीर का एक एजेंट अकसर अम्मां के पास आ फटकता और उन्हें अपने हिसाब से ऊंचनीच समझाना शुरू कर देता. हर बार अम्मां की अंटी कुछ हलकी हो जाती. अम्मां बोलती रहीं पर जुबेदा ने ध्यान न दिया. अनसुनी करती रही.

उस दिन छुट्टी थी. सब घर पर ही थे. नाश्ते के बाद लान में बैठे बातें कर रहे थे कि तभी अम्मां कहने लगीं, ‘‘चलो जुबेदा तैयार हो जाओ. आज हम करामात पीरबाबा के पास जाएंगे. बहुत दिन झेल ली तुम्हारी बेऔलादी… वे एक ताबीज देंगे और पढ़ कर फूकेंगे कि तुम्हारी गोद में बच्चा आ जाएगा. आज तुम्हें चलना पड़ेगा.’’

जुबेदा ने धीरे से कहा, ‘‘अम्मां मैं इन बातों पर यकीन नहीं रखती और यह तो कतई नहीं मानती कि पीरबाबा की फूंक और ताबीज से बच्चे हो जाते हैं.’’

यह सुन कर अम्मां का पारा चढ़ गया. गुस्से से बोलीं, ‘‘यही तो बुराई है इन पढ़ीलिखी लड़कियों में. ये पीरबाबाओं पर यकीन नहीं रखतीं. पड़ोस की सकीना की बहू पीरबाबा के पास गई थी. 2 महीने से उम्मीद से है और सलामत की बेटी को 5 साल से बच्चा न था. उस की भी गोद भर गई. बाबा की एक और करामात है कि ऐसा पढ़ कर फूंकते हैं कि बेटा ही होता है. चलो, तुम्हारी गोद भी हरी हो जाएगी.’’

जुबेदा ने मजबूत लहजे में कहा, ‘‘अम्मां जब मुझे इन बातों पर यकीन ही नहीं है, तो मैं बाबा के पास क्यों जाऊं? ये सब झूठ है. मुझे समय पर भरोसा है… आप के कहने से सारे टैस्ट करवा लिए. सब ठीक है पर मैं करामात बाबा के पास नहीं जाऊंगी, यह मेरा फैसला है.’’

अम्मां ने शिकायती नजरों से इमरान को देखा तो वह बोला, ‘‘अम्मां, मुझे भी इन बातों पर यकीन नहीं है और मैं जुबेदा की मरजी के खिलाफ उस पर जबरदस्ती नहीं करूंगा. वह नहीं जाना चाहती है तो आप न ले जाएं.’’

इस बात पर अम्मां तैश में आ गईं. पूरा घर उन दोनों को छोड़ कर एक हो गया. कई तरह की खोखली दलीलें दे कर समझाने की कोशिश की गई पर वह न मानी और उठ कर अपने कमरे में चली गई. दरवाजा बंद कर लिया. उस की इस हरकत पर पूरा घर उस से नाराज हो गया. कोई उस से बात नहीं करता. ज्यादातर वह स्कूल या अपने कमरे में रहती. एक डेढ़ महीने के बाद घर का माहौल ठीक हुआ. जुबेदा सब्र से सब सह गई. दिन धूपछांव की तरह गुजरते रहे.

कहकशां जब दूध का गिलास ले कर आई तो जुबेदा चौंक कर अपने खयालों से बाहर आई. कहकशां ने जबरदस्ती उसे थोड़ी बै्रड दूध से खिलाई. 2-3 दिन तक रिश्तेदारों के यहां से खाना आता रहा. तीसरे दिन सियूम (मौत का तीसरा दिन तीजा) था उस दिन घर में खाना बनता है और सब रिश्तेदार व दोस्त वहीं खाना खाते हैं. सियूम बहुत शान से किया गया.

सारा दिन जुबेदा को सब के साथ बैठना पड़ा. पूरा वक्त इमरान की मौत का जिक्र, लोगों की बनावटी हमदर्दी, सियूम की तारीफ, शानदार खाना खिलाने पर वाहवाही. जुबेदा का दिल चाह रहा था वह इस माहौल से कहीं दूर भाग जाए.

कहकशां उसे ले कर कमरे में जाने लगी तो सास ने कहा, ‘‘अभी इसे यहीं बैठने दो. आज दिन भर औरतें पुरसा देने (हमदर्दी जताने) आएंगी. इस का यहां रहना जरूरी है.’’

‘‘जुबेदा को चक्कर आ रहा है. वह बैठ नहीं सकती. मुझे उसे लिटाने दीजिए,’’ कह कर उसे कमरे में ले गई.

उस के बाद 1 महीने की फारोहा हुई.

यह खाना करीबी रिश्तेदारों ने पकवा कर कुछ करीबी लोगों को खिलाया. 40-50 लोग हर बार शामिल होते थे. जुबेदा खामोश सब देखती रहती.

कहकशां 4 दिन के बाद चली गई थी. फिर 1 महीना होने पर बहन की मुहब्बत उसे फिर खींच लाई. 1 महीना होने के बाद दूसरे दिन जुबेदा सादे कपड़े पहन कर स्कूल जाने को तैयार हो गई. जैसे ही वह बाहर निकलने लगी सास और फूफी सास ने रोनापीटना शुरू कर दिया, ‘‘यह कैसी बदशगुनी है कि तुम इद्दत पूरी होने से पहले बाहर निकल रही हो.’’

यह सुन कर जेठ और ससुर भी रास्ता रोक कर खड़े हो गए, ‘‘तुम अभी घर से बाहर निकल कर स्कूल नहीं जा सकती. मैं अभी मौलाना साहब को बुलाता हूं, वहीं तुम्हें समझाएंगे.’’

मौलाना साहब आ गए. जबरन जुबेदा को परदे के पीछे बैठा दिया गया. कहकशां भी बेबस सी उस के पास बैठ गई. उन्होंने एक लंबा लैक्चर दिया, जिस का खुलासा यह था, ‘‘साढ़े 4 महीनों तक औरत न किसी गैरमर्द से मिल सकती है न कहीं बाहर जा सकती है और न ही भड़कीले रंगबिरंगे कपड़े पहन सकती है. उसे अपने कमरे में ही रहना होगा.’’

मौलाना साहब की बात सुन कर, तो सासससुर व जेठ सब को जबान मिल गई सब ने एकसाथ बोलना शुरू कर दिया. जुबेदा ने बुलंद आवाज में कहा, ‘‘एक मिनट, मेरी बात सुन लीजिए.’’

कमरे में सन्नाटा छा गया. जुबेदा ने कहा, ‘‘मौलाना साहब, मैं ने दुनिया के जानेमाने आलिम और इसलाम के बहुत बड़े स्कौलर से यूट्यूब पर सवाल किया था कि क्या औरत इद्दत के दौरान कतई बाहर नहीं निकल सकती? तब उन्होंने जो जवाब दिया उसे आप भी सुन लीजिए. उन का जवाब था, ‘‘औरत की अगर कोई मजबूरी है तो वह बाहर जा सकती है. अगर कोई सरकारी या फिर अदालत का काम करना जरूरी है तो भी उसे बाहर जाने की इजाजत है. अगर वह खुद कफील (खुद कमाने वाली) है और बाहर जाना जरूरी है तो वह परदे की एहतियात के साथ घर से निकल सकती है. मजबूरी की हालत में साढ़े 4 महीने की इद्दत पूरी करना जरूरी नहीं है.’’

आलिम साहब का बयान सुन कर सन्नाटा छा गया. सब चुप हो गए. परदे के पीछे से जुबेदा की आत्मविश्वास से भरी आवाज सुनाई दी, ‘‘आप ने आलिम साहब का फतवा सुन लिया. उन के मुताबिक मैं नौकरी के लिए बाहर जा सकती हूं. यह मेरी जरूरत और मजबूरी है. मैं पहले ही 1 महीने की छुट्टी ले चुकी हूं. अब और नहीं ले

सकती. मेरी सरकारी नौकरी है. मेरा स्कूल लड़कियों का स्कूल है. इसलिए बेपर्दगी का सवाल ही नहीं उठता. आलिम साहब के बयान के मुताबिक मुझे बाहर जाने की व नौकरी करने की इजाजत है.’’

मौलवी साहब व दूसरे लोग इतने बड़े आलिम साहब का विरोध करने का साहस न कर सके. उन लोगों के चुप होते ही बाकी लोगों ने भी हथियार डाल दिए. दूसरे दिन से जुबेदा ने हिजाब के साथ स्कूल जाना शुरू कर दिया. जिंदगी फिर सुकून से गुजरने लगी. जुबेदा अपने काम से काम रखती. ज्यादा वक्त तो उस का स्कूल में गुजर जाता. घर के बाकी लोग भी अपने काम में मसरूफ रहते.

परंपरा – भाग 1 : रिश्तों का तानाबाना

तनु रवि के दिल से उतर गई थी. विवाह करना चाहता था वह उस से लेकिन विदेश में रहते हुए भी धर्म, जाति, रिवाजों में जकड़े रवि के मातापिता विजातीय तनु को बहू बनाने के लिए हरगिज तैयार न थे. क्या रवि थोथी मान्यताओं के आगे  झुक गया?

उस दिन प्रतीक के परिवार ने एक धमाकेदार पार्टी दी थी. पूरा परिवार अपने दोस्तों और अमेरिका में बसे नजदीकी रिश्तेदारों के साथ जश्न मना रहा था. पार्टी घर पर ही रखी थी. लगभग 70 लोग थे. उन का घर भी तो आलीशान महल जैसा ही था. कैलिफोर्निया के फ्रीमौंट शहर की ऊंची पहाड़ी पर एक कालोनी में उन का बंगला था. पहाड़ी पर बीचबीच में कुछ जंगली पेड़ थे. डरहम रोड पर बसी थी उन की कालोनी. कभीकभी दिन में भी मेन रोड पर जंगल से निकल कर हिरण दौड़ते दिखता था.

पार्टी की वजह प्रतीक के इकलौते बेटे रवि का इंजीनियरिंग कालेज में ऐडमिशन होना था. वे अपनी पत्नी और 2 साल के बेटे रवि के साथ लगभग 18 साल पहले कैलिफोर्निया आए थे. कैलिफोर्निया अपने सिलिकौन वैली और हौलीवुड के लिए विख्यात है. यहां दोनों मियांबीवी सौफ्टवेयर इंजीनियर थे. रवि 20 साल का हो चुका था. उस के भी कुछ दोस्त पार्टी में आए थे. पार्टी के लिए कुछ खाना तो होटल से मंगवाया था, पर ज्यादातर घर पर ही बनवाया था. सभी लोग खाने की तारीफ कर रहे थे. नौर्थ इंडियन, साउथ इंडियन और गुजराती व्यंजन सभी का मिश्रण था खाने में. ‘इडली, ढोकला, खट्टामीठा भात, दूधपाक, मिठाइयां आदि विशेष आकर्षण थे.

रवि के अमेरिकी मित्र ने पूछा, ‘‘इतना सारा तुम लोग घर पर कैसे मैनेज कर लेते हो?’’

रवि बोला, ‘‘मेरे यहां 12 साल से एक गुज्जू (गुजराती) मेड है जो सभी प्रकार के इंडियन खाने बनाने में ऐक्सपर्ट हैं.’’

उसी समय एक बुजुर्ग महिला और एक युवती अपने हाथों में टे्र ले कर आईं. जो बाउल खाली हो चले थे उन में उन दोनों ने और पकवान ला कर भर दिए. रवि ने बुजुर्ग महिला की ओर इशारा कर मित्र को बताया कि हमारे यहां का ज्यादातर खाना यही बनाती हैं. तभी वे दोनों महिलाएं रवि के पास से गुजरीं. रवि ने बुजुर्ग महिला को रोक कर कहा, ‘‘आशा, बहुत स्वादिष्ठ खाना बनाया है आप ने. मेरा अमेरिकी दोस्त भी काफी तारीफ कर रहा है.’’

आशा थैंक्स बोल कर जाने लगी तभी रवि ने उन से पूछा, ‘‘आप के साथ यह लड़की कौन है? आज पहली बार देख रहा हूं.’’

‘‘यह मेरी बेटी तनुजा है. हम इसे प्यार से तनु कह कर बुलाते हैं. यह स्कूल के फाइनल ईयर में है. कल से यही पार्टटाइम काम करेगी. यह भी बहुत अच्छा खाना बनाती है.’’

रवि तनुजा को ऊपर से नीचे तक देखता रहा. तनुजा उन दोनों को हाय कर के चली गई. रवि उसे जाते हुए देखता रहा. उस के मित्र ने कहा, ‘‘यार, कहां खो गए? वह तो गई. पर मैं भी इस टिपिकल इंडियन ब्यूटी को सैल्यूट करता हूं, यार.’’

रवि बोला, ‘‘कोई बात नहीं. वह तो कल से रोज ही आएगी.’’

तनु की मां प्रतीक के यहां 3 घंटे रोज काम करती थीं, 20 डौलर प्रति घंटे के रेट से. किसी दिन काम ज्यादा होता तो कुछ और देर तक काम करना होता था. वह खाना बनाने के अलावा लौंड्री करती (औटोमैटिक मशीन में कपड़े धोने और पूरी तरह सुखाने का काम. यहां खुले में या धूप में कपड़े डालने का चलन नहीं है), घर की सफाई का काम करतीं और किचन के बरतन डिशवाशर में रख देतीं और अगर मशीन भर गई होती थी तो उसे औन कर दिया करती थीं. वे सिर्फ खाना बनाने वाले बरतन ही डिशवाशर में डालती, जूठे बरतन धोना उन का काम नहीं था.

आशा ने तनु को पूरा काम सम झा दिया था. रवि की मां प्रभा को भी बोल गई थीं कि कल से तनु ही आएगी. इंडियन स्टोर के किचन में काम मिल गया, सो, वहां ज्यादा टाइम देना पड़ेगा. और तनु भी कुछ महीने बाद कालेज जाएगी तो खर्च भी बढ़ जाएगा.

तनु के पिता भी फ्रीमौंट में उसी इंडियन ग्रौसरी स्टोर में काम करते थे. पतिपत्नी दोनों की आमदनी मिला कर परिवार चलाने लायक हो जाती थी. तनु मातापिता की इकलौती संतान थी. तनु भी बहुत दुलारी बेटी थी. देखनेसुनने में अति सुंदर, लाखों में एक, लड़के तो लड़के, लड़कियां भी उस की सुंदरता पर मुग्ध थीं.

पार्टी के अगले दिन से तनु ही प्रतीक के यहां आने लगी थी. प्रतीक का परिवार कट्टर ब्राह्मण था, यहां तक कि घर में लहसुनप्याज भी नहीं आते थे. गुजराती को प्रतीक ने काम पर खासकर इसलिए रखा था कि उस का परिवार भी शुद्ध शाकाहारी था.

जब रवि छोटा था तो उस की मां उसे स्कूल में ड्रौप कर देती थी. तनु की मां आशा दोपहर में अपनी कार से ले कर आतीं, उसे खाना खिलातीं, उस के कपड़े बदलतीं और उसे कुछ ऐक्स्ट्रा क्लासेज, स्विमिंग आदि के लिए अपनी कार से ड्रौप कर देती थीं. शाम को मां ही पिक कर लेती थीं.

अब तनु सुबह में बस एक घंटे आती, फिर दोपहर स्कूल से लौट कर 2 घंटे बाकी काम करती थी. वह अपनी कार से ही आती थी. अभीअभी 18 वर्ष की हुई थी, तब उसे ड्राइविंग लाइसैंस मिला था. तनु के आने के बाद रवि उस से फरमाइश कर गुजराती खाना बनवाता था. वह उस की सुंदरता पर फिदा था. तनु उस के कमरे को काफी साफसुथरा और सजा कर रखती थी. रवि उस के काम से बहुत खुश था. रोज किसी न किसी बहाने तनु से कुछ बात कर लिया करता था.

तब समर वैकेशन था. अमेरिका में जून से अगस्त तक लगभग 3 महीने का समर वैकेशन होता है. एक दिन दोपहर में तनु आई. वह घर का वैक्यूम कर रही थी. रवि उस के पास जा कर बोला, ‘‘हाय, तुम बहुत सुंदर हो.’’

हालांकि वैक्यूम की तेज आवाज में भी वह सुन चुकी थी, फिर भी अनजान बनते हुए कहा, ‘‘व्हाट?’’

रवि बोला, ‘‘यू आर टू ब्यूटीफुल.’’

एक बार फिर अनजान बन कर धीमी मुसकराहट के साथ तनु ने कहा, ‘‘व्हाट?’’

इस बार रवि ने अपने पैर से वैक्यूम का बटन दबा कर औफ कर दिया और कहा, ‘‘तुम बेहद खूबसूरत हो.’’

‘‘यह तो मैं जानती हूं. सभी कहते हैं. और कोई बात?’’

‘‘तुम खाना भी अच्छा बनाती हो.’’

‘‘यह भी मैं जानती हूं.’’

तब उस के सिर पर धीरे से थपकी देते हुए रवि ने कहा, ‘‘और कुछ नहीं, मेरी नानी. जाओ, थोड़ी कौफी पिलाओ. तुम अपने लिए भी बना लाओ.’’

तनु बोली, ‘‘नहीं, मैं नहीं पिऊंगी.’’

थोड़ी देर में वह कौफी बना कर रख गई और काम में लग गई. रवि ने पूछा, ‘‘तुम्हारी मम्मी बोल रही थीं कि फौल सौमेस्टर में तुम कालेज जौइन कर रही हो.’’

तनु बोली, ‘‘हां, मैं यहीं फ्रीमौंट के ओलन कालेज में अकाउंटिंग का कोर्स करूंगी.’’

‘‘यह तो मिशन बुलवार्ड पर है. बिलकुल घर के पास, एक मील की दूरी पर. वैसे तुम्हारी अकाउंटिंग की चौइस अच्छी है,’’ रवि बोला.

‘‘कालेज पास में है, इसीलिए तो कालेज में पढ़ने का साहस किया है. वरना कहीं बाहर भेज कर पढ़ाने की हैसियत पापा की नहीं है.’’

इसी तरह इन दोनों में धीरेधीरे बातचीत बढ़ती गई. एक दिन रवि ने तनु से कहा, ‘‘मु झे तुम गैराज तक ड्रौप कर सकती हो? मेरी कार मेकैनिक के पास है. सुबह छोड़ कर आया था. उस समय मम्मी ने वापस घर पर ड्रौप कर दिया था. वैसे कोई प्रौब्लम है, तो रहने दो, मैं  कैब बुला लूंगा.’’

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